सतह से उठे भज्जू श्याम और दुनिया पर छा गए
वो आदिवासी 'गोंड' कलाकार जिन्होंने मध्य प्रदेश के एक छोटे से गाँव पाटनगढ़ से निकल कर अपनी तूलिकाओं की छाप सात समंदर पार तक छोड़ी...
पिछले दिनों दिल्ली में पद्मश्री से सम्मानित विश्व विख्यात चित्रकार भज्जू श्याम की जीवनगाथा सतह से उठते आदमी की जटिलताओं से भरे दुखद अतीत की कहानी है। तिल-तिल बिखरते हुए उन्होंने अपनी तूलिकाओं से रेखाओं में रंग भरे हैं। वर्ष 1971 में उनका अभावग्रस्त पारिवारिक परिस्थिति के बीच जन्म हुआ। उन दिनोम उनकी मां घर की दीवारों पर पारंपरिक चित्र बनाया करती थीं। दीवार पर कई बार ऊंचाई पर मां के हाथ न पहुंचते तो भज्जू हाथ साध दिया करते और मां की दीवार पेंटिंग कम्पलीट हो जाती थी। मां को क्या, पूरी दुनिया को तब कहां पता रहा होगा कि उन नन्हें हाथों का हुनर एक दिन देखकर दुनिया दंग रह जाएगी।
आदिवासी 'गोंड' कलाकार भज्जू श्याम का वर्ष 1998 तक तो अंतरराष्ट्रीय फलक पर पदार्पण हो चुका था। उन्हीं दिनो दिल्ली की एक प्रदर्शनी में उनकी पांच पेंटिंग बिकीं, जिससे बारह सौ रुपए की कमाई हो गई। उनके लिए वह तब बहुत बड़ी राशि थी।
भज्जू श्याम एक ऐसे आदिवासी 'गोंड' कलाकार हैं, जिन्होंने जबलपुर (म.प्र.) के एक छोटे से गाँव पाटनगढ़ से निकल कर अपनी तूलिकाओं की छाप सात समंदर पार तक छोड़ी है। 69वें गणतंत्र दिवस समारोह से एक दिन पहले पद्मश्री से सम्मानित किए गए भज्जू श्याम का जन्म 1971 में एक गरीब आदिवासी परिवार में हुआ था। उन दिनों उनके परिवार की माली हालत ऐसी नहीं थी कि उनकी मामूली इच्छाएं भी पूरी हो पातीं। घर खुशहाल रखने का और कोई संसाधन नहीं था। अमरकंटक के आसपास कुछ दिनो तक पौधे रोपते रहे। उससे भी जिंदगी कहां बसर होने वाली थी। आगे की सोचने लगे। उन दिनो वह पंद्रह-सोलह साल के रहे होंगे।
अचानक एक दिन वह रोजी-रोटी की तलाश में भोपाल पहुंच गए। कहीं ठीक ठाक काम नहीं मिला तो रात में चौकीदारी तो कभी बिजली मिस्त्री का काम करने लगे। उसी दौरान वर्ष 1993 में चाचा जनगढ़ सिंह श्याम से उनकी निकटता हुई। जनगढ़ श्याम उस वक़्त भारत भवन में बतौर आदिवासी चित्रकार काम कर रहे थे। उन्होंने भज्जू श्याम को नौकरी का भरोसा दिया। चाचा भी तब तक 'गोंड' कलाकारी में नाम कमा चुके थे, उन्होंने भज्जू श्याम के अंतर के कलाकार को परख लिया। उसे निखारा, संवारा और एक दिन वह देश के मशहूर सृजनधर्मी बन गए।
आदिवासी 'गोंड' कलाकार भज्जू श्याम का वर्ष 1998 तक तो अंतरराष्ट्रीय फलक पर पदार्पण हो चुका था। उन्हीं दिनो दिल्ली की एक प्रदर्शनी में उनकी पांच पेंटिंग बिकीं, जिससे बारह सौ रुपए की कमाई हो गई। उनके लिए वह तब बहुत बड़ी राशि थी। और फिर तो उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। देश में तो उनकी पेंटिंग की प्रदर्शनियां लगती ही थीं, पेरिस और लंदन तक वह छा गए। उनकी 'द लंदन जंगल बुक' की 30 हजार प्रतियां बिकीं। यह किताब पांच विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
वह सन् 2001 में लंदन से लौटे तो अपनी आठ किताबों का संपादन किया और सैकड़ों की संख्या में पेंटिंग्स बनाईं। पेरिस में एक प्रदर्शनी में उनके गोंड चित्रों को खूब सराहना मिली। उनके चित्र कई प्रदर्शनियों का हिस्सा बने। उनकी एक और विशेषता है। वह विदेश से लौटने के बाद वहां के अनुभवों पर केंद्रित अब तक सैकड़ों कहानियां लिख चुके हैं।
विदेशों में जब भज्जू श्याम के चित्रों की प्रदर्शनियां लगने लगी थीं, एक दिन लंदन के एक मशहूर रेस्तराँ 'मसाला ज़ोन' में भारतीय भोजन और संगीत के साथ उनकी कला के नमूने भी परोसे जा रहे थे। उस दिन रेस्तराँ मालिक उन पर लट्ठू हो गया। उसने दो महीने तक उन्हें लंदन में रोक लिया। रेस्तराँ की दीवारों पर भित्ति चित्र बनवाए और लौटते समय साठ हजार रुपए हाथों पर रख दिए। लंदन के संस्मरण दुहराते हुए भज्जू श्याम कहते हैं कि वहां के लोग वक़्त के पाबंद होते हैं। वहाँ पाँच मिनट पहले किसी से मिलने पहुँच जाइए तो कहेंगे - बैठ जाइए, समय पर ही मिलेंगे।
अगर पाँच मिनट देर से पहुँचिए तो कहते हैं - आपको देर हो गई, थोड़ी देर बैठकर इंतज़ार कीजिए। लंदन के लोग चमगादड़ की तरह लगते हैं। हमारे देश में लोग दिन में घूमते-फिरते हैं लेकिन वहां तो लोग रात में चमगादड़ की तरह ज़मीन के नीचे चलने वाली ट्रेनों से सफ़र करते हैं। चमगादड़ फल खोजता है और लंदन वाले शराब। हमारे गाँव में समय का पता मुर्ग़े की बाँग से चलता है लेकिन लंदन में समय का मंदिर 'बिग बेन घड़ी' है।
तभी तो उन्होंने उस दिन एक ऐसे मुर्गे का चित्रांकन किया, जिसकी गर्दन घड़ी की ऊँचाई तक तान डाली। भज्जू श्याम कहते हैं कि सिर्फ़ इस बात की खुशी है कि मध्यप्रदेश की सैकड़ों साल पुरानी परंपरा लंदन के लोगों को पसंद आती है। भज्जू श्याम ने ऑस्ट्रेलिया की कलाकृतियां भी देखी हैं। वे चित्र उनको वैसे ही लगते हैं, जैसे आम तौर पर भारतीय कलाकृतियां नहीं होती हैं।
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