बॉलीवुड को सिर्फ नाच-गाने के दलदल से निकाल कर प्रतिष्ठित बनाने वाले ये युवा डायरेक्टर्स
बॉलीवुड की अब एक उम्र हो चली है। भारतीय सिनेमा के केंद्र में दशकों से प्रदर्शन, गाना और डांस ही सबसे ऊपर रहा। लोग अब तक यही सोचते थे कि आपको एक बॉलीवुड एक्टर बनने के लिए नचाना और गाना आना चाहिए। शुरूआत में ऐसा ही था। 50वे दशक ने हमें कुछ बेहतरीन फिल्म निर्माता और महान फिल्में दी लेकिन कुछेक साल में ये फूहड़ हो गया है।
लेकिन हाल के 10 सालों में चीजें बदल गईं। नई पीढ़ी के फिल्म निर्माताओं ने अपनी अलग पहचान बनाई। नई नई कहानियों जो अब से पहले कभी नहीं सुनी गईं।
नए फिल्म निर्माताओं ने इस पर काम शुरू किया। और भारतीय फिल्मों में भारतीय तड़का बरकरार रखते हुए उसे अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई। इस दौरान मुख्य धारा की फिल्मों ज्यादा परिपक्व हो गईं जिससे आज हम बॉलीवुड की सफलता को लेकर गर्व महसूस कर सकते हैं।
बॉलीवुड की अब एक उम्र हो चली है। भारतीय सिनेमा के केंद्र में दशकों से प्रदर्शन, गाना और डांस ही सबसे ऊपर रहा। लोग अब तक यही सोचते थे कि आपको एक बॉलीवुड एक्टर बनने के लिए नचाना और गाना आना चाहिए। शुरूआत में ऐसा ही था। 50वे दशक ने हमें कुछ बेहतरीन फिल्म निर्माता और महान फिल्में दी लेकिन कुछेक साल में ये फूहड़ हो गया है। इसलिए जब हॉलीवुड का प्रभाव और उसकी संपत्ति बढ़ी तो भारतीय क्षेत्रीय सिनेमा ने बॉलीवुड में फिल्मों के स्तर को काफी पीछे छोड़ दिया। लेकिन हाल के 10 सालों में चीजें बदल गईं। नई पीढ़ी के फिल्म निर्माताओं ने अपनी अलग पहचान बनाई। नई नई कहानियों जो अब से पहले कभी नहीं सुनी गईं। नए फिल्म निर्माताओं ने इस पर काम शुरू किया। और भारतीय फिल्मों में भारतीय तड़का बरकरार रखते हुए उसे अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई। इस दौरान मुख्य धारा की फिल्मों ज्यादा परिपक्व हो गईं जिससे आज हम बॉलीवुड की सफलता को लेकर गर्व महसूस कर सकते हैं। और हमें उम्मीद है कि आने वाल सालों में भी बॉलीवुड में बहुत कुछ होगा।
और ये निर्देशक हैं उस उम्मीद के मशालधावक,
अभिषेक चौबे
बॉलीवुड में आर्ट और कॉमर्शियल फिल्मों को हमेशा अलग अलग देखा गया है। लेकिन अभिषेक चौबे की फिल्म में दोनों का जबरदस्त तालमेल देखने को मिला। पहले इश्किया, फिर डेढ़ इश्किया ने हिंदी गानों पर अपने बेहद खुशमिजाज और सोचने पर मजबूर करने वाले विचारों के साथ इसने आर्ट और कॉमर्शियल फिल्मों के बीच की रेखाएं धुंधली कर दी। समलैंगिकता और व्याभिचार जैसे वर्जनाओं पर इन फिल्मों ने चुपचाप छूकर, कुछ यादगार महिला पात्रों को ढूंढ निकाला और चौबे ने खुद को एक अच्छा निर्देशक साबित कर दिया है।
दिवाकर बनर्जी
दिवाकर बनर्जी के शिल्प कला को लोगों ने 2010 में पहचाना। जब उनकी फिल्म 'लव, सेक्स और धोखा' आई। जिसमें इन तीनों से जुड़ी क्रूरता और आंतक को ईमानदारी के साथ फिल्म पेश किया गया था। और इस फिल्म ने बताया की हमारा समाज इन चीजों से घिरा हुआ है। बनर्जी की आंखों ने हमेशा कुछ हटकर देखा। ये तब पता चला जब उनकी फिल्म 'खोसला का घोंसला' फिल्म रिलीज हुई। और उनकी हालिया फिल्म 'व्योमेश बख्शी' थी, जो सस्पेंस और थ्रिलर से भरपूर थी। ऐसी फिल्म इससे पहले कभी नहीं देखा गया था।
अनुराग कश्यप
भारतीय सिनेमा के जबरदस्त विरोधी अनुराग कश्यप ने नई पीढ़ी के लिए बोल्ड और निर्भीक फिल्में बनाकर एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। हालांकि उनकी पहली फिल्म पांच अभी तक रिलीज नहीं हुई। लेकिन आधिकारिक तौर पर ब्लैक फ्राइडे से डेब्यू करने वाले अनुराग ने बॉलीवुड में नई ताजगी पैदा कर दी। उनके पास हमारे समाज की उन पहलुओं को देखने वाली आंखे हैं, जिसे हम देख नहीं पाये। उनकी हर फिल्मों में पेचीदा आइडिया होते हैं जो अपने पीछे एक टिप्पणी छोड़ जाते है। लेकिन उनकी आखिरी फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' ऐसी फिल्म बन गई जो उन्हें प्रभावशाली निर्देशक बनाती हैं लेकिन उनकी कुछ फिल्में अपरंपरागत भी रही, उन्ही में से एक थी 'नो स्मोकिंग'। लेकिन दूसरा ऐसा कोई फिल्म निर्माता नहीं है जिसने बॉलीवुड में अपने हूनर को इतना बखूबी उतारा हो।
रितेश बत्रा
रितेश बत्रा की इकलौती फिल्म 'लॉच बॉक्स' ने ऐसा असर छोड़ा, जिसकी खुम्हारी से अब तक लोग बाहर नहीं निकल पाये। बत्रा ने शताब्दी की बेहतरीन रोमांस फिल्म को बेहद सीधे सादे अंजाम में प्रस्तुत कर लोगों का दिल जीत लिया। बत्रा की इस फिल्म को देखने के बाद ऐसा लगता है कि जिन्हें भारत की बेहतरीन फिल्म बनाने के लिए बेस्ट फॉरेन अवॉर्ड ऑस्कर मिल सकता था।
जोया अख्तर
अमीरों की परेशानियों को चित्रण करने की जितनी कला अख्तर भाई बहनों के पास है उतनी किसी के पास नहीं। जोया अख्तर ने बोल्ड नजरिये पर फिल्मे बनानी जारी रखी। 'जिन्दगी मिलेगी ना दोबारा' और 'दिल धड़कने दो' जैसी सफल फिल्मों के जरिये उच्च भारतीय वर्ग के मुखौटे पर उतार फेंका। इस फिल्म में आजादी के लिए विचार और बंधनों को तोड़ने की कहानी दिखाई गई। उनकी फिल्में यथार्थवादी और अपरंपरागत होने के कारण एक अलग युग की पहचान देती हैं।
सुजीत सरकार
नेशनल अवॉर्ड विजेता सुजीत सरकार चंद डायरेक्टर में शुमार है जो लीक से हटकर फिल्में बनाते हैं। जैसे कि 'मद्रास कैफे' में भारत के द्वारा लड़े गए एक क्रूर युद्ध की वो कहानी बताई गई है। जिसके बारे में कोई नहीं जानता था। 'पीकू' में एक बूढ़े शख्स के सनकीपन के साथ उसकी दिल छू लेने वाली कहानी दिखाई गई। सरकार ने अपनी हर फिल्म में ऐसे ही संवादों को आगे बढ़ाने की कोशिश की। जिनकी आहिस्ता शुरूआत हुई, और बाद में वो मुख्यधारा की कहानी बन गई।
इम्तियाज अली
इम्तियाज अली को भारतीय रोमांस को पुनर्जागृत करने वाला माना जाता है। जिन्होंने बेलगाम वास्तविकता के नजदीक जाकर रोमांस को प्रदर्शित किया। 'जब वी मेट' जैसी रोमांस और कॉमेडी के तड़के वाली फिल्म भी उन्होंने बनाई और कैद में पड़ी एक लड़की की प्रेम कहानी पर 'हाईवे' जैसी फिल्म बनाई।
विकास बहल
विकास बहल का फिल्म डायरेक्टर बन जाना, कई लोग इसे संयोग मानते हैं। क्वीन से डेब्यू के साथ ही उन्होंने पूरी फिल्म इंडस्ट्री में अपना लोहा मनवा दिया। इस फिल्म में दिल्ली की एक शर्मीली लड़की की कहानी दिखाई गई है जिसमें वो खुद के भीतर के एक क्वीन यानी रानी को ढूंढती है। फिल्म की कहानी पर बहल ने जबरदस्त नियंत्रण दिखाया है। ऐसी अनोखी फिल्में हमारे दिमाग को बिलुकल आकर्षित कर लेती हैं। लेकिन उनकी दूसरी फिल्म शानदार ने थोड़ी कम प्रभावशाली रही।
विक्रमादित्य मोटवानी
मोटवानी की फिल्में हमेशा अलग हटकर रहीं। उनकी फिल्म उड़ान ने हाल ही देखने वालों का दिल दहला दिया। उसके बाद उनकी फिल्म लुटेरा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। शानदार विजुअल्स और स्टाइलिश थीम के साथ मोटवानी की फिल्में किसी पेंटिग की तरह होती हैं। जिन्हें जितना देखो उनके प्रति उतना ही प्यार आता है।
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