जम्हूरी किरदार के लिये बेहद खतरनाक है सलेक्टिव विरोध
विरोध, किसी भी इंसाफपसंद समाज की चिंतनशीलता और सृजनात्मकता को गतिशील तथा प्रवाहमान बनाये रखने का सबसे बुनियादी कारक होता है। कह सकते हैं कि विरोध, किसी भी समाज के जिंदा होने की सशक्त एवं रचनात्मक दलील है।
दीगर है कि कर्नाटक में गौरी की हत्या पहली हत्या नहीं है। इससे पहले भी यहां विचारधारा के नाम पर कई लोगों को जान से हाथ छोना पड़ चुका है। इसमें दक्षिणपंथी भी शामिल हैं और वामपंथी विचारधारा के लोग भी। जैसे कंदुर के रहने वाले आरएसएस कार्यकर्ता शरत माडिवाला पर उस समय हमला हुआ, जब वह अपनी दुकान बंद कर के घर वापस जा रहे थे। हमले के तुरंत बाद उन्हें काफी गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया। 08 जुलाई को मंगलुरु के एक अस्पताल में उनकी मौत हो गई।
ध्यातव्य है कि गौरी लंकेश की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद अचानक मीडिया रिपोर्ट्स व सोशल मीडिया पर बीजेपी विरोधी कथित सेकुलर जमात द्वारा दुर्भावना से पीडि़त पोस्टों की झड़ी लग गयी है,जिनमे हिंदुत्व ब्रिगेड से उनके टकराव को जिम्मेदार बताने की आपराधिक कोशिश हो रही है। वजह का आधार यह बताया जा रहा है कि दिवंगत पत्रकार दक्षिणपंथ की घोर विरोधी थीं और यह बात ही उनकी हत्या का कारण बनी।
विरोध, किसी भी इंसाफपसंद समाज की चिंतनशीलता और सृजनात्मकता को गतिशील तथा प्रवाहमान बनाये रखने का सबसे बुनियादी कारक होता है। कह सकते हैं कि विरोध, किसी भी समाज के जिंदा होने की सशक्त एवं रचनात्मक दलील है। फिर संसदीय लोकतंत्र का तो गहना है विरोध। प्रत्येक आंदोलन, विद्रोह और परिवर्तन, विरोध के गर्भ से ही प्रसवित हुये हैं। अत: लोकतंत्र के अधिक सशक्त होने के लिये विरोध की ताकत का सड़क से संसद तक मौजूद रहना बुनियादी जरूरत है। किंतु यही बुनियादी जरूरत उस वक्त बीमारी बन जाती है जब वह चयनित स्वरूप अख्तियार कर लेती है। मसलन विरोध, जब कभी विचारधारा, संप्रदाय, नस्ल और जाति के खांचे में ढल कर वजूद में आता है तो वह अपनी मूल त्वरा को त्याग कर अवसर की तलाश में तब्दील हो जाता है, जो कोढ़ में खाज की स्थिति को जन्म देता है। अखलाक से लेकर जुनैद तक केरल के रमेश से लेकर वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश के हत्याकांड तक कमोबेश ऐसी ही दुराग्रह पूर्ण तस्वीर बनती जा रही है। जो मुल्क के जम्हूरी किरदार के लिये बेहद खतरनाक है।
अब देखिये ना, कि कांग्रेस शासित राज्य कर्नाटक में एक वरिष्ठ महिला पत्रकार गौरी लंकेश की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या का विरोध भी चयनित विरोध का स्वरूप अख्तियार कर चुका है। हत्या की खबर आते ही दिल्ली से लेकर दक्षिण भारत तक आरएसएस और भाजपा विरोधी, सियासी और बौद्धिक जमातों ने हत्यारों के दल तक का खुलासा कर दिया। ध्यातव्य है कि गौरी लंकेश की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद अचानक मीडिया रिपोर्ट्स व सोशल मीडिया पर बीजेपी विरोधी कथित सेकुलर जमात द्वारा दुर्भावना से पीडि़त पोस्टों की झड़ी लग गयी है,जिनमे हिंदुत्व ब्रिगेड से उनके टकराव को जिम्मेदार बताने की आपराधिक कोशिश हो रही है। वजह का आधार यह बताया जा रहा है कि दिवंगत पत्रकार दक्षिणपंथ की घोर विरोधी थीं और यह बात ही उनकी हत्या का कारण बनी। यह हो भी सकता है और नहीं भी।
चलिए, घड़ी भर को मान लेते हैं कि गौरी ने दक्षिणपंथियों के खिलाफ रुख अपना रखा था लेकिन कर्नाटक में सरकार किसकी है? यह बात बिल्कुल जानी हुई है कि गौरी के आमतौर पर कर्नाटक सरकार से और खासतौर पर मुख्यमंत्री सिद्धरमैया से अच्छे ताल्लुकात थे। क्या उन्होंने कभी अपने ऊपर हमले की आशंका जताते हुए कोई शिकायत दर्ज कराई? मृत्यु के पूर्व घटित अनेक घटनाक्रमों को देखा जाये तो विवेचना के अनेक आयाम सामने आते हैं। जैसे, गौरी ने नक्सलियों के लिए परेशानी खड़ी की, कर्नाटक सरकार के साथ मिलकर उन्होने कुछ नक्सलियों को वापस मुख्यधारा में जोड़ा था, तो क्या गौरी की हत्या की यह वजह नहीं हो सकती? क्या गौरी ने अपने ट्वीट में कुछ अपनों के ही विरोधी हो जाने की बात नहीं लिखी? गौरी लंकेश ने कांग्रेस नेता डी. शिवकुमार के कथित भ्रष्टाचार के बारे में बहुत लिखा था। ये वही शिवकुमार हैं जिन्होंने गुजरात के कांग्रेस विधायकों की मेजबानी की थी और जिनके यहां छापा पड़ा था। वह भी तो उनके खिलाफ हो सकते हैं। अगर कोई इन पहलुओं को नहीं उठा रहा है तो इसे किसी की हत्या पर गन्दी राजनीति नहीं तो और क्या कहेंगे? यह बात क्या संकेत देती है? लेकिन संकेतों और संभावनाओं की बातें वैचारिक एवं राजनीतिक दुराग्रहों को सम्मुख दम तोड़ देती हैं।
दरअसल गौरी लंकेश सिर्फ पत्रकारिता तक ही सीमित नहीं थीं वह पत्रकारिता के साथ-साथ किसी राजनीतिक विचारधारा को भी आगे बढ़ा रहीं थीं। ऐसा करते समय अनायास ही उनकी आरएसएस/बीजेपी/हिंदुत्व विरोधी छवि बन गई थी। अत: मृतक की छवि ने हत्या के बाद आरएसएस/भाजपा विरोधियों के लिये एक अवसर का द्वार खोल दिया अथवा सहमना जमातों ने स्वत: द्वार खोल लिये। अगर प्रेस क्लब आफ इंडिया में हुये विरोध प्रदर्शन को एक पत्रकार की हत्या के विरोध के दायरें में ही देखें (जैसा कि कहा भी गया) तो सेलेक्टिव विरोध के दाग स्वत: दिखाई पड़ जाते हैं।
जैसे बालाघाट में जिस संदीप कोठारी को जिंदा जला दिया गया, मुजफ्फरनगर में दंगाईयों ने जिस राजेश वर्मा की छाती में गोलियों दागीं, आंध्र प्रदेश में जिन एवीएन शंकर को पीट-पीट कर मौत के घाट उतारा गया, ओडिशा में टीवी चैनल के जिस स्ट्रिंगर तरूण कुमार आचार्य का गला रेता गया, बीजापुर में माओवादियों ने जिस साई रेड्डी का कत्ल किया, रीवा में जिस राजेश मिश्रा को स्कूल परिसर में लोहे की रॉड से मौत की नींद सुला दिया गया, चंदौली में जिस हेमंत यादव को गोलियों से छलनी कर दिया गया, उ.प्र. में एक साल पहले जिस पत्रकार जोगेंद्र सिंह को जिंदा जला दिया गया, क्या इन सबके लिये पत्रकारों की कथित वामपंथी जमात ने वर्तमान की भांति कभी विरोधात्मक कार्यवाही की। ये सभी भी पत्रकार थे। खबर लिखने की कीमत इन्हें जान देकर चुकानी पड़ी।
आश्चर्य है कि इन सबकी हत्या से कलमकारों के बड़े हस्ताक्षरों और जमातों,( जिन्होने गौरी लंकेश की हत्या के विरोध प्रदर्शन में अपने संपादकीय संबोधन में पत्रकारिता की कसौटियों के तमाम बैरिकेटों को तोड़ते हुये एक विचारधारा को ही दोषी बता डाला ), का गुस्सा नहीं उबला ! क्या सिर्फ खास विचारधारा/ खास भाषा से जुड़ी वारदातें ही इनकी आत्मा को कुरेदने का माद्दा रखती हैं? किसी भी सभ्य समाज में हत्या को कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। हत्या जहां एक ओर कानून-व्यवस्था के मुंह पर तमाचा है वहीं हत्या पर प्रतिक्रिया का स्तर तात्कालीन समाज के नजरिये का आइना बनता है। पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या भी उपरोक्त दोनों कसौटियों पर सवाल-जवाब कर रही है। क्या यह विडंबना नहीं है कि हाथों-हाथ एक अपराध को बौद्धिकता के जामे में लपेट दिया जाता है जबकि इलाज की यह तरकीब खुद बीमारी से कहीं ज्यादा बुरी है? आज यह स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं है कि चाहे दाभोलकर हों, पंसारे या कलबुर्गी उनके हत्यारे सम्भवत: इसीलिए नहीं पकड़े जा सके, क्योंकि यहां भी अपराध को बौद्धिकता के जामे में लपेट कर जांच की एक दिशा निर्धारित की गई है।
दीगर है कि कर्नाटक में गौरी की हत्या पहली हत्या नहीं है। इससे पहले भी यहां विचारधारा के नाम पर कई लोगों को जान से हाथ छोना पड़ चुका है। इसमें दक्षिणपंथी भी शामिल हैं और वामपंथी विचारधारा के लोग भी। जैसे कंदुर के रहने वाले आरएसएस कार्यकर्ता शरत माडिवाला पर उस समय हमला हुआ, जब वह अपनी दुकान बंद कर के घर वापस जा रहे थे। हमले के तुरंत बाद उन्हें काफी गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया। 8 जुलाई को मंगलुरु के एक अस्पताल में उनकी मौत हो गई। उनकी हत्या का आरोप एक मुस्लिम संगठन पर लगा। हालात यह थे कि आरएसएस कार्यकर्ता की मौत के बाद प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे भाजपा सांसद और नलिन कुमार के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा दी गई।
नवंबर, 2016 में मैसूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता मगाली रवि की हत्या कर दी गई थी। 2016 के अक्टूबर में ही कर्नाटक के कन्नूर में आरएसएस कार्यकर्ता की हत्या की गई थी। क्या यह अफसोसनाक बात नहीं है कि कर्नाटक में आरएसएस कार्यकर्ता की हत्या होती है तो चारों तरफ चुप्पी पसरी रहती है और दक्षिणपंथ से मुखालिफ विचारधारा वाले की हत्या पर सिर आसमान पर उठा लिया जाता है। आखिर हत्या को अपराध की शक्ल में देखने में क्या अवरोध है? प्रत्येक हत्या के खिलाफ जोरदार आवाज जरूर उठनी चाहिए लेकिन जब चंद सेलेक्टिव मामलों में ही मुठ्ठियां भिंचें, शोर मचे, कोलाहाल के स्वर सुनाई पड़े और बाकी पर सन्नाटा पसरा रहे, तब सवाल भी उठने चाहिए/एजेंडे बेनकाब भी होने चाहिए। विडंबना ही है कि एक महिला पत्रकार की हत्या भी वैचारिक जुगाली का साधन बन गई है। विचारधारा के व्याख्यान में हत्या के तथ्यों को गुम करती यह कोशिश सिलसिलेवार एक पड़ताल की दरकार रखती है, अन्यथा फिर एक बार षडय़ंत्र का मारीच सत्य की सीता का हरण कराने में सफल हो जायेगा। दिक्कत यह है कि इस कथा में मारीच एक नहीं अनेक हैं।
यहां विरोध या समर्थन की आवाज बुलंद कर रहे पत्रकारों को भी समझना चाहिए कि किसी भी पत्रकार का निरपेक्ष होना, उसके पत्रकार होने की प्राथमिक और सर्वोच्च कसौटी है। यदि किसी पत्रकार की पहचान के साथ वामपंथी या दक्षिणपंथी होने का टैग जुड़ जाता है तो उसे पत्रकार कहलाने का कोई अधिकार नहीं रह जाता है। क्योंकि किसी विचारधारा के दायरे में कैद होते ही पत्रकार की निरपेक्षता खुदकुशी कर लेती है। तथ्यों से सरोकार खत्म हो जाता है और एक सुरूर सा दिमाग पर तारी हो जाता है, जो प्रत्येक प्रतिपक्षीय विचारधारा को खलनायक अथवा औचित्यहीन साबित करने के सही-गलत रास्ते खोजने लगता है। अब यहां यह तय करना आवश्यक है कि विरोध या समर्थन का शोर उत्पन्न करने वाले दक्षिणपंथी या वामपंथी हैं अथवा पत्रकार। क्योंकि यह तय किये बगैर सलेक्टिव विरोध का इलाज संभव नहीं।
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