Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

सोशल मीडिया पर कितना कचरा, कितना साहित्य!

सोशल मीडिया पर कितना कचरा, कितना साहित्य!

Friday February 16, 2018 , 11 min Read

सोशल मीडिया पर साहित्य-प्रवाह तो हैरत से भर देता है, स्थायित्व और स्थिरता की दृष्टि से उसकी कई सारी खूबियां और जरूरतें भी सामने आती हैं लेकिन इस अचरज भरे प्रवाह का मिथ्या-पक्ष बड़े साहित्यकारों को नागवार गुजरता है। भूले-भटके वह इस नए दौर में शामिल होना भी चाहें तो सोशल मीडिया पर साहित्य के नाम पर बरस रहा कचरा उन्हें उकता देता है और देर तक बने नहीं रहने देता।

सांकेतिक तस्वीर

सांकेतिक तस्वीर


साहित्य में लोकतंत्र बन रहा है, नई तकनीक के जरिये। फेसबुक, ट्विटर पर लिखने वाले लेखक किसी खलीफा, किसी मठाधीश से पूछ कर, उससे सहमति स्वीकृति लेकर नहीं लिख रहे हैं। ये नए लेखक प्रयोग कर रहे हैं, ये साहित्य का लोकतंत्र है, जो बन रहा है। 

सोशल मीडिया में हिंदी साहित्य का तेज प्रवाह अब भविष्य की बड़ी उम्मीदें जगाने लगा है। उम्मीदें बहस-मुबाहसों के केंद्र में हैं और सृजन परिप्रेक्ष्य में भी। कई साहित्यकार इससे नाइत्तेफाकी भी रखते हैं तो कई इस प्रवाह को पूरे उत्साह से लेते हैं। इस चिंतन प्रक्रिया में खासकर हिंदी लिपि भी अक्सर वाद-संवाद का विषय बन जाती है। कवि-कथाकार उदय प्रकाश का कहना है कि हर कोई देवनागरी नहीं पढ़ सकता। हिंदी बोलने और समझने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में हैं लेकिन लिपि का ज्ञान नहीं होने की वजह से वह हिंदी का साहित्य नहीं पढ़ पाते।

हिंदी का जो यूनीकोड है, उसने अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ी को ही आगे बढ़ाया है। हमें हिंदी में एकरूपता लानी होगी, लेकिन समस्या ये है कि हम हिंदियों के संसार में जी रहे हैं। भाषाई एकरूपता नहीं है। इस डिजिटल दुनिया में आगे बढ़ने के लिए हमें लिपि और भाषा की एकरुपता हासिल करनी होगी तभी हिंदी का भला हो सकता है। कमोबेश इसी तरह की द्वंद्व से पुरुषोत्तम अग्रवाल भी वाकिफ कराते हैं। वह कहते हैं कि अंग्रेज़ी जानने और ज़रूरत के अनुसार उसका इस्तेमाल करने का अर्थ हिंदी की अवहेलना या हिंदी की उपेक्षा नहीं है। हिंदी से प्रेम करने का अर्थ अंग्रेज़ी के ख़िलाफ़ खड्गहस्त बने रहना नहीं है। जब तक हिंदी के लेखक और पाठक ये नहीं समझ लेते, हिंदी का भला नहीं हो सकता।

तकनीक से दूरी और बाज़ार से आतंकित होने की ज़रूरत नहीं है। हिंदी आज भी दुनिया की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में तीसरे नंबर पर है लेकिन इस भाषा में ज्ञान-विज्ञान का भविष्य चिंता जगाता है। जिस भाषा में साहित्येत्तर विषयों का गहरा शब्दकोश और गहरी चिंतन परंपरा नहीं होगी, उस भाषा में श्रेष्ठ साहित्य भी संभव नहीं होगा। हिंदी को कंटेंट के स्तर पर, तकनीक के स्तर पर और बाज़ार के स्तर पर इन चुनौतियों का सामना करना ही होगा, तभी उसका भविष्य उज्ज्वल होगा और डिजिटल दुनिया में जी रही वर्तमान पीढ़ी उसे स्वीकारने के साथ ही उसकी समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ा सकेगी। ज्यादातर लोगों का मानना है कि भाषा प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों ने हिंदी कंप्यूटिंग को समृद्ध और आसान किया है। हिंदी में कंप्यूटिंग में जो कुशल नहीं थे, यूनीकोड से उनकी भी राह आसान हुई है। सोशल मीडिया में लोकतांत्रिक प्रकृति है। इसे युवाओं ने हाथोहाथ लिया है। इससे प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एकाधिकार को चुनौती मिली है।

व्यंग्य-लेखक आलोक पुराणिक कहते हैं कि साहित्य में लोकतंत्र बन रहा है, नई तकनीक के जरिये। फेसबुक, ट्विटर पर लिखने वाले लेखक किसी खलीफा, किसी मठाधीश से पूछ कर, उससे सहमति स्वीकृति लेकर नहीं लिख रहे हैं। ये नए लेखक प्रयोग कर रहे हैं, ये साहित्य का लोकतंत्र है, जो बन रहा है। हो सकता है कि नए मंचों, नए माध्यमों पर जो आए, वह कच्चा हो, सुघड़ ना हो। पर समय की छलनी में छनकर जो कुछ भी सार्थक है, काम का है, बचा रह जाएगा। फेसबुक मठाधीशों को नागवार गुजर रहा है। लेखक कह रहा है, पाठक देख रहा है, बीच के मठाधीश इससे नाराज हैं। वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का कहना है कि हिंदी समाज अपनी भाषा की दुर्गति होते देख रहा है। हिंदी भाषा समेत तमाम भारतीय भाषाओं में वह धमक नहीं है, जो अंग्रेजी की है।

हिंदी के पत्रकार अंग्रेजी के शब्दों का बहुत प्रयोग करते हैं। अंग्रेजी के पत्रकार हिंदी के शब्दों का उतना प्रयोग नहीं करते। भाषा के साथ यह खिलवाड़ ठीक नहीं है। अखबारों में जो हिंदी देखने में आ रही है, वह दरअसल हिंदी की हत्या है। पढ़ने और किताबों से पहले जैसे टीवी ने अलग किया था, उतना ही और शायद संभावना में उससे भी ज़्यादा पढ़ने से अलग करने वाली और लोगों के ध्यान और समय को सोख लेने वाली ये सोशल नेटवर्किंग नाम की चिड़िया है। इसको बहुत गंभीरता से लिए जाने की ज़रूरत है। ये सच है कि सूचना क्रांति के इस दौर में दुनिया भर की ज्ञान-विज्ञान की किताबें इंटरनेट पर उपलब्ध हैं लेकिन पढ़ने की आदत कम होती जा रही है।

अरविंद जोशी कहते हैं कि फेसबुक और ट्विटर पर जो लिखा जा रहा है, वह एक तरह से क्षणभंगुर हो रहा है। हम खानाबदोशों की तरह का लेखन कर रहे हैं। किसी एक विषय पर, ट्रेंड पर लोग टूट पड़ते हैं। फिर किसी और नए ट्रेंड की तरफ चले जाते हैं। नई तकनीक में ऐसा हो रहा है। नई तकनीक, नए मंचों को पहचान मिल रही है। विदेशों में इंटरनेट पर लिखे गए साहित्य के लिए अलग पुरस्कारों की व्यवस्था हो रही है। किताबों के बाहर के साहित्य के लिए जगह बन रही है। ब्लॉगर अविनाश वाचस्पति कहते हैं कि इंटरनेट फेसबुक पर रचनात्मकता की नई विधाएं पैदा हो रही हैं। नए प्रयोग फेसबुक पर संभव हैं। बहुत सस्ते में ही अपनी बात रखने की संभावना फेसबुक ने दी है।

डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’ लिखते हैं कि एक दौर था, जब साहित्य प्रकाशन के लिए रचनाकार प्रकाशकों के दर पर अपने सृजन के साथ जाते थे या फिर प्रकाशक प्रतिभाओं को ढूँढने के लिए हिन्दुस्तान की सड़कें नापते थे, परंतु विगत एक दशक से भाषा की उन्नति और प्रतिभा की खोज का सरलीकरण सोशल मीडिया के माध्यम से हो रहा है। साहित्य सृजन के लिए वर्तमान में जब सोशल मीडिया उपयुक्त माध्यम है, तब भी रचनाकारों का पुस्तकों की छपाई के प्रति मुड़ना कुछ संशय में लाकर खड़ा कर देता है। पहले प्रकाशित पुस्तकें और अख़बारों में प्रकाशित रचनाएँ पाठक खोजती थीं और जोड़ती थीं जबकि आज के दौर में यही काम फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर के साथ ब्लाग और निजी वेब साइट कर रहे हैं। और होना भी यही चाहिए क्योंकि जब हमारे पर सस्ता और पर्यावरण के लाभ के साथ विकल्प मौजूद है तो हम क्यों कर पुराने तरीकों से पर्यावरण को हानि पहुँचाकर भी महँगे माध्यम की ओर जाएं।

पर्यावरण की दृष्टि से देखा जाएँ तो कागज का उपयोग, कई वृक्षों की कुर्बानी माँगता है, और यदि हम केवल समाचारपत्रों के डिजिटल संस्करण का उपयोग करना शुरू कर दे तो कई पेड़ों की कटाई को रोक कर पर्यावरण का होने वाला नुकसान बचा सकते हैं। केवल अख़बारों, पुस्तकों लिए अस्सी-नब्बे हज़ार वृक्ष रोजाना काट दिए जाते हैं। यदि हम वेब पर अपनी निजी वेबसाइट भी ब्लॉग जैसी या पुस्तक जैसी बनवाएं तो खर्च अमूमन पांच-छह हज़ार रुपये ही आता है जिस पर हम अपनी बहुत सारी किताबों के ई संस्करण भी प्रकाशित कर सकते हैं और पुस्तकों के पाठक के साथ-साथ लाखों विश्वस्तरीय पाठकों की पहुँच तक जाया जा सकता है।

कौशलेंद्र प्रपन्न का दुख है कि बड़ों की दुनिया रोज दिन नई नई तकनीक और विकास के बहुस्तरीय लक्ष्य को हासिल कर रही है। सामाजिक विकास की इस उड़ान में अभिव्यक्ति की तड़पन को महसूस किया जा सकता है। इसका दर्शन हमें विभिन्न सामाजिक मीडिया के मंचों पर देखने−सुनने को मिलता है। मसला यह दरपेश है कि क्या इन मंचों पर बाल अस्मिता और किशोर मन की अभिव्यक्ति की भी गुंजाईश है या फिर बाल साहित्य के नाम पर तथाकथित कहानी, कविता तक ही महदूद रखते हैं। सोशल मीडिया में क्या किशोर व बाल अस्मिता का भूगोल रचा गया है या फिर वयस्कों की दुनिया में ही इनके लिए एक कोना मयस्सर है। लक्ष्य की ओर दृष्टि, उद्देश्य और रणनीति की स्पष्टता बेहद अहम है।

अपने करीब के तमाम संसाधनों का इस्तेमाल अपने लक्ष्य प्राप्ति की दृष्टि से की जाए तो वह भौतिक दूरी काफी करीब आ जाती है। हम नागर और ग्रामीण समाज की बेचैनीयत छुपी नहीं है कि हम अपने अंदर की छटपटाहटों, हलचलों को दूसरे समाज, व्यक्ति और संस्कृति तक हस्तांतरित करना चाहते हैं। सोशल मीडिया और उसके चरित्र में जादू है जिसे अनभुव किया जा सकता है। यह इस माध्यम का आकर्षण ही है कि छह साल का बच्चा और अस्सी साल का वृद्ध सब के सब इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। यूजर फ्रैंडली माध्यम होने के नाते बड़ी ही तेजी से प्रसिद्धी के मकाम को हासिल किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस सामाजिक माध्यम में बच्चों की दुनिया व बच्चों के लिए क्या है तो इसके लिए हमें सोशल मीडिया के विभिन्न स्वरूपों की बनावटी परतों को खोलना होगा।

हमने अपने बच्चों के ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक विकास के लिए पंचतंत्र और कथासरित सागर, बेताल पचीसी आदि की रचना की। यह भी एक अभिव्यक्ति ही थी। हमारे ऋषियों ने काफी मंथन करने के बाद बाल विमर्श और बाल साहित्य के माध्यम से उनकी संवेदना और भावनाओं के सम्यक विकास हो सके। तकनीक के इस्तेमाल ने भाषा को भी खासा प्रभावित किया है। जब हम कागज पर लिखा करते थे तब हमारे मन में जो आता था व लिखना चाहते थे वही शब्द प्रयोग करते थे। बार बार काटना, मिटाना और फिर सुप्रयुक्त शब्दों को लिखने की आजादी हमारे पास थी। लेकिन जब से कम्प्यूटर व लैपटॉप पर सीधे लिखने लगे तब से लेखन में वह आजादी छीन सी गई।

साथ ही एक व्यापक अनुभव बताता है कि जब से हमने कागज कलम से लिखना छोड़ा उसके बाद यदि एक पन्ना भी हाथ से लिखना पड़े तो हाथ की मांसपेसियां दर्द करने लगती हैं। ऐसे में बच्चों व विद्यार्थियों के लिए यह नुकसानदेह ही माना जाएगा जिनकी अंगुलियां सिर्फ फोन, लैपटॉप, टेब्लेट्स के की-पैड पर टपर टपर टाईप करने लगीं। सोशल मीडिया की दुनिया में जिस तरह की भाषा इस्तेमाल हो रही है उसे देख कर यह जरूर विश्वास होता है कि इसके यूजर यानी प्रयोगकर्ताओं ने भाषा के पारंपरिक स्वरूप के स्थान पर एक नया शार्ट रूप बना लिया है। जिसे हम मोबाईल, सोशल साईट पर चैटिंग के दौरान इस्तेमाल करते हैं। एसएमएस की भाषा के करीब खड़ी यह भाषा कई शब्दों की महज ध्वनि को आधार बना कर संवाद स्थापित करती है। वहीं कई स्थानों पर शब्दों के बीच के वर्णों का लोप भी कर देती है।

सोशल मीडिया में साहित्य की उपस्थिति को लेकर विजय नामदेव 'असहिष्णु' का अभिमत कुछ अलग सा है। वह लिखते हैं कि अच्छे साहित्य का दौर अब बीत चुका है। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कब मुंशी प्रेमचंद को पढ़ा या मैंने किसी किताब के पन्ने अभी हाल में पलटे हों, मुझे नहीं पता चलता कि मैंने कब फणीश्वर नाथ रेणु या दिनकर को दोहराया हो, जब दिमाग पर जोर डालता हूं तो पता चलता है किताबों की जगह अब सोशल मीडिया और स्मार्टफोन ने ले ली है। हम सब की बौद्धिकता फेसबुक और व्हाट्सएप से आगे नहीं बढ़ पा रही है। मैंने यह भी पाया है कि किसी जमाने में हम अखबार के संपादकीय पढ़ा करते थे। अब नया दौर है, स्मार्टफोन पर ही हम लोग न्यूज़ एप्प से समाचार पढ़ लेते हैं।

किसी भी फॉरवर्ड को इतिहास समझ बैठते हैं पर यह रुझान मुझे अच्छा प्रतीत नहीं होता है। हम पढ़ने कुछ अच्छा जाते हैं और मानस पटल पर ठेल कुछ और दिया जाता है। व्हाट्सएप की बानगी देखिए। आप कई प्रकार के ग्रुप में जुड़े हुए हैं। आपको कई प्रकार के मैसेज मिलते हैं, जिनमें कुछ धार्मिक होते हैं, कुछ राजनीतिक होते हैं, कुछ सांप्रदायिक होते हैं, कुछ मसाले वाले भी। जिस उद्देश्य से आपने ग्रुप ज्वाइन किया था, वह उद्देश्य तो हाशिये पर चला जाता है और चुनाव /राजनीति मुसलमान/हिन्दू/ शाहरुख खान /सलमान खान /साक्षी महाराज/ट्रम्प महान प्राथमिकताओं में आ जाते हैं। इनका दूर-दूर तक हम से कोई लेना देना ही नहीं है। ऐसा साहित्य या ऐसी विचारधारा जिससे हमारा कोई वास्ता ही नहीं, हमें मजबूरन पढ़ना पड़ता है और जिसकी वजह से मानसिक तनाव और अवसाद की स्थिति निर्मित होती है। अंतर्मन चाहता कुछ और है ठूंसा कुछ और जा रहा है।

यह भी पढ़ें: वो शायर जिनके शेर कभी इंदिरा गांधी ने पढ़े तो कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने