डिंडीगुल से चेन्नई वाया गूगल...संतोष ने सिखाई 44 संस्थानों में 40 हज़ार से ज्यादा लोगों को अंग्रेज़ी
रैपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स याद है? 80 के दशक में ज्यादातर घरों में ये शायद इकलौती मोटी किताब हुआ करती थी। हमारे पास भी एक थी। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले 3 बच्चों और इन चीजों से परेशान हो चुके पति के साथ मेरी मां ने खुद को अपने परिवार तक पहुंचाने के लिए रैपिडेक्स की पनाह ली। क़रीब-क़रीब हर परिवार कभी-ना-कभी इस तरह के इंग्लिश-विंग्लिश मोमेन्ट से गुजर चुका है। हिंदी, उर्दू, बंगाली, तमिल, गुजराती और कई दूसरी देशी भाषाओं में छप चुकी इस किताब ने लोगों को 30 दिनों में अंग्रेजी सीख लेने में मदद की। मेहमानों की खोजी आंखों से दूर बेडरूम की प्राइवेसी में रखी जाने वाली रैपिडेक्स को लोगों में स्वीकार्यता क्रिकेटर कपिल देव के प्रचार करने के बाद मिली।
अंग्रेजी भाषा को लेकर एक छिपाव हमेशा रहता है। एक आंकलन के मुताबिक़, भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या 125 करोड़ की कुल आबादी की 10 फीसदी है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अगर किताब को प्रकाशित करने वाला पुस्तक महल आज भी इस बेस्टसेलर बुक से पैसा कमा रहा हो।
आप जो भी कहें, लेकिन हकीकत ये है कि लोगों का अपनी शिक्षा को रोजगार में तब्दील ना कर पाने का एक बड़ा कारण उनकी कमजोर अंग्रेजी है। असल में, ये हुनर एक डिग्री से ज्यादा महत्वपूर्ण है। खुद एक छोटे कस्बे से आने की वजह से मैं उनके इरादों को पढ़ सकता हूं, जब वो मुझसे कहते हैं कि वो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना चाहते हैं। मेरा इंग्लिश.कॉम के संस्थापक और निदेशक संतोष कर्णनंदा का तो यही कहना है।
वॉक द टॉक
तमिलनाडु में मदुरई के नज़दीक एक छोटे से कस्बे डिंडीगुल में पले-बढ़े संतोष को अपनी जेब खर्च से ‘द हिंदू’ खरीदने 4 किलोमीटर रोज़ जाना पड़ता था, क्योंकि उनके माता-पिता को ये स्वीकार नहीं था। उनका मानना था कि अंग्रेजी अखबार पढ़ना पैसे और समय की बर्बादी है। “अपने परिवार में मैं अंग्रेजी बोलने वाला पहली पीढ़ी हूं। जब मैं डिंडीगुल में पढ़ रहा था, शायद ही कोई वहां हो, जो अपने पाठ्यक्रम के अलावा अंग्रेजी पढ़ता हो।”
27 साल के संतोष जिन्होंने खुद बोलचाल की अंग्रेजी अख़बारों के जरिए सीखी है, आज खुद को अपनी वेबसाइट मेराइंग्लिश.कॉम के जरिए एक प्रोफेशनल ट्रेनर और उद्यमी के रूप में स्थापित कर लिया है। ये वेबसाइट आपको इंग्लिश सिखाने की बजाय शब्दों के सही इस्तेमाल पर जोर देती है। मसलन, या तो आप भारत में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव की आलोचना कीजिए या फिर अंग्रेजी सीखने की इच्छा को ही त्याग दीजिए। वेबसाइट इस तरह के (denounce, renounce) मिलते-जुलते शब्दों में अंतर को स्पष्ट करती है और लोगों को उनके बारीक भेद को समझने में मदद करती है।
संतोष ने तमिलनाडु में 44 संस्थानों में 40 हज़ार से ज्यादा लोगों को अंग्रेजी सिखाई है। अपनी फ्री वेबसाइट मेराइंग्लिश.कॉम के जरिए वो GRE, GMAT छात्रों और कॉरपोरेट्स को अंग्रेजी सीखने में मदद करते हैं। उन्होंने एक किताब भी लिखी है, “6 घंटे में 1000 शब्द सीखें।”
खुलकर बोलो....
लेकिन, विडंबना ये थी कि डिंडीगुल में रहते हुए अंग्रेजी में बातचीत करने के लिए उनके पास कोई नहीं था। संतोष याद करते हुए बताते हैं, “मैं नहीं जानता क्यों, लेकिन हमेशा अंग्रेजी भाषा के प्रति मेरे अंदर एक आकर्षण था। मैं जब अपने सहपाठियों से जान-पहचान करने के लिए अंग्रेजी में बात करने की कोशिश करता, तो वो मुझ पर हंसते थे।” अगर आप तमिलनाडु के छोटे कस्बों के वातावरण से परिचित हैं, तो आपको ये जानकर आश्चर्य नहीं होगा कि संतोष को अक्सर पीटर कहकर मज़ाक उड़ाया जाता था। जब कोई अंग्रेजी बोलने की कोशिश करता था, तो उसे यही नाम दिया जाता था। उन्हें लगता था कि मैं उन्हें ये दिखा रहा हूं।
संतोष को क्विज प्रतियोगिताओं ने आगे बढ़ाया, अपने स्कूल के लिए उन्होंने ये प्रतियोगिताएं जीतनी शुरू कर दी थीं। मेरे पास हमेशा अगली प्रतियोगिता तैयारी करने के लिए सामने होती थी, इसलिए लोगों के तिरस्कार और टिप्पणियों पर ज्यादा सोचने के लिए समय ही नहीं बचता था। 9वीं कक्षा में, उन्होंने अपने स्कूल और राज्य का अंतर्राज्यीय क्विज स्पर्धा में नेतृत्व किया। वो कहते हैं, “जितना मैं जीतता गया, उतना ही मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया। लेकिन, धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना अब भी बड़ी समस्या थी।”
डिंडीगुल में, जो छात्र अंग्रेजी माध्यम के सीबीएसई स्कूलों में 10वीं की परीक्षा देते हैं, वो इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए स्टेट बोर्ड में चले जाते हैं, क्योंकि संतोष के मुताबिक जो इंजीनियरिंग और मेडिकल में दाखिला लेना चाहते हैं, उनके लिए अच्छे अंक लाना आसान है। ये एक अनकहा चलन है, इसलिए ऐसा हुआ कि मेरे सभी सहपाठी स्टेट बोर्ड के स्कूलों में चले गए और मैं 11वीं कक्षा में अपनी स्कूल में अकेला बचा था।
ये संतोष की जिंदगी का सबसे कठिन हिस्सा था। मुझे अब भी उन दिनों को याद करके बुरे सपने आते हैं। लेकिन पीछे देखता हूं, तो लगता है कि आज मैं जो कुछ कर रहा हूं वो जिंदगी के उन्हीं 2 सालों की बदौलत कर सका। मै पूरी तरह अकेला था। शिक्षकों के अलावा ऐसा कोई नहीं था, जिससे मैं पढ़ाई के बारे में बात कर सकता था या फिर अपनी शंकाओं को दूर कर सकता। इस दौर ने संतोष को आत्म-निर्भर होना सिखाया और ये उस वक्त काम आया जब उसने गूगल को छोड़कर अकेले चलने का फैसला किया।
तलाश गूगल तक ले गई
हां, संतोष का ये कमाल है कि वो अकेलेपन से शुरू हुई अपनी यात्रा को जिंदगी में कुछ सार्थक करने की ज्वलंत चाह और आत्मनिर्भरता के बूते दुनिया में सबसे ज्यादा जुड़ी हुई जगह गूगल तक ले गए।
लेकिन, संतोष आज जहां हैं, वहां पहुंचने से पहले उन्हें कई तकलीफदेह रास्तों से गुजरना पड़ा। घर की तरफ से उन पर दूसरों की तरह ही स्टेट बोर्ड जॉइन करने और इंजीनियरिंग या मेडिकल के लिए किस्मत आजमाने का दबाव था। यही वो समय था जिसने खुद से अंग्रेजी पढ़ने का मेरा संकल्प मजबूत किया। इसी तरह, जब मैने मेराइंग्लिश.कॉम लॉन्च करने का फैसला किया, मैंने अपनी वेबसाइट के लिए सारी चीजें खुद ही कीं, वेबसाइट की विषय वस्तु, लोगों को नौकरी पर रखना आदि सारे काम मेरे लिए आसान थे, क्योंकि वो 2 साल मैंने खुद पर खर्च किए तरीके थे।
2002-03 में, डिंडीगुल जैसी जगहों में इंटरनेट नहीं पहुंचा था और छात्रों को मनोरंजन के लिए या तो पढ़ाई करना या फिर खेलना होता था। उन्होंने खूब खेला और जमकर पढ़ाई की। इंडिया टुडे पत्रिका में मैने चेन्नई के लोयोला कॉलेज के बारे में पढ़ा था। मैंने हमेशा वहां जाने का ख्वाब सजाया था। मुझे वहां दाखिला पाने के लिए सिर्फ एक ही सलाह मिली थी – खूब पढ़ो। संतोष ने 85 फीसदी अंक हासिल किए और चेन्नई के लोयोला कॉलेज में जगह पा ली।
कड़ाही से आग में
अगर आपने कभी कड़ाही से बाहर सीधे आग में जाने का अनुभव किया हो तो आप जानेंगे कि संतोष पर क्या गुजरी जब वो बड़े शहर के मशहूर कॉलेज के दरवाजे के अंदर पहुंचे। वो कहते हैं, “मुझे लगता था कि डिंडीगुल में मैं अकेला था। चेन्नई आने पर मुझे और ज्यादा अलगाव का अनुभव हुआ। दोस्त बनाना मुश्किल हो गया। यहां स्वीकारे जाने के लिए आपको अंग्रेजी में अच्छा होना ज़रूरी था। मैंने उन लोगों के आसपास रहना शुरू कर दिया, जिनसे मुझे लगता कि मैं सीख सकता था। समसामयिक घटनाक्रम की अच्छी जानकारी होने के चलते मैं एक नज़रिया पेश करने में सक्षम था, इसके चलते मुझे लोगों के बीच स्वीकार्यता मिलने लगी। धीरे-धीरे मेरी झिझक खोती गई, और जैसे-जैसे लोग मुझे जानने लगे, मैं खुद को बेहतर तरीके से व्यक्त करने लगा। अगर कोई एक ही काम बार-बार करता है तो उसमें सुधार होता है और इसी चीज़ ने मुझे गूगल के कैंपस सेलेक्शन में मदद की।”
संतोष ने 2007 में एकाउंट एसोसिएट के तौर पर गूगल ज्वॉइन किया था।
ये मेरे लिए सबसे बड़ी चीज़ थी। मैं गूगल के साथ काम करने जा रहा था सिर्फ इतनी बात मेरे लिए पर्याप्त थी। मैंने अपनी भूमिका के बारे में ज्यादा ध्यान नहीं दिया। इसलिए, दूसरे साल के अंत तक, संतोष अस्तित्व से संबंधित सबसे बड़े सवाल पर चिंतन करने लगे कि आखिर मैं जिंदगी से चाहता क्या हूं।
एक दिन सुबह जिम से लौटते समय संतोष सनक में एक ट्रेनिंग क्लास में चले गए। ये कैंपस रिक्रूटमेंट ट्रेनिंग की कक्षा थी जिसमें छात्रों को इंटरव्यू का सामना करने और एप्टीट्यूड टेस्ट में बैठने के तरीकों के बारे में तैयार किया जाता था। वो कहते हैं, मैं जीमैट-जीआरई परीक्षाएं दे चुका था और छात्रों को इस बारे में बता सकता था। संस्थान ने उन्हें कुछ कक्षाएं करने का मौका दे दिया। गूगल छोड़ने के बाद संतोष ने एक-डेढ़ साल फ्रीलैंस ट्रेनर के तौर पर काम किया था। यद्यपि मैं लोगों को तर्कसंगत ढंग से सोचने की ट्रेनिंग देता हूं, लेकिन मेरे ज्यादातर फैसले अतार्किक रह चुके हैं।
समय एक अच्छा शिक्षक है
संतोष ने अपने जैसे लोगों को पेशेवर कामयाबी दिलाने में मदद करना शुरू कर दिया। मैंने पूरे तमिलनाडु में जगह-जगह यात्राएं की और हजारों लड़के-लड़कियों से मिला, जो प्रचलित तरीकों से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहे थे। गूगल में रहते हुए की गई बचत के साथ संतोष मेराइंग्लिश.कॉम वेबसाइट 2012 में स्थापित करने में सक्षम हो गया।
जब मैंने शुरुआत की थी, मैं पैसे बनाना नहीं जानता था। मैं सिर्फ विषय वस्तु लिखना ही जानता था। 2013 से मैंने पैसे कमाना भी शुरू कर दिया था। आज, मेराइंग्लिश टीम के पास चेन्नई में अपना ऑफिस और क्लासरूम के साथ-साथ 11 ट्रेनर और लेखक भी हैं।
पारवारिक दबावों के बावजूद संतोष ने व्यापार स्थायी होने तक शादी नहीं करने का फैसला किया है। मैंने अपनी पहली 3 दिन की छुट्टी 3 साल बाद उस वक्त ली जब मैं अपने दादा-दादी से मिलने डिंडीगुल गया था। मेरा दिमाग लगातार सोचता है कि अगला क्लाइंट कैसे मिले। उद्यमिता एक पूर्णकालिक पेशा है। आप बंद नहीं कर सकते। 2013 में, मेरा वजन बहुत बढ़ गया था क्योंकि मैं अपने स्वास्थ्य और आहार-विहार पर ध्यान नहीं देता था। यह अब अपेक्षाकृत आसान हो चुका है, और मैंने रोज जिम जाना शुरू कर दिया है।
बहरहाल, संतोष की उद्यमिता ने उसे जल्द आने वाले गुस्से पर नियंत्रण पाना सिखाया है। वो कहते हैं, “पहले मुझे गुस्सा जल्दी आता था। मैं अब ज्यादा सहनशील हूं। ये एक बड़ी सीख रही है। सभी अनिश्चितताओं के बावजूद, मैं इतना कुछ संभाल रहा हूं और रात में अच्छी नींद सोता हूं और अगली सुबह मुस्कुराते चेहरे के साथ दफ्तर जाता हूं। फैसले लेना निश्चित रूप से बेहतर हो गया है। शुरू में, मैं थक जाता था। कुछ चीजों में, फैसले लेने में बहुत सारी ऊर्जा लगती है।”
अपने ट्रेनिंग सेशन में, संतोष छात्रों को अपने जुनून पर चलना और साथ-साथ पैसे कमाना भी सिखाते हैं।
मैं उनसे अतार्किक फैसले लेने को कहता हूं। कई बार दिमाग का अतार्किक भाग, तार्किक भाग से ज्यादा जानता है। लेकिन आपको ये वहीं नहीं छोड़ देना चाहिए। कड़ी मेहनत के साथ लगे रहना बहुत ज़रूरी है। मैं नहीं जानता था कि मुझे ये करने में इतना लंबा वक्त लग जाएगा। आपको लगे रहना चाहिए, क्योंकि लोग आपको थोड़ी देर बाद ही विश्वास करते हैं। जैसा कि सभी उद्यमी जानते हैं, वक्त के साथ ये आसान होता जाता है।
मूल लेखिका -दीप्ती नायर...... अनुवादक - साहिल