ओ खुशवन्ता, भारत में चरता विचरंता, अंग्रेजी की बात करंता
कवि ओमप्रकाश आदित्य की पुण्यतिथि पर विशेष...
"आज सात जून है, कवि ओमप्रकाश आदित्य की पुण्यतिथि। वह हादसा भुलाए नहीं भूलता कि उस वक्त मध्यप्रदेश संस्कृति मंत्रालय की कार में पांच कवि सवार थे। हादसे में ओमप्रकाश आदित्य के साथ ही तीन अन्य कवि पं. ओम व्यास 'ओम', नीरज पुरी, लाड़ सिंह गुर्जर भी चल बसे थे। ओमप्रकाश आदित्य ऐसे कवि थे, दिल्ली के लालकिले से जिनके शब्दों की बौछार पूरे देश को तर-ब-तर कर जाती थी..."
ओमप्रकाश आदित्य का शब्द-संसार दशकों तक हिंदी काव्य मंचों पर धूम मचाता रहा था। हरियाणवी 'सपरी' छंद में उनकी पंक्तियां कुछ इस तरह बरसती थीं कि लोग हंसते-हंसते पेट पकड़ लेते थे। अपनी रचनाओं में जितने ठहाकेदार, निजी जीवन में भी वैसे ही सहज, सरल, सौम्य, मीठे-मीठे। बोलचाल ऐसी कि पल में किसी के भी मन-प्राण साध लें।
"कुर्सी छोड़ो, कुर्सी छोड़ो, गूँज उठा संसद में नाद,
दिल्ली में नरसिम्हा रोये, आँसू गिरे हैदराबाद।"
हंसी के आंसू और खुशी के आंसू के बीच कयामत का-सा फर्क होता है। आंसू आते तभी हैं, जब दिल और दिमाग दोनो की शक्ति जवाब दे जाती है, नीर धार-धार आंखों से लुढ़कते चले आते हैं। एक समानता जरूर है, दोनो ही मनःस्थितियों में, गला रुंध जाता है। आंसू निकले नहीं कि, गला रुंधा नहीं। फिर चाहे फूट-फूट कर रोइए या हिचक-हिचक के। सुख-दुख दोनो के आंसू अंदर से थरथरा देते हैं। इसी तरह हम कांप उठे उस दिन, जब हास्य-यात्रा करते-करते बीच राह हादसे ने देश के एक जाने-माने कवि ओमप्रकाश आदित्य को हम से छीन लिया था। पूरा हिंदी जगत उस समय अवाक रह गया था। वह 'बेतवा महोत्सव' के कवि सम्मेलन में हंसी-खुशी बांटने के बाद 07 जून 2009 को लौट रहे थे।
आज सात जून, उनकी पुण्यतिथि है। वह हादसा इसलिए भी भुलाए नहीं भूलता कि उस दिन हादसे के वक्त मध्यप्रदेश संस्कृति मंत्रालय की कार में पांच कवि सवार थे। आदित्य के साथ ही तीन अन्य कवि पं. ओम व्यास 'ओम', नीरज पुरी, लाड़ सिंह गुर्जर भी चल बसे थे। इसी तरह काल के क्रूर हाथों ने कवि श्याम ज्वालामुखी को एक ट्रेन हादसे में छीन लिया था। ओमप्रकाश आदित्य ऐसे कवि थे, दिल्ली के लालकिले से जिनके शब्दों की बौछार पूरे देश को भिगो जाती थी। आज के दिनो में उनको पढ़ने पर लगता है, जैसे उनके शब्द-घनाक्षरी पूरी अभिन्नता के साथ काल की क्रूरता से घुल-मिल जाते थे। तभी तो वह जाने से पहले लिख गए - 'पतित हूँ मैं तो तू भी तो पतित पावन है, जो तू कराता है वही किए जा रहा हूँ मैं, मृत्यु का बुलावा जब भेजेगा तो आ जाऊंगा, तूने कहा जिए जा, तो जिए जा रहा हूँ मैं।'
वह अपने घनाक्षरी हास्य से जीवनपर्यंत दुनिया को हंसा-हंसाकर लोटपोट करते रहे। वह काव्यपाठ के समय फूहड़ अथवा किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणियों से बचते थे। उनके हास्य का पुट आजकल की चुटकुलेबाजियों जैसा नहीं होता था -
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं,
जिधर देखता हूँ, गधे ही गधे हैं,
घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो,
गधे खा रहे हैं च्वयनप्राश देखो।
ओमप्रकाश आदित्य का शब्द-संसार दशकों तक हिंदी काव्य मंचों पर धूम मचाता रहा था। एक-दो कवि-सम्मेलनों में उनसे मुलाकात का भी सुअवसर मिला था। हरियाणवी 'सपरी' छंद में उनकी पंक्तियां कुछ इस तरह बरसती थीं कि लोग हंसते-हंसते पेट पकड़ लेते थे। अपनी रचनाओं में जितने ठहाकेदार, निजी जीवन में भी वैसे ही सहज, सरल, सौम्य, मीठे-मीठे। बोलचाल ऐसी कि पल में किसी के भी मन-प्राण साध लें। अपने शब्दों में वह तरह-तरह की हास्य रस साधनाएं, भांति-भांति के प्रयोग बांधते-साधते रहे। उनकी एक कविता है, 'ओ खुशवन्ता', इसकी एक-एक पंक्ति के जरा अजब-गजब के लोच देखिए-
ओ खुशवन्ता
भारत में चरता विचरंता,
अंग्रेजी की बात करंता,
हिंदी दिए दरिद्र दिखंता,
क्यों लन्दन जा नहीं बसंता,
ओ खुशवन्ता....
उल्लेखनीय है, कि खुशवंत सिंह ने हिन्दी को 'विपन्न और दरिद्र भाषा' लिख दिया था। जब यह कविता देशभर के मंचों पर गूंजने लगी तो एक दिन स्वयं खुशवंत सिंह ने अपने चर्चित कॉलम में इस कविता का उल्लेख करते हुए हिंदी भाषा के प्रति अपनी अशोभन टिप्पणी पर खेद प्रकाश किया था। इसके बाद वह श्रोताओं के सिर्फ मांग करने पर ही इस कविता को सुनाते थे, अन्यथा नहीं।
पहला काका हाथरसी पुरस्कार ओमप्रकाश आदित्य को मिला था, जिसकी सूचना 'धर्मयुग' में घोषित हुई थी। इसके पीछे भी एक दुखद वाकया है। काका ने उनका अवसाद कम करने के लिए यह पुरस्कार स्वयं उनके लिए प्रस्तावित किया था। वह उन दिनो अवसादग्रस्त रहने लगे थे। वह कविसम्मेलनों में अपनी एक कविता 'गोरी बैठी छत्त पर' जब सुनाया करते थे, हास्य का आंधी-तूफान सा आ जाता था। इस कविता की दो विचित्र विशेषताएं थीं। एक तो, इस रचना की परिकल्पना रोमांचक थी कि एक युवती छत से छलांग लगाने की मुखमुद्रा में तनावग्रस्त बैठी है, कविता में उसका चित्रण किया जा रहा है। दूसरे, उन्होंने इसे अलग-अलग महाकवि मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह 'दिनकर', काका हाथरसी, गोपाल प्रसाद व्यास, भवानीप्रसाद मिश्र, श्यामनारायण पाण्डेय, गोपालदास नीरज और सुरेन्द्र शर्मा के लय-छंद, रंग-ढंग में ढाला था। श्यामनारायण पाण्डेय के छंद-विधान में पंक्तियां इस प्रकार हैं-
ओ घमंड मंडिनी‚ अखंड खंड–खंडिनी।
वीरता विमंडिनी‚ प्रचंड चंड चंडिनी।
सिंहनी की ठान से‚ आन–बान–शान से।
मान से‚ गुमान से‚ तुम गिरो मकान से।
तुम डगर–डगर गिरो, तुम नगर–नगर गिरो।
तुम गिरो‚ अगर गिरो‚ शत्रु पर मगर गिरो।