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बजट 2018-19: छात्रों का कितना मान रखेगी सरकार!

जिस रफ्तार से भारत में आर्थिक प्रगति हो रही है, उस अनुपात में शि‍क्षा के मामले में देश अपेक्षि‍त तरक्की नहीं कर पाया है। देश में 61 लाख ऐसे बच्चे हैं, जो शिक्षा से वंचित हैं...

बजट 2018-19: छात्रों का कितना मान रखेगी सरकार!

Tuesday January 23, 2018 , 13 min Read

देश की शिक्षा व्यवस्था का जो हाल है, सो है ही, सुविधाहीन छात्रों के भविष्य के लिए 'बजट 2018-19' में वित्तमंत्री अरुण जेटली क्या नई व्यवस्था देने जा रहे हैं, उस ओर छात्रों और उनके अभिभावकों की निगाहें लगी हुई हैं। यह आम बजट 01 फरवरी को आ रहा है। बजट-2018 में शिक्षा क्षेत्र के लिए आवंटन बढ़ाने की मांग की जा रही है। कभी पीटर ड्रकर ने कहा था कि भविष्य में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक हो जाएगा। दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है।

सांकेतिक तस्वीर

सांकेतिक तस्वीर


भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है। भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं। 

रोजगार बिना कैसा शिक्षा सुधार! सरकार एक तरफ कई बजट सत्रों में आइआइटी, आइआइएम के अलावा दूसरे शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ाने का राग अलापती रहती है, दूसरी ओर योग्य शिक्षकों की नियुक्ति के लिए भर्ती प्रक्रिया, वेतनमान आदि पर धन खर्च करने से परहेज करती है। जिस रफ्तार से भारत में आर्थिक प्रगति हो रही है, उस अनुपात में शि‍क्षा के मामले में देश अपेक्षि‍त तरक्की नहीं कर पाया है। देश में 61 लाख ऐसे बच्चे हैं, जो शिक्षा से वंचित हैं।

खासतौर पर बालिका शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है। संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। एक सर्वे के मुताबिक उच्च शिक्षा की तस्वीर ये है कि स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है। भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है। इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा।

नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के एक अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है, इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है। आईआईटी मुंबई जैसे शिक्षण संस्थान भी वैश्विक स्तर पर जगह नहीं बना पा रहे हैं।

भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है। भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं। आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। पिछले लगभग डेढ़ दशक में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई। अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है। अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है।

सैम पित्रोदा का कहना है कि आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है। इंफ़ोसिस प्रमुख नारायण मूर्ति कहते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है। इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है। दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में होते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़ 3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं। इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है। इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है। अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं। योजना आयोग के सदस्य और पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व उप कुलपति नरेंद्र जाधव इस बात से हैरान हैं कि कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। उनका कहना है कि पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिए काफ़ी हैं। जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल ने कहा था कि शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए। ये न हो कि पहले शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने वाला संस्था का कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को उसका उप कुलपति बनाए।

अर्थशास्त्री कौशिक बसु का अभिमत है कि आम धारणा के मुताबिक अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है। ये एक ग़लत तर्क है। यह तो उसी तरह सोचने की तरह हुआ कि अगर टाटा मोटर्स को लाभ कमाना है तो इसे छोटी कार बनाने में रुचि नहीं रखनी चाहिए। हालांकि वास्तविकता यह है कि अगर उसे लाभ कमाना है तो उसे छोटी कार ही बनानी चाहिए। इसी तरह शिक्षा में अगर कोई लाभ कमाने वाली कंपनी विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है तो हमें उसके आड़े नहीं आना चाहिए। हर साल भारतीय स्कूल से पास होने वाले छात्रों में महज 15 फ़ीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएं, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरे भारत में 1500 नए विश्वविद्यालय खोले जाने की ज़रूरत पड़ेगी। इस सबके लिए धन सिर्फ़ निजी क्षेत्र से ही आ सकता है। हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि किसी भी सरकार, खास कर विकासशील देश की सरकार के लिए ये संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालयों को ही ढंग से चला पाए। यह तभी संभव है, जब वित्तीय मापदंडों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए। विशेषज्ञों की राय है कि 'रन ऑफ़ द मिल' यानी बने बनाए ढर्रे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही अच्छा है। आजकल का सबसे प्रचलित जुमला है नौकरी से जुड़े हुए कोर्स।

फ़ैसला लेने वालों के बीच ‘वोकेशनल’ शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा का वो रुतबा अब नहीं रहा क्योंकि इसके साथ ये बट्टा लगा हुआ है कि ये पढ़ाई में पीछे रहने वालों की ही पसंद है। अब समय आ गया है कि इस धारणा को बदला जाए कि विश्वविद्यालय शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को भद्र बनाना है। भारत सरकार ने भी इसे शिक्षा मंत्रालय कहना बंद कर मानव संसाधन मंत्रालय कहना शुरू कर दिया है। ब्रिटेन में भी अब इसे शिक्षा और कौशल मंत्रालय कहा जाने लगा है। ऑस्ट्रेलिया में इसे शिक्षा, रोज़गार और कार्यस्थल संबंध मंत्रालय कहा जाता है।

अब उस जाति व्यवस्था से भी छुटकारा पाने की ज़रूरत है जिसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया है, जहाँ अगर एक इंसान व्यावसायिक शिक्षा लेने के लिए ट्रेन से उतरता है तो उसे बाद में उच्च शिक्षा के डिब्बे में सवार होने की अनुमति नहीं होती। 21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो। स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है लेकिन पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजुकेशन (प्रोब) के सदस्य एके शिव कुमार कहते हैं कि असली समस्या गुणवत्ता की है। ये एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती। अब समय आ गया है कि चाक और ब्लैक बोर्ड के ज़माने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए।

हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था पर एक यूनिसेफ की एक वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं। आर्थिक विकास के अपने मॉडल के लिए सुर्खियाँ बटोरने वाला गुजरात इस मामले में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। इस रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में 15 से 17 साल की 26.6 प्रतिशत लड़कियां किसी न किसी कारण से स्कूल छोड़ देती हैं। छतीसगढ़ में 15 से 17 साल की 90.1 प्रतिशत लड़कियां स्कूल जा रही हैं, जबकि असम में यह आकड़ा 84.8 प्रतिशत है।

बिहार भी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा पीछे नहीं है, यहां यह आंकडा 83.3 प्रतिशत है तो झारखंड में 84.1 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 79.2 प्रतिशत, यूपी में 79.4 प्रतिशत और उड़ीसा में 75.3 प्रतिशत लड़कियां हाई स्कूल के पहले ही स्कूल छोड़ दे रही हैं। इस समय देश के 61 लाख बच्चे शि‍क्षा की पहुंच से दूर हैं। इस मामले में सबसे खराब स्थिति उत्तर प्रदेश की है, जहां 16 लाख बच्चों तक शिक्षा की रोशनी नहीं पहुंचायी जा सकी है। रिपोर्ट के अनुसार स्कूल जाने वाले बच्चों में भी 59 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो ठीक से पढ़ नहीं पाते हैं। मानव विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे देश में 5वीं तक आते-आते करीब 23 लाख छात्र-छात्राएं स्कूल छोड़ देते हैं।

लगभग एक तिहाई सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालयों की सुविधा नहीं है, जिस कारण से लड़कियां बड़ी संख्या में स्कूल छोड़ रही हैं। यद्यपि सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। शिक्षा के अधिकार का कानून लागू करने के बाद प्राथमिक शिक्षा के लिए होने वाले नामांकनों में भी वृद्धि दर्ज होती जा रही है। इसके अलावा स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या में भी लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष 2009 में 6 से 13 वर्ष की उम्र के स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 80 लाख थी जबकि पांच साल बाद यानी 2014 में यह संख्या घट कर 60 लाख रह गई थी। हकीकत ये भी है कि सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की कमी के चलते लोग प्राइवेट स्कूलों की तरफ रुख करने लगे हैं। शिक्षकों की कमी झेलते हजारों स्कूलों के पास शौचालय तो क्या क्लास रूम तक नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक देश में अभी भी करीब 1,800 स्कूल किसी पेड़ के नीचे या टेंट में लग रहे हैं।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जीएसटी के बाद मोदी सरकार का यह पहला आम बजट है और 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले यह आम बजट मोदी सरकार का आखिरी बजट। इस लिहाज से आम बजट 2018 कई मायनों में अहम है। हर साल आम बजट में शिक्षा के क्षेत्र और छात्रों के लिए कई योजनाएं और परियोजनाएं घोषित की जाती हैं, लेकिन बहुत ही कम परियोजनाएं पूरी हो पाती हैं। इस वक्त शिक्षा के क्षेत्र को विस्तार देने की जरूरत है और एक अच्छी खासी राशि इस क्षेत्र के लिए आवंटित की जानी चाहिए, लेकिन उससे पहले मोदी सरकार को चाहिए कि वो छात्रों और शिक्षा की मूलभूत जरूरतों को पूरा करे और जो भी मुश्किलें सामने आ रही हैं, उन्हें दूर करे। सरकार को चाहिए कि प्राइवेट संस्थानों सहित सभी स्कूलों में डोनेशन और रिजर्वेशन खत्म करने के लिए कठोर कदम उठाए ताकि हर छात्र को एक समान स्तर की शिक्षा मिले।

मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का कानून तो बना दिया गया और भारतीय संविधान में भी यह हमारे अधिकार के तौर पर शामिल है, लेकिन इसे सही तरीके से लागू करने की जरूरत है। इससे पहले भी जरूरी है कि नौकरी के ज्यादा से ज्यादा अवसर पैदा किए जाएं क्योंकि आज भी बहुत से ऐसे छात्र हैं जो हाथों में डिग्रियां लिए घूम रहे हैं, लेकिन उनके लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर नहीं हैं और अगर हैं भी तो आरक्षण के चलते वो छात्र उन अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते। ऐसे में जरूरत है कि सरकार बेरोजगार छात्रों के लिए रोजगार दे और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ ऐसा विस्तार करे कि हर वर्ग के बच्चे को शिक्षा मिले। शिक्षा के लिए सरकार ज्यादा से ज्यादा फंड दे ताकि और मेडिकल कॉलेज, आईआईटी, एम्स, तकनीकी संस्थान, बेसिक शिक्षा और प्रोफेशनल संस्थान तैयार किए जा सकें और इन सभी की आधारभूत संरचना यानि बुनियादी ढांचा, सुविधाएं और कंस्ट्रक्शन टैक्स के दायरे से बाहर हों। सरकार शिक्षा के क्षेत्र और छात्रों के लिए जो भी परियोजनाएं घोषित करे, उन्हें लागू भी करे और निगरानी रखे कि वो सही ढंग से चल रही हैं। इनकम टैक्स के मौजूदा नियमों के मुताबिक बच्चों की स्कूली शिक्षा पर किए गए खर्च पर करदाताओं को टैक्स में राहत का प्रावधान है।

हालांकि टैक्स में राहत का यह प्रावधान इनकम टैक्स कानून के सेक्शन 80सी और 80ई के तहत दिया जाता है जहां बच्चों की वार्षिक ट्यूशन फीस को 1.50 लाख रुपये की टैक्स छूट की रकम में जोड़ा जा सकता है। शिक्षा के नाम पर दी जा रही इस राहत के दायरे में महज फुल टाइम कोर्स आते है जहां फीस किसी मान्यता प्राप्त युनीवर्सिटी, कॉलेज, स्कूल या किसी अन्य शिक्षण संस्थान को दी गई है। इसके अलावा प्री नर्सरी, प्ले स्कूल और नर्सरी स्कूल के लिए दी गई फीस पर भी टैक्स में रियायत ली जा सकती है।

बजट-2018 में शिक्षा क्षेत्र के लिए आवंटन बढ़ाने की मांग की जा रही है। सरकार एजुकेशन सेस के जरिये काफी पैसा ले रही है लेकिन एक बड़ा सवाल है कि उस पैसे का इस्तेमाल कितने प्रभावी तरीके से किया जा रहा है। एजुकेशन लोन पर ब्याज दर कम होनी चाहिए ताकि सभी वर्गों के लोगों को शिक्षा मिल सके। कॉलेजों की फीस भी बड़ा मुद्दा है, प्राइवेट कॉलेजों में काफी ज्यादा फीस है जिसे काबू में करने की जरूरत है। कारोबारी और उद्योग संगठन एसोचैम ने आगामी बजट में शिक्षा क्षेत्र के लिए आवंटन बढ़ाने की मांग की है। साथ ही उच्च शिक्षा को जीएसटी से मुक्त करने की भी वकालत की है।

वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखे पत्र में चैंबर ने दलील दी है कि बाहरी नियमनों और कैंपस में आंदोलन के जोखिमों के मद्देनजर शिक्षा संस्थान न तो नए टैक्स का बोझ खुद उठा सकते हैं और न ही फीस बढ़ाकर छात्र-छात्राओं पर इसका बोझ डाल सकते हैं। जीएसटी लागू होने के बाद यह पहला बजट है। अब समय आ गया है जबकि खामियों को सुधारा जा सकता है। इससे पहले, शिक्षा क्षेत्र के लिए सेवा टैक्स में लगातार संशोधनों से ऐसी स्थिति बनी है। उद्योग मंडल ने शैक्षणिक संस्थानों के भवन निर्माण, रखरखाव या मरम्मत पर टैक्स छूट की मांग की है।

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