अगर पानी की बर्बादी रोकनी है तो किसानों को बदलना होगा सिंचाई का तरीका
नई सिंचाई पद्धति ने किसानों को बनाया लखपति...
भूजल स्तर गिर रहा है, खेती में पानी लागत बढ़ती जा रही है, लेकिन फव्वारा और टपक (ड्रिप) विधि से सिंचाई करने वाले किसान बता रहे हैं कि पानी की खपत 80 फीसदी तक घट जाने से अब उन्हें तीन-चार लाख रुपए तक की सालाना अतिरिक्त कमाई हो रही है।
परंपरागत खेती से 85 प्रतिशत भूगर्भ जल बर्बाद हो जा रहा है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के तकनीकी एक्सपर्ट भी बता रहे हैं कि एक क्विंटल धान पैदा करने में ढाई लाख लीटर पानी खर्च होता है। किसान टपक सिंचाई पद्धति से पानी की बर्बादी रोक सकते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से धरती का निर्माण 4.6 अरब साल पहले माना जाता है। भू-वैज्ञानिकों ने हाल ही में अपने एक ताजा रिसर्च में बताया है कि लगभग चार हजार साल पहले दुनिया में भीषण सूखा पड़ा था। तापमान में गिरावट आई थी। कई सभ्यताएं खत्म हो गईं थीं। उस भयंकर सूखे का असर दो सौ साल तक रहा। उसका कृषि-आधारित सभ्यताओं पर गंभीर प्रभाव पड़ा। जीवन में पानी का पहला रिश्ता खेती-बाड़ी से रहा है। आज भी है। धरती में जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में किसानों से एक सीधे संवाद में किसानों को खेती की लागत घटाकर उत्पादन बढ़ाने के टिप्स देते हुए कहा था कि सूक्ष्म सिंचाई पद्धति (टपक-फव्वारा विधि) से खेती की लागत घटाकर उत्पादन बढ़ाते हुए फसलों में ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं।
परंपरागत खेती से 85 प्रतिशत भूगर्भ जल बर्बाद हो जा रहा है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के तकनीकी एक्सपर्ट भी बता रहे हैं कि एक क्विंटल धान पैदा करने में ढाई लाख लीटर पानी खर्च होता है। किसान टपक सिंचाई पद्धति से पानी की बर्बादी रोक सकते हैं। पानी की कमी और सिंचाई संसाधनों की बदहाली से जूझते किसानों की कृषि लागत घटाने के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत ड्रिप और स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे पानी की तो बचत होती ही है, सिंचाई का खर्च कम होने से लाभ भी बढ़ जाता है। सिंचाई की यह विधि मुख्यतः पंजाब, हरियाणा और पश्चिम यूपी में अधिक प्रचलित है। खेत में टपक विधि का इस्तेमाल करने के लिए पौधों की दूरी निर्धारित होना आवश्यक है। ऊपर से लगे पाइप में सुराख के जरिए पानी की बूंद बराबर पौधों पर गिरती रहती है। इसके लिए खेत में एक बड़ी टंकी लगाई जाती है, जबकि फव्वारा विधि में मोटर से पानी सप्लाई के जरिए पौधों को फुहारें दी जाती हैं। टपक विधि में प्रति हेक्टेयर 1.15 लाख रुपये लागत आती है। इसमें सरकार की ओर से 90 फीसदी तक अनुदान मिलता है।
मधुबनी (बिहार) के दिलीप महाराज, शाहजहांपुर (उ.प्र.) के जसविंदर सिंह, हिमाचल के नरेंद्र शर्मा, कंकराड़ी (उत्तराखंड) के दलवीर सिंह चौहान आदि टपक सिंचाई विधि से कृषि-लागत में भारी कमी कर मुनाफा बढ़ाने के साथ ही भूजल-स्तर थामने एवं उसके संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। हिमाचल के गांव डकोली के नरेंद्र ने नौकरी को ठुकराकर खेतीबाड़ी में सिंचाई की नई तकनीक के प्रयोग से कामयाबी हासिल की है। वह अब एक साल में लगभग बारह लाख रुपए तक की सब्जी बाजार में बेचने लगे हैं। हिमाचल के ठियोग उपमंडल में हमेशा पानी की भारी कमी रहती है।
नरेंद्र और उनकी पत्नी रितिका जो अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर हैं, ने इंटरनेट की मदद से इसका हल ढूंढना शुरू कर दिया और उन्होंने खेतों में ड्रिप इरिगेशन (टपक सिंचाई) सिस्टम लगाने का फैसला किया। खेतों में पाइपों का जाल बिछा कर ड्रिप इरिगेशन से 70 प्रतिशत पानी की बचत होने लगी। बेमौसमी सब्जी उत्पादन होने लगा। अब तो वह ब्रोकली की भी खेती कर रहे हैं। मधुबनी के दिलीप महाराज टपक और फव्वारा विधि से वर्षा का पानी संचित कर सिंचाई कर रहे हैं। इससे उनकी भारी बचत हो रही है। जल संचयन को तो उन्होंने अपने जीवन का एक अदद अभियान सा बना लिया है। वह मुजफ्फरपुर शहर से सटे दोमंठा स्थित दो शेड नेट हाउस में टपक योजना के तहत शिमला मिर्च, टमाटर सहित अन्य फालसों की उन्नत खेती कर रहे हैं। वह कहते हैं कि टपक विधि से खेत की सिंचाई के लिए जरूरत के अनुसार ही बूंद-बूंद पानी मिलता है। इससे न तो फसल बर्बाद होने की चिंता रहती है, न ही भूजल का दुरुपयोग होता है। पौधों की जड़ तक जाने वाली बूंद-बूंद जल की अहमियत बढ़ती जा रही है। जल संरक्षण के लिए ही वह एक जल का तीन बार प्रयोग करते हैं।
शाहजहांपुर (उ.प्र.) के शहबाजनगर ग्राम पंचायत निवासी किसान राजविंदर सिंह को पहले रोजाना सिंचाई के लिए नलकूप चलाना पड़ता था। फिर भी पैदावार प्रभावित होती थी। पानी और पैसे की बर्बादी अलग से। तीन वर्ष पूर्व वह पारंपरिक खेती की बजाय ताइवान पद्धति आधारित खरबूजा, तरबूज, करेला, खीरा, लौकी, टमाटर आदि की खेती में सिंचाई के लिए ड्रिप इर्रीगेशन सिस्टम अपना लिया। इससे पानी की थोड़ी बहुत नहीं, बल्कि धान के सापेक्ष दो सौ गुना से ज्यादा की पानी की बचत होने लगी। अपनेआप लागत घट गई। सामान्य दशा में भी 80 फीसद पानी बचा। अब अच्छी पैदावार से आय में तीन गुना तक का इजाफा हो रहा है। उत्तरकाशी (उत्तराखंड) में कंकराड़ी गांव के दलवीर सिंह चौहान जल प्रबंधन के बूते सब्जी की खेती में साढ़े तीन लाख तक की सालाना अतिरिक्त बचत करने लगे हैं। अपनी ढलानदार 0.75 हेक्टेयर असिंचित भूमि में वह टपक और माइक्रो स्प्रिंकलर तकनीक से सब्जी उत्पादन कर रहे हैं।
पानी के इंतजाम के लिए वर्ष 2008 में एक लाख रुपये की विधायक निधि से दो किमी लंबी लाइन मुस्टिकसौड़ के एक स्रोत से उन्होंने बिछाई। वहां भी पानी कम होने के कारण घर के पास ही एक टैंक बना लिया। कृषि विज्ञान केंद्र चिन्यालीसौड़ में खेती के साथ जल प्रबंधन की तकनीक सीखी और टपक सिंचाई पद्धति से खेती करने लगे। इसके लिए सिस्टम लगाने में कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों ने मदद की। इस तरह उनको सूखी भूमि पर लाखों रुपये की आमदनी होने लगी। अब वह पॉली हाउस में टपक विधि से सिंचाई कर गोभी, पालक, राई और बेमौसमी सब्जियां उगा रहे हैं। वह बताते हैं कि कम पानी से अच्छी किसानी करने का वैज्ञानिक तरीका टपक खेती है।
इसमें पानी का 90 फीसदी उपयोग पौधों की सिंचाई में होता है। इसके तहत पानी के टैंक से एक पाइप को खेतों में जोड़ा जाता है। उस पाइप पर हर 60 सेमी की दूरी पर बारीक-बारीकछेद होते हैं। जिनसे पौधों की जड़ के पास ही पानी की बूंदें टपकती हैं। इस तकनीक को ड्रॉप सिस्टम भी कहते हैं। माइक्रो स्प्रिंकलर एक फव्वारे का तरह काम करता है। इसके लिए टपक की तुलना में टैंकों में कुछ अधिक पानी की जरूरत होती है। इस तकनीक से खेती करने में 70 फीसद पानी का उपयोग होता है। जबकि, नहरों व गूल के जरिये सिंचाई करने में 75 फीसद पानी बरबाद हो जाता है। इस समय वह ब्रोकली, टमाटर, आलू, छप्पन कद्दू, शिमला मिर्च, पत्ता गोभी, बैंगन, फ्रासबीन, फूल गोभी, राई, पालक, खीरा, ककड़ी के अलावा आडू़, अखरोट, खुबानी, कागजी नींबू आदि की खेती कर रहे हैं।
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