जान हथेली पर लेकर पत्रकारिता करती हैं गांव की ये महिलाएं
वर्ष 2008 में बुंदेलखंड के एक छोटे-से गांव से वहां की जागरूक महिलाओं ने खबर लहरिया नामक टैब्लॉयड साइज का अखबार निकाला। उसे वर्ष 2009 में यूनेस्को से 'किंग सेन्जोंग' अवॉर्ड मिला।
ग्रामीण परिवेश तथा ग्रामीण जन के प्रति भारतीय जनमानस में गहरी संवेदनाएं हैं। प्रेमचंद, रेणु, शरतचंद्र, नागाजरुन जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने ग्रामीण परिवेश पर काफी कुछ लिखा है, परंतु ग्रामीण पत्रकारिता की दयनीय स्थिति काफी कचोटती है।
ये महिला पत्रकार हर मुश्किल का सामना कर दूर दराज के क्षेत्रों में जाती हैं, जहाँ बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाता नहीं पहुँच पाते। उनके खबर लिखने का अंदाज भी काफी अलग होता है।
नलिनी सिंह, गौरी लंकेश, बरखा दत्त, अंजना ओम कश्यप, मृणाल पांडेय, अमिता चौधरी, निधि राजदान, श्वेता सिंह, तवलीन सिंह, राना अयूब, नेहा दीक्षित, मेहर तरार, ऐसी चाहे जितनी महिला पत्रकारों के नाम ले लीजिए, और उनके जीवन की चुनौतियों को सामने रखते हुए उनकी पत्रकारिता को सुविधाहीन महिला पत्रकारों की स्थितियों से तुलना करते हुए पढ़िए तो खबरों की दुनिया साफ-साफ दो हिस्सों में बटी नजर आती है।
हमने जिन महिला पत्रकारों का अभी नाम लिया है, उनमें शायद कोई भी ऐसी नहीं हैं, जिनके सामने जीवन के जरूरी संसाधनों का अभाव और उच्च शिक्षा प्राप्त करने की राह में कोई अड़चन रही हो। और उनकी पत्रकारिता जिस तरह की रही है, अथवा है, वह समाज के एक खास वर्ग को रास आती है, रिझाती है लेकिन ग्रामीण प्रधान हमारे देश में गांव की पत्रकारिता में इन बड़े नामों का कितना हस्तक्षेप रहा है, उन्होंने क्या कुछ ऐसा किया है, जिसे याद किया जाए, शायद ऐसा कुछ भी नहीं।
तब महिला पत्रकारिता शून्य से शुरू होकर शून्य पर टंग जाती है। लेकिन नहीं, तहों में जाकर खंगालें तो कहीं न कहीं ऐसी महिला पत्रकार जरूर मिल जाएगीं, जो सतह की पत्रकारिता करती हैं, वह पत्रकारिता, जिसका सीधा सरोकार हमारे गांवों के देश से है। वैचारिक स्तर पर, बौद्धिक कुशलता के मानदंडों पर, ऐसी महिला पत्रकार भले कोई तीर-तोप चलाने में माहिर न मानी जाए, अपनी जीवन स्थितियों से जिस तरह जूझते हुए भी खाटी खबरों की दुनिया को वह आबाद करती है, उसका कद अपने आप सबसे ऊंचा हो जाता है।
कस्बे की महिला पत्रकार जीवन भर शापित होती है, फिर भी प्रजातन्त्र के लिए लड़ती रहती है, और हो जाती है एक बीमार, उदास, अप्रकाशित-अलिखित समाचार। बेचारी छोटे कस्बे की बड़ी महिला पत्रकार करे तो क्या करे। वह तो किसानों की समस्याओं, कुपोषण, आदिवासी क्षेत्रों तथा जनकल्याणकारी योजनाओं की आवाज बनने में जुटी रहती है। वास्तविक चित्रण करती है। सामाजिक चेतना, गंभीर आर्थिक विषमता, जनसामान्य के प्रति संवदेना जागृत करने के लिए ऑडियो, विडियो, मूवीज, कार्टून फिल्म, फोटो, नाटक के माध्यम से देश के मेहनतकशों की मुश्किलों का साथी बनी रहती है।
ग्रामीण भारत के लिए वैकल्पिक मीडिया के धरातल पर बुंदेलखंड के सिरे से एक और अध्याय खोलते हैं मीडिया चिंतक किंशुक पाठक। वह बताते हैं कि 'ग्रामीण परिवेश तथा ग्रामीण जन के प्रति भारतीय जनमानस में गहरी संवेदनाएं हैं। प्रेमचंद, रेणु, शरतचंद्र, नागाजरुन जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने ग्रामीण परिवेश पर काफी कुछ लिखा है, परंतु ग्रामीण पत्रकारिता की दयनीय स्थिति काफी कचोटती है। गांवों के लोगों को जब लगता है कि उनकी बातों को भी मंच मिलना चाहिए, तो वे खुद छोटे स्वरूप के अखबार निकालने के प्रयास करते हैं।'
वर्ष 2008 में बुंदेलखंड के एक छोटे-से गांव से वहां की जागरूक महिलाओं ने खबर लहरिया नामक टैब्लॉयड साइज का अखबार निकाला। उसे वर्ष 2009 में यूनेस्को से 'किंग सेन्जोंग' अवॉर्ड मिला। बुंदेलखंड से शुरू हुआ यह समाचार-पत्र वर्ष 2011 से बिहार के सीतामढ़ी और शिवहर जिलों से स्थानीय अंगिका भाषा में न सिर्फ प्रकाशित होना शुरू हुआ, बल्कि यह 70,000 से ज्यादा पाठकों की पसंद भी बन गया। ग्रामीण पत्रकारिता का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कई दशख पहले झारखंड के दुमका के गौरीशंकर रजक ने अपनी बात अनसुनी रह जाने के बाद पन्नों पर अपनी पीड़ा व्यक्त कर उन्हें जगह-जगह बांटना शुरू किया और धीरे-धीरे लोगों ने उनकी बातों पर ध्यान देना शुरू कर दिया।
बुंदेलखंड की व्यथा-कथा जानने और उसके गांवों को राह दिखाने में वैकल्पिक मीडिया से ही अब कुछ उम्मीदें रह गयी हैं। वहां के आकड़े दिल दहला कर रख देते हैं। भव्य भारत से भरोसा उठ जाता है। जब ऐसी खबरों पर मुख्यधारा का मीडिया पर्दा डालने लगता है, तब, भारत के अन्य ग्रामीण इलाकों की तरह यहां भी उम्मीद वैकल्पिक मीडिया से ही रह जाती है। खबर लहरिया जैसे अखबारों से, जिसके ग्रामीण मीडिया नेटवर्क में उत्तर प्रदेश के दर्जनभर जिलों में रिपोर्टर सिर्फ महिलाएं हैं। उनकी चुनौतियां भी बड़ी अजीब किस्म की होती हैं। इन महिला पत्रकारों को अनजान नंबरों से लगातार अश्लील संदेश और धमकियां मिलती रहती हैं। चालीस से अधिक महिलाओं द्वारा चलाया जानेवाला ये अख़बार उत्तर प्रदेश और बिहार से स्थानीय भाषाओं में छपता है। ख़बर लहरिया को संयुक्त राष्ट्र के 'लिट्रेसी प्राइज़' समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
खबर लहरिया की पत्रकार कविता चित्रकूट के कुंजनपुर्वा गाँव के एक मध्यमवर्गीय दलित परिवार से आती हैं। बचपन में उनकी पढ़ाई नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो जिंदगी में कभी पत्रकार बनेंगी। वर्ष 2002 में उन्होंने 'खबर लहरिया' में पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। वह कहती हैं कि इस अखबार ने मेरी जिंदगी बदल दी है। मेरे पिताजी ने बचपन से मुझे पढ़ाया नहीं और कहा कि तुम पढ़कर क्या करोगी, तुम्हे कलेक्टर नहीं बनना है। मैने छुप-छुप कर पढ़ाई की। पहले था कि मैं किसी की बेटी हूँ या फिर किसी की पत्नी हूँ। आज मेरी खुद की पहचान है और लोग मुझे संपादक के तौर पर जानते हैं।
चित्रकूट और बाँदा डकैतों के दबदबे वाले क्षेत्र हैं और कविता कहती हैं कि ऐसे इलाकों में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं के लिए एक पुरुष प्रधान व्यवसाय में काम करना आसान नहीं है। वह कहती हैं कि हम पर लोगों का काफी दबाव था कि महिलाएँ होकर हमारे खिलाफ छापती हैं। ज्यादातर लोग जो उच्च जाति के लोग थे, वो कहते थे कि आपके अखबार को बंद करवा देंगे। बड़े अखबारों ने हमारे खिलाफ कुछ नहीं निकाला तो फिर आपकी हिम्मत कैसे हुई। शायद इन्हीं दबावों का नतीजा है कि अखबार में बायलाइन नहीं दी जाती। इससे ये पता नहीं चलता कि किस खबर को किसने लिखा है।
परेशानियों के बावजूद ये महिलाएँ डटकर खबरें लिखती हैं- चाहे वो दलितों के साथ दुर्व्यवहार का मामला हो, खराब मूलभूत सुविधाएँ हों, नरेगा की जाँच पड़ताल हो, पंचायतों के काम करने के तरीके पर टिप्पणी हो, या फिर सूखे की मार से परेशान किसानों और आम आदमी की समस्या हो। ये महिला पत्रकार हर मुश्किल का सामना कर दूर दराज के क्षेत्रों में जाती हैं, जहाँ बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाता नहीं पहुँच पाते। उनके खबर लिखने का अंदाज भी काफी अलग होता है। साथ ही इनका कहना है कि वो अपने अखबार में नकारात्मक खबर ही नहीं, सकारात्मक खबरें भी छापती हैं। गैर सरकारी संगठन निरंतर की शालिनी जोशी, जो अखबार की प्रकाशक भी हैं, कहती हैं कि जिस तरह ये महिलाएँ खबरें लाती हैं वो कई लोगों को अचंभे में डाल देती हैं।
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