दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट बना मजदूर
अमेरिका में गोल्ड मेडल जीतने के बाद भारत सरकार और राज्य सरकारों ने राजबीर के लिए भारी भरकम कैश प्राइज की घोषणा की थी, लेकिन उन्हें आज तक पैसे नहीं मिले...
केंद्र सरकार ने भी राजबीर की फैमिली को 10 लाख रुपये देने का वादा किया था। जब वह अमेरिका से वापस आया था तो चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर उसका भव्य स्वागत किया गया, लेकिन आज की तारीख में गरीबी और तंगहाली की वजह से राजबीर की ट्रेनिंग नहीं हो पा रही है। यहां तक कि दो वक्त की रोटी जुटाने और घरवालों का पेट पालने के लिए उसे करनी पड़ रही है मजदूरी।
पंजाब के बलबीर सिंह दिहाड़ी मजदूर हैं। वह जहां कहीं भी जाते हैं अपने साथ कुछ पेपर लिए रहते हैं। इन पेपर से साबित होता है कि उनका दिव्यांग बेटा, राजबीर सिंह 2015 में अमेरिका में आयोजित हुए स्पेशल ओलंपिक में दो स्वर्ण पदक जीतककर देश को गौरान्वित किया था। राजबीर बिलो एवरेज इंटेलेक्चुअल और एडाप्टिव फंक्शनिंग से पीड़ित है। लेकिन फिर भी उसने सिर्फ एक महीने की ट्रेनिंग में साइकिलिंग दो गोल्ड मेडल जीत लिए थे। उसे एक लोकल बिजनेसमैन ने प्रोफेशनल साइकिल गिफ्ट की थी। अमेरिका में गोल्ड मेडल जीतने के बाद भारत सरकार और राज्य सरकारों ने राजबीर के लिए भारी भरकम कैश प्राइज की घोषणा की थी, लेकिन उन्हें आज तक पैसे नहीं मिले।
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक उस समय की पंजाब सरकार ने राजबीर के दोनों लिए 15-15 लाख रुपयों के अवॉर्ड की घोषणा की थी। वहीं, केंद्र सरकार ने भी राजबीर की फैमिली के लिए 10 लाख रुपये देने का वादा किया था। जब वह अमेरिका से वापस आया था तो चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर उसका भव्य स्वागत किया गया था। लेकिन यह प्रसिद्धि कुछ ही दिनों में गायब हो गई। पंजाब के तत्कालीन सीएम प्रकाश सिंह बादल ने राजबीर को सम्मानित करते हुए एक लाख अतिरिक्त देने की बात कही थी। उसे केंद्र सरकार से भी 10 लाख रुपये और मिलने की बात कही गई थी, लेकिन परिवार का कहना है कि तीन साल बाद भी आज तक उन्हें एक पैसा नहीं मिला।
किसी सरकार से कोई मदद न मिल पाने के कारण राजबीर के परिवार को अभी भी मजदूरी करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं राजबीर को भी मजबूरी में मजदूरी करना पड़ रहा। जब घर की हालत बदहाल होती चली गई तो राजबीर ने अपने पिता के साथ ईंट-पत्थर उठाने का काम शुरू कर दिया। इससे बाप-बेटे दिन भर में 400 रुपये कमा लेते थे। परिवार पेट भरने के लिए इतना शायद काफी था। इसी साल मई के महीने में एनजीओ चलाने वाले गुरप्रीत सिंह को राजबीर की दुखद कहानी के बारे में जानने को मिला। गुरप्रीत राजबीर को एनजीओ द्वारा चलाए जा रहे वृद्ध आश्रम लेकर आए और अब वह वहां पर वृद्धों की देखभाल करने का काम करता है।
अभी राजबीर को महीने में सिर्फ 5,000 रुपये ही मिलते हैं। लेकिन गरीबी और तंगहाली की वजह से राजबीर की ट्रेनिंग नहीं हो पा रही है। यहां तक कि दो वक्त की रोटी जुटाने और घरवालों का पेट पालने के लिए उसे मजदूरी करनी पड़ रही है। एक वक्त ऐसा लग रहा था कि दिव्यांग बेटा साइकिलिंग में नाम रौशन कर देश का नाम तो ऊंचा ही करेगा, साथ ही अपने गरीब मां-बाप का सहारा भी बनेगा, लेकिन इस देश के नेताओं को सच्ची प्रतिभाओं की फिक्र ही नहीं है। शायद यही वजह है कि एक ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट को आज ये काम करना पड़ रहा है।
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