दम तोड़तीं जीवनदायिनी नदियां
आदिकाल से जीवनदायिनी रहीं हमारी पवित्र नदियां आज दम तोड़ने की कगार पर है। ये वे नदियां हैं, जो अपने-अपने क्षेत्रों के लिए जीवनदायिनी तो हैं, लेकिन अब असमय मृत्यु का शिकार हो रही हैं। इनके दर्द को न तो मीडिया प्रमुखता दे रहा है और न ही ये वोट बैंक का हिस्सा बन पा रही हैं। पेश है उत्तर प्रदेश की उन्हीं कराहती नदियों पर योरस्टोरी की एक रिपोर्ट...
"आदिकाल से जीवनदायिनी रही हमारी पवित्र नदियां आज खुद दम तोड़ रही हैं। गंगा, यमुना, सई, गोमती, आमी, शहजाद एवं मंदाकिनी आदि के सम्मुख अपने वजूद का संकट खड़ा हो गया है। इन्हीं संकटग्रस्त नदियों की श्रृंखला में एक गोमती नदी, जो कभी अवध के लिये भगवान शंकर का वरदान कही जाती थी, अब एक गंदे नाले की शक्ल में तब्दील हो गई है।"

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गोमती अपने उद्गम स्थल से लगभग 560 किमी का सफर तय करके जब लखनऊ पहुँचती है, तब इसके तट धीरे-धीरे उठते हुये 20 मीटर तक ऊँचे हो जाते हैं। लखनऊ में गोमती का सफर बारह किमी रहता है और यहाँ पर इसमें छोटे बड़े पच्चीस नालों से औद्योगिक व घरेलू कचरा गिरता है। लखनऊ का ‘विख्यात कुकरैल नाला’ अब बैराज से पहले नदी में आकर मिलता है।
करीब 20 लाख की आबादी वाले शहर लखनऊ से 18 सौ टन घरेलू कचरा व 33 करोड़ लीटर गंदा पानी रोजाना गोमती नदी में घुल रहा है। शहर के आधा दर्जन बड़े कारखाने बगैर ट्रीटमेंट प्लांट लगाये, अपना कचरा गोमती में गिरा रहे हैं। हालत ये है, कि जिस गऊ घाट से शहर की जलापूर्ति के लिये गोमती का पानी लिया जाता है, वह स्थान एक बड़े गंदे नाले की संगम स्थली है। गौरतलब है, कि इस घाट के पानी में ऑक्सीजन का स्तर 1.35 है, जबकि पीने लायक पानी में ऑक्सीजन का स्तर 6.5 से 8.5 होना चाहिए। केन्द्रीय प्रदूषण के आंकड़ों पर यकीन करें, तो लखनऊ से गंगा में समाहित होने तक गोमती में ‘डी’ व ‘वी’ स्तर का प्रदूषण व्याप्त रहता है। बोर्ड के मानकों के मुताबिक ‘डी’ स्तर का पानी वन्य जीवों व मछली पालन के योग्य होता है। जबकि ‘वी’ स्तर के पानी को मात्र सिंचाई, औद्योगिक शीतकरण व नियंत्रित कचरा डालने के लायक माना जाता है। इसी कारण जब गोमती में जलीय जीव ऑक्सीजन घटने से मरने लगते हैं। गोमती का उद्गम बर्फीले पहाड़ों से न होने के कारण गर्मी के दिनों में उसका जलस्तर काफी कम हो जाता है और प्रदूषण चरम पर।
ऋग्वेद कें अष्टम व दशम् मण्डल में गोमती को सदा नीरा बताया गया है। शिव महापुराण में गोमती को अपनी पुत्री स्वीकार करने वाले आशुतोष भी गोमती को सदा नीरा स्वरुप से एक नाले में तब्दील होते देखने के मजबूर हैं। कई साल पहले राज्य सरकार ने ब्रिटेन की मदद से गोमती एक्शन प्लान शुरु किया था, लेकिन उसके नतीजे अब तक प्रतीक्षा में हैं।
नदी से नालों में तब्दील हो रहे इन प्रकृति प्रदत्त अमृत स्रोतों के वाहकों में ललितपुर शहर के मध्य से गुजरने वाली शहजाद नदी हो या कभी सुंदर मछलियों के लिये काली नदी अथवा मुनि दत्तात्रेय की तप स्थली कुंवर-तमसा नदी का संगम सभी का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो चुका है। स्थानीय मान्यता है, कि काली नदी में नहाने से व्यक्ति दीर्घ आयु को प्राप्त होता है। एक समय अलीगढ़ आठ नदियों का संगम होता था। इसमें काली, करवन, सैगुर, चोया, गंगा, यमुना, नीम नदी गुड़ गंगा प्रमुख है, गंगा यमुना को छोड़कर बाकी सभी नदियों का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो चुका है। काली नदी का अस्तित्व भी गंदे नाले की तरह रह गया है।

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मृत, प्रदूषित व विलुप्त होने की श्रृंखला को विस्तार देते हुये, कुंवर नदी की अविरल धाराये अब शांत हो चुकी हैं। ऐसी मान्यता है कि मुनि दत्तात्रेय की तपस्थली तमसा कुंवर के संगम पर स्नान करने से सौ पापों से मुक्ति मिल जाती है, लेकिन अफसोस लाखों को जीवन देने वाली कुंवर नदी आज अपनी जीवन की गुहार लगा रही है।
भोर की पहली किरण के साथ वैदिक मंत्रोच्चार के स्वर धर्म नगरी चित्रकुट के प्रति हर धर्मावलंबी के अंतस में इस नगरी के प्रति अनुराग का भाव भर देता है। वहीं इस शहर की जीवन रेखा मंदाकिनी नदी की दुर्दशा देखकर मन द्रवित हो जाता है। बाहर से आने वाले हजारों श्रद्धालु पहले मंदाकिनी में डुबकी लगाने के बाद तब दूसरे स्थानों के दर्शन के लिये जाते हैं। जिस पावन नदी में स्नान मात्र से ही पापों का नाश हो जाता हो। उसमें शहर का कचरा नालों के सहारे नदी में गिराया जाता है। इसके साथ ही नगर पालिका के ट्रैक्टर भी शहर के मलबे को भी मंदाकिनी में फेकते रहते हैं। नदी में लगातर बढ़़ते प्रदूषण के चलते मछलियों की संख्या कम होती जा रही है। कभी-कभी पोस्टमार्टम के बाद लावारिस लाशें पुल घाट से नीचे फेंक दी जाती हैं। जो सड़ने पर गंदगी फैलाती हैं।
ये नदियाँ प्रकृति की दी हुई वे नियामत हैं, जो अपने आंचल में ढेर सारा पानी प्रवाहित कर करोड़ों जीवों की प्यास शांत करती हैं। किसानों को अन्न जल से नवाजती हैं। अपनी इसी मातृ वत्सला वृत्ति के कारण नदियों को माँ स्वरुप सम्मान प्राप्त है, लेकिन विकास की अंधी हवस ने हमें माँ के प्रति अपने दायित्वों से विमुक्त कर दिया है। तभी आदि देव दिवाकर व भगवती गोदावरी की पुत्री सई नदी (जिसका ज़िक्र रामचरित मानस में भी किया गया है) काल कवलित हो रही है। कभी गंगा के समान पवित्र मानकर लोग इसके पानी का प्रयोग भोजन बनाने में करते थे। आज गंदी व प्रदूषण के कारण खाने की बात तो छोडिये लोग नहाने से भी डर रहे हैं।
गुजरे डेढ़ सौ वर्षों से शहर का कचरा ढोते-ढोते सई का जल जहरीला हो गया है। इसके चलते जलीय जंतुओं का जीवन भी खतरे में आ गया है, और जो बचे हैं, उनके सेवन से मानव जीवन पर खतरा मंडरा रहा है।
दूषित जल की मछलियों के सेवन से कैंसर व लिवर की खराबी जैसी गंभीर बीमारियाँ जन्म ले रही हैं। नदी के सूख जाने से एक ओर नाव चलाने वालों के निवाले छिन रहे हैं, वहीं धोबी समाज भी गुजरते वक्त के साथ व्याकुल होता जा रहा है। नदी की कोर पर बैठे साधु-संत पवित्र डुबकी लगाने को तरस रहे हैं, साथ ही पशु-पक्षी भी इस पवित्र नदी के जल से प्यास बुझाने की आस छोड़ इधर-उधर नालों की ओर निहारने लगे हैं।
दरअसल एक नदी के विलुप्त होने से उसके किनारे बसी सभ्यता, जगत के प्रत्येक व्यक्ति पेयजल, खाद्य पदार्थ, कृषि व सिंचाई जल के लिये नदी जल परंपरा पूरी तरह से मिट जाती है। नदी हमारे सामाजिक जीवन के संस्कारों व लोकाचारों के भागी व साक्षी रहे हैं। जन्म से मृत्यु तक सभी सरोकारों से जुड़ा नदी का तट, जल, मिट्टी सभी जीवन का संदेश देते हैं।
वस्तुतः नदी जलचक्र की नियामक धारास्वरुपा ही नहीं, संस्कृति की संवाहिका भी है। असंख्य जलीय जीवों ने इसमें जीवन पाया है, कितनी ही नौकायें इसके किनारे से होकर गुजरी हैं, न जाने कितने लोगों ने वजु के लिये आब लिया होगा और कितने ही लोगों ने इसके जल से आचमन किया होगा। कई काल खण्डों के इतिहास को अपने हृदय में समेटे हैं, ये नदियाँ। आदिकाल से ही नदियों के तट मानवीय सरोकारों से जुड़े रहे है।
नदियों के संदर्भ में काका साहब कालेकर का भाव दृष्टव है, "नदी को देखते ही मन में विचार आता है, कि ये कहाँ से आती है और कहाँ जाती है। आदि और अंत को ढूँढने की सनातन खोज हमें शायद नदी में ही मिली होगी। पानी के प्रवाह या विस्तार में जो जीवन लीला प्रकट होती है उसके प्रभाव जैसा कोई प्राकृतिक अनुभव नहीं। पहाड़ चाहे कितना ही गगनभेदी क्यों न हो, लेकिन जब तक उसके विशाल वक्ष को चीर कर कोई जलधारा नहीं निकलती, तब तक उसकी भव्यता कोरी और सूनी ही मालूम होती है।"
कितने ही कंठो की प्यास का शमन करने वाली इन नदियों के किनारे से जब कोई पथिक प्यासा लौटता है, तो नदी एक अनाम अपराधबोध से जीते जी मर जाती है, लेकिन ये सिसकती नदियाँ अपना दर्द किससे साझा करें और सुनेगा भी कौन उनकी अकाल मृत्यु का शोक गीत... इसलिए, अब समय आ गया है, कि उन कारणों पर कुठाराघात किया जाये, जो हमारी नदियों को सुखा कर अथवा प्रदूषित कर निर्जला कर रहे हैं। जल का प्रवाह ही तो उसकी जीवंतता है क्योंकि प्रवाह द्वारा ही जल आत्म शोधन करता है, लेकिन नदियों के तटों को पाट कर उसके उसी प्रवाह को बांधने की एक क्रूर कोशिश की जा रही है।
आवश्यकता है, कि कतारबद्ध वृक्षारोपण मिट्टी को बाँधा जाये, तटों पर अनाधिकृत निर्माण को तत्काल रोका जाये और हर उस कार्य को निषेध किया जाये, जिससे नदी की नैसर्गिकता भंग हो रही हो।