‘विद्यार्थी स्टार्टअप क्रांति’ की शुरूआत करने वाले हिरण्मय महंता की सारी स्कूली शिक्षा आदिवासी इलाके में उड़िया माध्यम से हुई है
स्वामी विवेकानंद ने कहा है – “बस वही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं।” युवा उद्यमी और सामाजिक वैज्ञानिक हिरण्मय महंता एक ऐसी ही शख्सियत हैं जिन्होंने दूसरों के लिए जीने को ही अपने जीवन का सबसे बड़ा मकसद बना लिया है। हिरण्मय का सपना खुद की कामयाबी का नहीं है, बल्कि लाखों युवाओं के सपने पूरे करवाने में उनकी मदद करने का है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी, सूरत से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने वाले हिरण्मय के सामने राहें तो कई थीं, लेकिन उनके लिये सफलता के मायने केवल अच्छी नौकरी पाने तक सीमित नहीं थे। दूसरों की विलक्षण सफलता से प्रभावित होकर उनके जैसे बनने की चाहत कई लोगों में होती है, लेकिन हिरण्मय सफलता के उदाहरणों से प्रभावित नहीं हुए। वे चाहते थे कि वे कुछ ऐसा करें जिससे उनका काम दूसरों के लिए एक उदाहरण बने, वे लोगों के लिए आदर्श बनें और लोग उनका अनुसरण सिर्फ बात के लिए करें कि उन्हें भी उनकी तरह जीवन में कुछ नया और बेहद ख़ास करना है। हिरण्मय की कामयाबी की कहानी भी प्रेरणादायक है। आदिवासी इलाके में जन्मे, पले-बढ़े और पढ़े-लिखे होने के बावजूद हिरण्मय ने अपनी बुद्धिमत्ता और नयी सोच से विज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भी एक नयी क्रांति की शुरूआत की। लाखों युवाओं को ‘स्टार्टअप की राह’ दिखा रहे हिरण्मय का बचपन उड़ीसा के आदिवासी इलाके में बीता। इंटर तक उनकी सारी पढ़ाई सरकारी स्कूलों और कॉलेज में हुई। बारहवीं तक सारी शिक्षा उड़िया माध्यम से हुई। शिक्षक पिता से प्रभावित और प्रेरित हिरण्मय ने आदिवासी इलाके से ही सपनों की ऊंची उड़ान भरी और आसमान की ऊंचाइयों को छुआ। गरीबी से सराबोर और काफी पिछड़े इलाकों में रहने वाले बच्चों और युवाओं के लिए ‘आदर्श’ बनने की प्रबल इच्छा ने हिरण्मय को मन लगाकर पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। लगन, मेहनत और अलग सोच का ही नतीजा था कि हिरण्मय सिर्फ आदिवासी इलाकों में रहने वालों के लिए नहीं बल्कि देश के युवाओं के लिए भी ‘आदर्श’ बने।
हिरण्मय महंता की कामयाबी की कहानी शुरू होती है ओड़िशा राज्य के केउंझर जिले से। आदिवासी बहुल केउंझर जिले में ही हिरण्मय का जन्म हुआ। लेकिन, हिरण्मय का परिवार आदिवासी नहीं था। उनके पिता सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। माँ गृहणी थीं। हिरण्मय की स्कूली शिक्षा अलग-अलग सरकारी स्कूलों हुई। चूँकि पिता सरकारी शिक्षक थे और अक्सर उनका तबादला होता रहता था, हिरण्मय की पढ़ाई उन्हीं स्कूलों में हुई जहाँ-जहाँ उनके पिता ने पढ़ाया। ये सभी स्कूल आदिवासी इलाके में थे और हिरण्मय की सारी स्कूली पढ़ाई-लिखाई उड़िया भाषा में ही हुई। हिरण्मय बचपन से ही मेधावी छात्र थे और उन्होंने आदिवासी इलाकों के उड़िया भाषी स्कूलों में पढ़ने के बावजूद प्रदेश की मेरिट लिस्ट में टॉप- 30 विद्यार्थियों में जगह बना ली थी। हिरण्मय की ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई भी एक सरकारी कॉलेज में उड़िया माध्यम से ही हुई।
हिरण्मय शुरू से ही अपने शिक्षक पिता से बहुत प्रभावित रहे हैं। पिता एक समर्पित और जुझारू शिक्षक थे। उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के लिए नए-नए तौर-तरीके आजमाए। सरकारी स्कूलों में साधनों और संसधानों के अभाव की परवाह किया बिना उन्होंने आदिवासी बच्चों को अपने अनोखे अंदाज़ में पढ़ाया-लिखाया। हिरण्मय के पिता ने कई सारे आदिवासी लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भिजवाने के लिए भी प्रेरित किया। उनके पिता इस बात की हर मुमकिन कोशिश करते थे कि आदिवासी लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आये। अगर हिरण्मय के पिता चाहते थे तो वे भी दूसरे शिक्षकों की तरह मौजूदा साधनों से बच्चों को पढ़ा-लिखा कर अपने घर चले जा सकते थे। लेकिन, हिरण्मय के पिता ने आसान रास्ता नहीं चुना और आदिवासी लोगों में जागरूकता लाने को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझा और उसे बखूबी निभाया भी।
अपने पिता के कामकाज के तरीकों की वजह से, हिरण्मय बचपन में ही जान गए थे कि अगर इरादा पक्का और नेक हो तो लक्ष्य को पाने में साधनों और संसाधनों की कमी आड़े नहीं आती। दृढ़ इच्छा-शक्ति से सारे साधन-संसाधन जुटा लिए जा सकते हैं। हिरण्मय को इस बात का भी अहसास हो गया कि अगर आप दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों और अगर आप कुछ नया, अनोखा और अच्छा काम कर रहे हैं तो आपका नाम होगा और आप की एक अलग पहचान बनेगी। पिता के ‘ज़रा हटके काम करने के तरीके’ से प्रभावित हिरण्मय के बचपन में ही फैसला कर लिया था कि वे भी अपनी ज़िंदगी में ‘कुछ अलग और बड़ा’ काम करेंगे और लोगों के बीच अपनी बेहद अलग पहचान बनायेंगे। एक बेहद ख़ास बातचीत के दौरान हिरण्मय ने ये भी कहा, “अनुसरण करने के लिए बचपन में मेरे सामने ज्यादा आदर्श लोग नहीं थे। मैं आदर्श लोगों को ढूँढता था, लेकिन आसपास मुझे कोई नहीं दिखाई देता था। मुझ पर मेरे पिता का ही सबसे ज्यादा प्रभाव रहा। जब मुझे आसपास कोई बड़ा आदर्श नहीं दिखा तब मैंने फैसला किया कि मुझे खुद एक आदर्श बनाना चाहिए। एक ऐसा आदर्श जिसे उड़ीसा के आदिवासी लोग ही नहीं बल्कि देश के लोग भी अनुसरण कर सकें।”
चूँकि पिता पढ़े-लिखे थे, देश और दुनिया में हो रही बड़ी-बड़ी घटनाओं के बारे में जानकारी हासिल करते रहते थे उन्होंने हिरण्मय के भविष्य को लेकर भी योजनाएँ बना ली थीं। पिता ने हिरण्मय को बचपन में ही देश के सबसे प्रतिष्ठित तकनीकी शिक्षा संस्थान यानी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के बारे में बताया था। हिरण्मय ने ठान ली थी कि वे आईआईटी में दाखिला हासिल करेंगे। आईआईटी में दाखिले के लिए हिरण्मय ने ज़बरदस्त तरीके से तैयारी भी की। आईआईटी और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) की प्रवेश परीक्षा में प्रदर्शन के आधार पर हिरण्मय को एनआईटी में दाखिले की योग्यता हासिल हुई। वैसे तो देशभर में कई नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी हैं लेकिन हिरण्मय ने अपनी पढ़ाई के लिए गुजरात के सूरत शहर की एनआईटी को चुना। गांधीनगर में हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात में हिरण्मय ने बताया कि सूरत शहर की एनआईटी को चुनने के पीछे एक ख़ास मकसद था। सूरत शहर महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई और गुजरात के बड़े शहर अहमदाबाद के बीच में पड़ता है। मुंबई में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) है जबकि अहमदाबाद में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (आईआईएम)है। हिरण्मय को लगा कि वे समय/छुट्टी मिलने पर देश के इन दोनों बड़े शिक्षा संस्थानों में जाकर महत्वपूर्ण जानकारियाँ हासिल कर सकते हैं।
हिरण्मय ने एनआईटी, सूरत में इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन की उच्च स्तरीय पढ़ाई शुरू की। हिरण्मय को एनआईटी जैसे नामचीन संस्थान में जगह तो मिल गयी थी लेकिन उनके लिए भाषा की समस्या से निपटना एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा था। एनआईटी में दाखिले से पहले उनकी शिक्षा उड़िया माध्यम से ही हुई थी, लेकिन अब उन्हें सब कुछ अंग्रेजी में पढ़ाया जाने लगा था। शिक्षा की नहीं बल्कि सारे कामकाज और बोलचाल की भाषा भी अंग्रेजी हो गयी थी। चूँकि हिरण्मय के इरादे मजबूत थे उन्होंने कम समय में ही इस भाषाई चुनौती को भी पार लगा दिया। कड़ी मेहनत और कठोर अभ्यास ये उन्होंने जल्द ही अंग्रेजी पर भी अपनी पकड़ मज़बूत कर ली। हिरण्मय के लिए एक और बड़ी चुनौती थी – शहरी माहौल में खुद को ज़माना। वे आदिवासी इलाके से आये थे और शहर और शहरी जन-जीवन उनके लिए बिलकुल नया था। लेकिन, चूँकि वे समझदार थे, होशियार भी उन्होंने खुद को जल्द ही शहरी माहौल के अनुरूप बना लिया। एनआईटी में शिक्षा के दौरान हिरण्मय को अपने मुख्य विषयों – इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन्स के अलवा भी बहुत कुछ सीखने-समझने को मिला। चूँकि गुजरात राज्य अपने उद्यमियों और लोगों की उद्यमशीलता के लिए मशहूर है हिरण्मय भी उद्यमिता की ओर आकर्षित हुए। छुट्टी वाले दिनों में हिरण्मय अलग-अलग जगह जाते और लोगों के व्यवसाय, उनके कामकाज-रहनसहन के बारे में जानकारियाँ हासिल करते। हिरण्मय ने कहा, “एनआईटी में पढ़ाई से समय में ही मुझे आन्ट्रप्रनर्शिप का कीड़ा लग गया था। मुझे लगने लगा कि सरकार हर एक को नौकरी नहीं दे सकती है। अगर लोग सिर्फ सरकारी नौकरियों के लिए ही पढ़ाई करें तब आगे चलकर कई लोगों को निराश होना पड़ सकता है। मुझे लगा कि मैं इस दिशा में कुछ अलग काम कर सकता हूँ। मैंने मन बना लिया था कि मैं कुछ अलग करूँगा और आन्ट्रप्रनर्शिप के मामले में ही कुछ नया और बड़ा करने की कोशिश करूँगा।” एक मायने में ये एक बड़ा फैसला था। आमतौर पर ग्रामीण परिवेश से आने वाले ज्यादातर विद्यार्थी ग्रेजुएशन के बाद नौकरी करने की सोचते हैं। ज्यादातर लोगों को लक्ष्य होता है कि एक बड़ी और अच्छी कंपनी में तगड़ी तनख्वाह पर नौकरी हासिल करें। वैसे भी एनआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से ग्रेजुएशन करने वालों को तगड़ी रकम वाली नौकरी आसानी से मिल ही जाती है। कई सारे विद्यार्थी यही मानते हैं कि आईआईटी और एनआईटी जैसे शिक्षा संस्थानों में दाखिला हासिल करने का सीधा मतलब है तगड़ी रकम वाली नौकरी पक्की कर लेना। इसी सोच से कई विद्यार्थी आईआईटी और एनआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते हैं। लेकिन, हिरण्मय की सोच दूसरी कई विद्यार्थियों से काफी जुदा थे। उन्होंने नौकरी न करने का फैसला लिया।
बड़ी बात ये है कि नौकरी के पीछे न भागने और खुद का रोजगार/कारोबार करने से भी आगे की सोची थी हिरण्मय ने। हिरण्मय इस सोच में डूब गए कि देश में उद्यमिता को बढ़ावा कैसे दिया जा सकता है? ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे ज्यादा से ज्यादा युवा उद्यमिता की ओर आकर्षित हो? क्या करने पर लोगों की सोच बदलेगी और वे नौकरियों की तलाश करने के बजाय खुद दूसरों को नौकरियां देने की स्थिति में होंगे? इन्हीं सवालों की तलाश में डूबे हिरण्मय को सलाहकार और मार्गदर्शी के रूप में मिले प्रोफेसर अनिल गुप्ता। आईआईएम में प्रोफेसर के तौर पर काम कर रहे जाने-माने विद्वान और वैज्ञानिक अनिल गुप्ता की सोच, उनकी विद्वत्ता और उनके नज़रिए से हिरण्मय बहुत प्रभावित हुए। अनिल गुप्ता सोसाइटी फॉर रिसर्च एंड इनिशिएटिव्स फॉर सस्टेनेबल टेक्नोलॉजीज एंड इंस्टीट्यूशन्स (सृष्टि) से जुड़े हुए थे। हिरण्मय भी इस संस्था से जुड़ गए।
'कुछ भी नया करने के लिये ये बेहद ज़रूरी है कि नया करने की चाह रखने वालों को पूर्व में किये गये कार्यों और प्रयासों का ज्ञान हो। यानी बात बिलकुल साफ़ है अगर आपको पुराने के बारे में मालूम नहीं है तो आप किसी भी चीज़ को नया मान सकते हैं और जिस चीज़ को आप नया मान रहे हैं वो हकीकत में पुरानी हो सकती है।' इसी तथ्य को मूल में रखते हुए हिरण्मय ने अपने कुछ दोस्तों के साथ होस्टल के एक कमरे से ‘टेकपीडिया’ की शुरूआत की। दरअसल, ‘टेकपीडिया’ एक वेबपोर्टल है। हिरण्मय और उनके 6-7 साथियों ने मिलकर भारत के करीब 1000 इंजीनियरिंग कॉलेजों और 30 विश्वविद्यालयों के शोध-पत्रों और अनुसंधान-सामग्री को इक्कट्ठा किया। सारे शोध-पत्रों को इक्कट्ठा करने के बाद उन्हें सुव्यवस्थित ढंग से ‘टेकपीडिया’ नामक पोर्टल के माध्यम से एक मंच/प्लेटफॉर्म पर लाया गया। ये काम न ही आसान था और किसी ने इससे पहले ऐसा बड़ा काम किया था। लेकिन, हिरण्मय और उनके साथियों से मिलकर सिर्फ 150 दिनों में इस काम को पूरा कर एक बड़ी कामयाबी और उपलब्धि हासिल की। भारत में ये पहली बार था जब इंजीनियरिंग के क्षेत्र में छात्रों द्वारा किये जा रहे इनोवेशन, रिसर्च और नवाचार इतनी आसानी से एक ही जगह पर उपलब्ध हो पा रहे थे। इंजीनियरिंग के लाखों विद्यार्थी इससे लाभान्वित होने लगे।
इस तरह के मंच/पोर्टल के अभाव में कई जगह एक ही विषय पर कई लोग शोध-अनुसंधान कर रहे थे। विश्वविद्यालयों के बीच समन्वय की कमी थी। इतना ही नहीं शोधार्थी और उनके मार्गदर्शक ये जानते ही नहीं थे कि शोध के लिए जिस विषय का उन्होंने चयन किया है उसपर भारत में कहीं और शोध हुआ भी है या नहीं। इस जानकारी के अभाव में वे शोध के अपने विषय को नया मानकर शोध शुरू करवा देते थे, जबकि उसी विषय पर भारत में दूसरी जगह शोध हो चुका होता था। ‘टेकपीडिया’ की वजह से ये जानना आसन हो गया कि चयनित विषय पर बहरत में पहले शोध-अनुसंधान हुआ है या नहीं और अगर हुआ है तो किसने किया है और कब किया है। महत्वपूर्ण बात ये भी थी कि ‘टेकपीडिया’ विज्ञान और प्रोद्योगिकी से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियों का एक बड़ा केंद्र बन गया। एक मायने में ‘टेकपीडिया’ विज्ञान-प्रौद्योगिकी से जुड़ी जानकारियों और ज्ञान का भण्डार है। और यही वजह भी थी कि देखते ही देखते ‘टेकपीडिया’ की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ने लगी। महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर के विद्यार्थी न सिर्फ अपने शोध-पत्र बल्कि अपने नए और उन्नत विचारों के अलावा अपने आविष्कारों की जानकारी भी ‘टेकपीडिया’ को देने लगे। ‘टेकपीडिया’ समाज को सकारात्मक तौर पर बदलने वाले विचारों, सूत्रों, लोगों का एक अनोखा और शानदार मंच बन गया।
देश-समाज की समस्याओं को सुलझाने में लाभकारी साबित होने वाले विचारों की जानकारियाँ बड़े पैमाने पर जुटायी जाएँ, इस मकसद से ‘यंग टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन अवॉर्ड्स’ की शुरूआत की गयी। स्कूलों और कालेजों में पढ़ाई के दौरान मिलने वाले प्रोजेक्ट में कई विद्यार्थी अक्सर ऐसी बातें/चीज़ें खोजें कर लेते हैं जो समाज में मौजूद किसी समस्या को हल कर सकती हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि इस तरह की लाभकारी खोज करने वाले विद्यार्थियों/उद्यमियों को समुचित पहचान नहीं मिल पाती है। इन्हीं युवा आविष्कारकों, उद्यमियों, प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को प्रोत्साहन देने के मकसद से इनोवेशन अवॉर्ड्स की शुरूआत की गयी। पहले ये पुरस्कार देश के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर रघुनाथ अनंत माशेलकर के हाथों दिए जाते थे, लेकिन इन पुरस्कारों की लगातार बढ़ती महत्ता और लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए इन्हें राष्ट्रपति के हाथों दिलवाया जाने लगा। हिरण्मय के मुताबिक, इनोवेशन अवॉर्ड्स विद्यार्थियों में नवोन्मेषी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए हैं और इनका मुख्य मकसद जमीनी स्तर पर शोध और अनुसंधान को प्रोत्साहित करना है। इनोवेशन अवॉर्ड्स के लिए होने वाली प्रतियोगिता में कई वर्ग हैं और यह प्रतियोगिता मुख्य रूप से इंजीनियरिंग की पढ़ाई से जुड़े विद्यार्थियों के लिए है।
‘टेकपीडिया’ की शुरूआत और उसकी कामयाबी कोई मामूली बात नहीं है। ‘टेकपीडिया’ ने देश में एक नयी क्रांति की शुरूआत की है। देश की छोटी-बड़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए अलग-अलग जगह छोटे-बड़े प्रयोग होने लगे हैं। कामयाब प्रयोग को देश-भर में मान्यता मिलने लगी है। सफल आविष्कारकों, शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, उद्यमियों और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को सम्मान मिलने लगा है। लोगों की सोच बदली है, नजरिया बदला है। देश-भर में शोध और अनुसंधान करने का तौर-तरीका बदला है।
आदिवासी इलाके में पले-बढ़े और पढ़े-लिखे एक युवक ने जिस तरह विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दुनिया को ‘टेकपीडिया’ जैसे ज्ञान का भण्डार और विचारों के आदान-प्रदान का मंच दिया, वो आज लोगों के सामने एक मिसाल बनकर खड़ा है। ‘टेकपीडिया’ की कामयाबी में हिरण्मय का योगदान ये साबित करता है कि अगर आप में कुछ नया, बड़ा और समाज के लिए अच्छा करना का ज़ज्बा है और आप दृढ़ संकल्प के साथ मेहनत करते हैं तो बाधाएं अपने आप दूर होती जाती हैं और आप कामयाब होते हैं। ‘ज़रा हटके काम करने का तरीका’ जो अपने पिता से सीखा था उसे आजमाकर हिरण्मय ने कामयाबी की नयी और बेमिसाल कहानी लिखी। ‘टेकपीडिया’ की कामयाबी ने हिरण्मय के जीवन में भी नए उत्साह का संचार किया। हिरण्मय ने नए जोश के साथ नए काम करने की ज़िम्मेदारी ली। हिरण्मय ने देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में शोध और अनुसंधान को देश की समस्याओं का हल निकालने की प्रक्रिया से सीधे जोड़ने की पहल शुरू की। इसी विचार को लेकर साल 2010 में उन्होंने करीब 200 अलग-अलग विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से संपर्क किया, लेकिन कुछ समय पहले ही कॉलेज से निकले इस युवा को ज्यादा मदद नहीं मिला। लेकिन जैसा कि कहा जाता है हीरे की चमक ज्यादा देर तक छुपी नहीं रह सकती, गुजरात टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी के नये कुलपति डॉ अक्षय अग्रवाल ने हिरण्मयके ‘आईडिया’ को समझा और उसे गंभीरता से लिया। कुलपति डॉ अक्षय अग्रवाल ने हिरण्मय को गुजरात टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में अपना ‘प्रयोग’ करने की अनुमति दे दी लेकिन एक शर्त के साथ। शर्त थी ‘टेकपीडिया’ या फिर हिरण्मय और उनकी टीम को विश्वविद्यालय की ओर से किसी तरह की कोई आर्थिक मदद नहीं दी जायेगी। लेकिन, प्रयोग करने, विश्वविद्यालय के साधन-संसाधनों का इस्तेमाल करने की आज़ादी थी।
हिरण्मय ने गुजरात टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में अपना ‘प्रयोग’ शुरू किया। अपने प्रयोग के तहत हिरण्मय ने विश्वविद्यालय के 5000 इंजीनियरिंग विद्यार्थियों से गुजरात के 6000 लघु उद्योगों की समस्याओं का अध्ययन करवाया। समस्याओं को ठीक से जानने-समझने के बाद उन्हें दूर या कम करने के संबंध में उपाय, सलाह व आयडिया पर भी चर्चा करवाई गयी। इस कवायद से 6000 में से 1900 उद्योगों को फायदा हुआ। अलग-अलग उद्योगों की अलग-अलग समस्या थी। कुछ उद्योगों की समस्या एक जैसी भी थी। लेकिन, इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों ने न केवल उद्योगों के विकास में आ रही समस्याओं का पता लगाया बल्कि उनके निदान के उपाय भी ढूंढें। इस उपायों को अमल में लाने की वजह से 1900 उद्योगों को सालाना 1 लाख से ज्यादा का फ़ायदा हुआ। सबसे महत्वपूर्ण बात ये रही कि हिरण्मयके प्रयास/प्रयोग की वजह से एक साल में अलग-अलग लघु उद्योगों को करीब 19 से 20 करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ। यानी प्रयोग कामयाब रहा। हिरण्मय ने अपने इस प्रयोग के ज़रिये विश्वविद्यालय स्तर पर शोध और अनुसंधान को महज़ एक प्रक्रिया न रखते हुए उसे लोगों/समाज/उद्योग की समस्याओं का हल निकालने के एक जरिया बना दिया। गुजरात टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में ये प्रयोग अब भी जारी है। लेकिन, हिरण्मय ने अपने इस कामयाब प्रयोग से उपजे फोर्मुले/मंत्र को देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों और अलग-अलग राज्यों के महाविद्यालयों में भी इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। कई राज्य सरकारें हिरण्मय और उनकी टीम की मदद लेते हुए अपने-अपने प्रदेशों में विद्यार्थियों के शोध और अनुसंधान के ज़रिये लोगों की समस्याएं और दिक्कतें दूर करने की कोशिशों में जुट गयी हैं।
टेकपीडिया और हिरण्मय के इस प्रयोग से विद्यार्थियों को भी काफी लाभ पहुँच रहा है। समाज में शोधार्थियों और विद्यार्थियों का सम्मान बढ़ा है और ये बात साबित हो गई कि जिन छात्रों को कई बार इंडस्ट्री में 8-10 हजार रूपये की नौकरी के काबिल भी नहीं समझा जाता है, उन्हीं छात्रों से इंडस्ट्री को करोड़ों का फायदा भी हो सकता है। अपने अनुभव के आधार पर हिरण्मय इस बात को जोर देते हुए कहते हैं कि भारतीय विद्यार्थी खासतौर पर इंजीनियरिंग के विद्यार्थी ‘यूज़लेस’ नहीं है बल्कि ‘यूस्ड लेस’ हैं। मतलब ... भारतीय इंजीनियरिंग विद्यार्थी नाकाबिल नहीं हैं बल्कि उनकी काबिलियत का सही तरह से और पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है। हॉस्टल के एक कमरे से शुरू किये गए एक काम ने जिस तरह से एक क्रांति को जन्म दिया वो क्रांति आज भारत ही नहीं बल्कि सभी विकासशील देशों के लिए एक मार्गदर्शी बनकर खड़ी। इस क्रांति के सूत्रपात में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हिरण्मय का कहना है कि ये तो अभी उनके लिए शुरूआत भर है और अभी बहुत सारा काम बाकी है।
हिरण्मय कहते हैं, “आज भी देश में लाखों का जॉब डेफिसिट है जो आने वाले समय में भी कम होता दिखाई नहीं दे रहा है। हर साल 12 लाख का डेफिसिट बढ़ रहा है। बड़े उद्योग भी एक सीमित संख्या में ही रोजगारों का सृजन कर सकते हैं। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें वे भी इस स्थिति में नहीं है कि सारे बेरोजगारों को नौकरी दे सकें। मुझे लगता है कि मौजूदा हालात में बेरोजगारी की समस्या दो दूर करने के लिए छोटे उद्योग एक बेहतर विकल्प है। मेरा मानना है कि लोगों को नौकरी करने के बजाय खुद का उद्यम शुरू करने की दिशा में भी सोचना चाहिए।” हिरण्मय इस सोच को भी बदलतना चाहते हैं कि केवल उम्र में बड़े और अनुभवी लोग ही व्यापारिक रूप से परिपक्व हो सकते हैं। हिरण्मय की एक बड़ी कोशिश ये भी है कि विद्यार्थी जीवन से ही युवाओं को उद्यमी बनने के लिए प्रेरित किया जाय। यही वजह है कि वे इंजीनियरिंग विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई के दौरान ऐसे प्रोजेक्ट लेने के लिए प्रेरित कर रहे हैं जिससे वे उद्यमी बन सकें। ये हिरण्मय की पहल का ही नतीजा है कि गुजरात टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में स्टूडेंट स्टार्ट अप पालिसी बनाई गयी। इस पालिसी के तहत विद्यार्थी जीवन में ही स्टार्ट अप शुरू करने वाले विद्यार्थियों को विशेष रियायतें और छूट दी जाती है। उदहारण देते हुए हिरण्मय ने बताया कि अगर कोई विद्यार्थी अपने कॉलेज के दिनों में किसी स्टार्ट अप की शुरूआत करता है तो उसे अपना इंजीनियरिंग कोर्स पूरा करने के कुछ सालों की मोहलत दी जाती है यानी उन्हें सालाना छुट्ठी देकर स्टार्ट अप शुरू करने को प्रोत्साहित किया जाता है। हिरण्मय ने बताया कि उनसे जुड़े कई छात्रों ने अपना स्टार्ट अप शुरू किया है और एक विधार्थी तो ऐसा है जिसकी स्टार्ट अप कंपनी ने सालाना डेढ़ करोड़ का कारोबार किया है।
हिरण्मय को इस बात की बेहद खुशी है कि वे एक बहुत बड़े सामाजिक बदलाव का हिस्सा हैं। वे कहते हैं, “प्रधानमंत्री ने तो स्टार्टअप पालिसी की बात अभी-अभी कही है, हमने तो कुछ साल पहले ही इस पालिसी को अमलीजामा पहनना शुरू कर दिया था। मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि हमारी कोशिशों की वजह से ‘स्टूडेंट स्टार्टअप मूवमेंट' आया और हमने ही ‘स्टूडेंट स्टार्टअप’ को एक परिभाषा दी।” हिरण्मय ये भी कहते हैं कि बाज़ार में युवाओं और कॉलेज के छात्रों को लेकर जो विश्वास की कमी थी उसे दूर किया जा सका है। उम्र ज्यादा मायने नहीं रखती माइंडसेट यंग होना चाहिए यानि सोच में युवाओं जैसा जज्बा होना ज़रूरी है। साथ ही उद्यमिता स्वभाव में होना चाहिए। उद्यमी से अर्थ केवल नौकरी के स्थान पर उद्योग चलाने वाले व्यक्ति से ही नहीं है, बल्कि हर वो व्यक्ति जो नया सोच सकता हो, जिसमें एक्सपैरीमेंट करने की हिम्मत हो, उसमें उद्यमिता की प्रवृति है। हिरण्मय ये कहने से बिलकुल नहीं हिचकिचाते कि हर इंसान उद्यमी नहीं बन सकता है। उद्यमी बनने के लिए एक अलग ही ज़ज्बे और जुनून का होना ज़रूरी है। वे कहते हैं, “हर इंसान एक जैसा नहीं होता। हर इंसान की अपनी खूबी होती है। हर एक की अपनी ताकत और अपनी कमजोरी होती है। मैं तो यही कहता हूँ कि जिसे जो काम अच्छा लगता है उसे वो काम करना चाहिए। मन का पसंद न आने वाला काम करने से ज्यादा फायदा नहीं होता। अगर किसी को सर्जरी करना पसंद है तो उसे सर्जन बनाना चाहिए अगर किसी को क्रिकेट खेलना पसंद है तो उसे क्रिकेटर बनना चाहिए। आप ही सोचिये अगर सचिन तेंडुलकर सर्जन बनते तो क्या होता? स्टार्टअप प्रेफरन्स नहीं है, स्टार्टअप माइंडसेट है और अगर आपकी हॉबी से माइंडसेट मेल खाता है तो काम आसान हो जाता है और तेज़ी से आगे बढ़ता है।” हर इंसान एक जैसा नहीं होता, इस बात को बलपूर्वक लोगों के सामने रखने के लिए हिरण्मय अक्सर पांडवों का उदहारण देते हैं। वे कहते हैं पांडव भाई थे लेकिन सभी की अलग-अलग खूबियाँ थीं। सभी एक दूसरे से अलग थे। युधिष्टिर शांत स्वभाव के थे और ज्ञानी भी, जबकि भीम बहुत ताकतवर थे। अर्जुन की खूबी उनकी एकाग्रता थी। नकुल बहुत ही सुन्दर थे, तो सहदेव अच्छे रथ-सारथी। एक का काम दूसरा बखूबी नहीं कर सकता था।”
नई पीढ़ी के नौजवानों को हिरण्मय सलाह देते हैं कि जीवन में क्या करना है, इसका फैसला आस-पास के लोगों को देखकर कतई न करें और अपनी रुचि व योग्यता को पहचानकर काम करें। हिरण्मय ये भी कहते है कि उद्यमी वाली सोच रखने वाले लोगों की समाज में बहुत अहमियत है। भले ही उद्यमी अपने उद्यम या नए प्रयोग में नाकामयाब हो जाएँ, उनका कोई विचार सही परिणाम न दे पाए, उनका स्टार्टअप घाटा कर जाए, लेकिन उनका उद्यमी दृष्टिकोण हमेशा सही रहेगा। इस युवा सामाजिक वैज्ञानिक के अनुसार,उद्यमियों को किसी भी नये प्रयोग में मिलने वाली असफलताओं से भी हतोत्साहित होने की ज़रुरत नहीं है। आज कई ऐसी कंपनियाँ भी बाजार में है जो अपने अहम ओहदों पर ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त कर रही हैं जो किसी स्टार्टअप के लिये प्रयास कर विफ़ल हो चुके हों। दरअसल किसी नये स्टार्टअप में हाथ आजमाने वाले के बारे में ये कहा जा सकता है कि उसने किसी नये आइडिया पर काम किया। भले ही वह अपने प्रयोग के साथ असफल रहा हो, लेकिन उसमें लीक से अलग हटकर सोचने की प्रवृति है, उसमें उद्यमिता की प्रवृति है। बड़ी कंपनियों को चलाने वाले लोग भी मानते हैं कि अगर उद्यमी की सोच रखने वाले लोग उनके यहाँ काम करें तो उन्हें फायदा पहुंचेगा। बिना किसी नयी सोच के, एक ही ढ़र्रे पर चलने वाले लोग बाज़ार में कई सारे मिल जाएंगे, लेकिन नयी सोच से बदलाव लाते हुए कंपनी को नयी दिशा में ले जाने वाले लोग बहुत ही कम मिलेंगे।
एक सवाल के जवाब में इस युवा क्रांतिकारी ने कहा, “मैं चाहता हूँ कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में कम से कम एक फीसदी विद्यार्थी उद्यमी बनें। नौकरी की चाह रखने वाले प्रतिभाशाली युवाओं में से यदि एक फीसदी युवा भी नौकरीपेशा की बजाय उद्यमी बनें तो देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव आएगा। मैं मानता हूँ कि स्टार्टअप की शुरूआत कालेज की पढ़ाई के साथ ही शुरू हो जानी चाहिए। पढ़ाई के दौरान ही यदि युवा इस ओर सोचना शुरू करें तो देश में नयी औद्योगिक क्रांति का आ सकती है और इस क्रांति के दम पर बेरोजगारी को हराकर नक्सलवाद जैसे समस्याओं को भी खत्म किया जा सकता है।”
इस बात में दो राय नहीं कि हिरण्मय की नयी सोच ने देश में कई युवाओं का नजरिया बदला है। हिरण्मय की पहल से स्टार्टअप की दुनिया में नई सोच, नये विचारों को काफ़ी बढ़ावा भी मिला है। हिरण्मय युवा हैं, उनकी सोच और नजरिया युवा है और इसी से भारत में एक नयी शैक्षणिक और सामाजिक क्रांति का आगाज़ हुआ है। उत्साह और विश्वास से भरे मन के मालिक हिरण्मय ने अपने जीवन का सबसे बड़ा सपना और लक्ष्य भी हमारे साथ साझा करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। हिरण्मय ने कहा, “मैं 10 लाख उद्यमी बनाना चाहता हूँ, ऐसे उद्यमी जो जॉब क्रिएटर्स हों। जब मैं मुझसे बेहतर बहुत सारे उद्यमी बनाने में कामयाब हो जाऊँगा तब मेरी आत्मा को बहुत खुशी मिलेगी।”
युवा उद्यमी हिरण्मय स्वामी विवेकानंद और डॉ अब्दुल कलाम के विचारों से भी बहुत प्रभावित हैं। गुजरात टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी कैंपस में हुई एक बेहद ख़ास और अंतरंग बातचीत के दौरान युवा उद्यमी हिरण्मय ने कई बार कहा कि उन्हें अब्दुल कलाम ने काफी प्रोत्साहित किया है और उन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर अपने काम को आगे बढ़ाया है। ‘टेकपीडिया’ और अपनी कामयाबी की कामयाबी को श्रेय डॉ अब्दुल कलाम और प्रोफेसर अनिल गुप्ता को देने में वे कोई कोताही नहीं बरतते हैं।