कम उम्र में विवाह और घरेलू हिंसा की शिकार होने से लेकर 26 पंचायतों की पंचायत सचिव तक का सफर करने वाली मोरम बाई
वाईएस टीम हिंदी
लेखकः सौरव राॅय
अनुवादः निशांत गोयल
मोरम बाई तंवर आगे पढ़ना चाहती थीं लेकिन पारिवारिक स्थितियों के चलते वे ऐसा करने में नाकामयाब रहीं। वे एक बहुत ही गरीब परिवार से आती हैं। उनके पिता एक बेहद ही गरीब किसान हैं और उनके परिवार में उनके अलावा आठ अन्य भाई-बहन भी थे जिनका पालन-पोषण उनके पिता के लिये एक बड़ी चुनौती था। जब उन्हें आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद स्कूल छोड़ने का फरमान सुनाया गया तो उनका दिल बहुत भारी हो गया और इनके तुरंत बाद ही उनके परिवार ने उनका विवाह करने का निर्णय सुना दिया।
उनके विवाह के समय उनके पिता को वर पक्ष को देने के लिये दहेज की व्यवस्था करनी पड़ी और इसके बावजूद वे घरेलू हिंसा की शिकार बनीं। आखिरकार एक दिन ऐसा आया जब उन्हें उनके पति के घर से बाहर निकाल दिया गया। उस समय उन्हें भीतर से बहुत दर्द तो हुआ लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
इसके बाद उन्होंने स्वयं को शिक्षित करने का फैसला किया। उन्होंने खुद को कंप्यूटर में प्रशिक्षित करते हुए मैट्रिक की परीक्षा पास की और एक शिक्षक के रूप में काम करने लगीं। उनके जीवन का लक्ष्य अब सिर्फ यह सुनिश्चित करना था कि कोई अन्य महिला उनकी तरह की परिस्थितियों से दो-चार न हो और वे छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में रहने वाली अधिक से अधिक महिलाएं आत्मनिर्भर बनते हुए अपने पैरों पर खड़े होने में कामयाब रहें।
अपनी शर्तो पर जीवन जीने की धुन के चलते आज वे राजस्थान के झालावाड़ जिले के मनोहर थाना क्षेत्र की पंचायत सचिव हैं और वे क्षेत्र की 26 पंचायत समितियों की अध्यक्ष हैं। यह सिर्फ उन्ही की वजह से है कि अगर स्वच्छता और महिलाओं की शिक्षा के बारे में बात करें तो उनका क्षेत्र दूसरों के मुकाबले काफी आगे चल रहा है। उन्हें लगातार मिल रहे सम्मान और प्रतिष्ठा के बावजूद उनका जीवन आज भी सादा जीवन उच्च विचार का एक जीता-जागता उदाहरण है और दूसरों के लिये एक प्रेरणा का स्त्रोत है।
मोरन अपने परिवार में 9 भाई-बहनों में सबसे बड़ी हैं। उनके पिता एक किसान थे। हालांकि उन्हें बहुत कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़कर विवाह के बंधन में बंधना पड़ा लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने सपनों को मरने नहीं दिया। वे लगातार सीखते रहने के लिये कृतसंकल्प थीं और इसी क्रम में उन्होंने समाज के उपेक्षित और वंचित वर्ग को पढ़ाने के लिये पूरी तरह से समर्पित एक एनजीओ ‘लिटरेसी इंडिया’ में शामिल होने का फैसला किया।
उन्हें रोजाना पढ़ने के लिये अपने गांव से 16 किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता। उन्होंने सिलाई का काम सीखा और बहुत कम समय में वे उसमें पारंगत हो गईं। इसके बाद उन्होंने अपने कदम आगे बढ़ाते हुए कंप्यूटर सीखना प्रारंभ किया। सीखने के प्रति उनकी लगन को देखते हुए जल्द ही एनजीओ ने उन्हें अपने साथ एक शिक्षक के रूप में जुड़ने का मौका दिया। उन्होंने अपने गांव की उन महिलाओं को जीवन कौशल के क्षेत्र में सीख देनी प्रारंभ की जो आत्मनिर्भर होना चाहती थीं।
मोरम अपनी ग्राम पंचायत समिति में एक कंप्यूटर आॅपरेटर के रूप में काम करना चाहती थीं। जब उन्होंने इस बारे में पता किया तो उन्हें मालूम हुआ कि उन्हें कंप्यूटर शिक्षा का एक प्रमाणित पाठ्यक्रम पूरा करने के अलावा दसवीं की परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी होगी तभी वे इस नौकरी के लायक मानी जाएंगी। इस नौकरी को पाने के लिये बेहद बेताब मोरम ने मुक्त विद्यालय के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करनी प्रारंभ की और मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने खुद को उस नौकरी के लायक बनाया और जल्द ही वे इस नौकरी को पाने में सफल रहीं।
हालांकि उनकी किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी और कुछ समय बाद ही उन्हें पारिवारिक समस्याओं के चलते इस नौकरी को अलविदा कहना पड़ा। हालांकि इसके बावजूद उन्होंने महिलाओं को प्रशिक्षण देना बंद नहीं किया और एक शिक्षक के रूप में काम करती रहीं।
जल्द ही उन्हें समाचार पत्रों के माध्यम से जानकारी मिली उनके जिले में पंचायत चुनाव का आयोजन होने वाला है और इच्छुक आवेदकों से नामांकन की मांग की जा रही थी। हालांकि उनका राजनीति में शामिल होने का मन नहीं था लेकिन उन्होंने इसे अपने काम को विस्तार देने के एक मौके के रूप में देखा। वे इस इलाके में हाशिये पर रहने वाले लोगों और महिलाओं के उत्थान के लिये अपनी तरफ से अधिक से अधिक प्रयास करना चाहती थीं।
वे इस इलाके में पहले से ही महिलाओं के अधिकारों के लिये लड़ने वाली अलम्बरदार और एक शिक्षक के रूप में काफी लोकप्रिय थीं। एक बार नामांकन दाखिल करने के बाद उन्हें स्थानीय जनता से अपार समर्थन मिला और वे इस चुनाव को 10 हजार से भी अधिक वोटों से जीतने में सफल रहीं। इसके अलावा वे मुख्य समिति के लिये होने वाला चुनाव भी जीतने में सफल रहीं और अपने जिले की पंचायत समिति की सचिव बनीं।
आज भी मोरम महिलाओं को अपने पांव पर खड़ा होने और सिलाई-कढ़ाई और कंप्यूटर की शिक्षा देने के काम में लगी हुई हैं। उनका कहना है कि उन्होंने चुनाव सिर्फ उन पदों तक पहुंचने के लिये नहीं लड़ा था जहां वे आज हैं लेकिन वे इन कामों को और अधिक बेहतरी से करना चाहती थीं। उनका सिर्फ एक ही उद्देश्य है और वह है कि गरीबों और वंचितों के कल्याण के लिये सरकार द्वारा पेश की जा रही तमाम योजनाएं ठीक तरीके से लागू हो सकें।
मोरम स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्रत्येक घर में कम से कम एक शौचालय का निर्माण सुनिश्चित करने में लिये कड़ी मेहनत कर रही हैं। अपने तहत आने वाली 26 पंचायतों में से दो गांव तो अबतक प्रत्येक घर में शौचालय के निर्माण का लक्ष्य सफलतापूर्वक हासिल कर चुके हैं जबकि बाकी पंचायतो में यह काम जोरशोर से चल रहा है। इसके अलावा उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और कल्याण पर केंद्रित कई अन्य परियोजनाओं की भी नींव रखी है।
मोरम यह सुनिश्चित करने के प्रयास में लगी हुई हैं कि उनके क्षेत्र में आने वाली प्रत्येक आंगनवाड़ी बच्चों की भूख और कुपोषण से लड़ने के लिये अच्छी तरह से सुसज्जित हो। मोरम कहती हैं कि सरकारी स्तर पर गरीबों के लिये राशन कार्ड, पेंशन, छात्रवृत्ति, रोजगार की गारंटी, बेरोजगारी भत्ता, सहित कई अन्य बेहतरीन योजनाएं लागू तो की जाती हैं लेकिन इनमें से अधिकतर जमीनी स्तर तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। वे यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं कि नौकरशाही में पारदर्शिता लाई जा सके और इसी के साथ नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करने का भी कोई मौका वे नहीं चूकती हैं।
मोरम महिलाओं को आधार कार्ड बनवाने में सहायता करने की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाने के अलावा उनके लिये बीमा सुनिश्चित करने, उन्हें नरेगा के तहत काम दिलवाने सहित अन्य कल्याणकारी योजनाओं से रूबरू करवाने के प्रयास करती हैं। उन्होंने कम उम्र की एक दुल्हन और घरेलू हिंसा की एक शिकार होने से लेकर 26 पंचायतों की पंचायत सचिव तक का सफर बेहद सादगी से पार किया है। आज भी वे एक बेहद ही सादा जीवन जीती हैं और महिलाओं को शिक्षित करने के साथ-साथ उन्हें आत्मनिर्भर बनने में भी मदद करती हैं।