छत्तीसगढ़ की कविताओं में मिट्ठी और आग का स्वाद
वो कवि-साहित्यकार जो शब्दों की अबुझ ज्योति जगाते हुए हाल ही में दुनिया से विदा हो गए...
छत्तीसगढ़ की मिट्टी में वैसे तो जाने कब से शब्दों की फुलवारियां महमहाती रही हैं, इधर कवि रामकुमार सोनी की कविताएं नए तेवर के साथ सुर्खियां बन रही हैं। दुखद ये भी रहा कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के कई अतिप्रसिद्ध कवि-साहित्यकार हाल के दिनों, महीनों में हमेशा के लिए दुनिया छोड़ गए। ऐसे ही साहित्यकार थे छत्तीसगढ़ के प्रभाकर चौबे, कवि-उपन्यासकार तेजिंदर सिंह गगन, मध्य प्रदेश के बाल कवि बैरागी।
साहित्य में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की उर्वरता तो पूरे हिंदी जगत से छिपी नहीं लेकिन आज हम बात कर रहे हैं, कुछ ऐसे कवि-साहित्यकारों की भी, जो शब्दों की अबुझ ज्योति जगाते हुए हाल ही में दुनिया से विदा हो गए।
मिट्ठी और आग की भाषा-बोली में शब्द बुन रहे छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित कवि रामकुमार सोनी पेशे से सिविल इंजीनियरिंग, सिंचाई विभाग स्टेट विजिलेंस कमीशन भोपाल, ज्योलाजी एंड माइनिंग रायपुर (छत्तीसगढ़) आदि में कार्यरत रहे हैं। इसके बाद भिलाई इस्पात संयंत्र में कुछ वर्ष कार्यरत रहने के बाद उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत हो चुके हैं। कवि सोनी ने कविताएं तो जी भर लिखीं लेकिन आत्मप्रचार की महत्वाकांक्षा से विमुख, प्रचार-प्रसार से तटस्थ रहते हुए। कवि सोनी की कविताओं के अपने अलग ही रंग हैं, ये बात दीगर है कि उन्हें अपनी रचनाओं के स्तर के मुताबिक ख्याति नहीं मिली। ऐसा तब होता है, जब कवि देश-दुनिया से घुलने-मिलने की बजाय अपनी साधना में डूबा रहता है। सोनी की एक कविता है 'शऊर', उसकी पंक्तियां -
भट्ठे का भी एक शऊर होता है
यूँ ही थोड़े पक जाती हैं ईटें
सुर्ख लाल
कि जरा सा ढोंक दो
और वे खन्ना उठें।
भट्ठे का भी एक शऊर होता है,
कैसे लगाई जाती हैं ईटें
कैसे भरी जाती है भूसी
कैसे बंद कर दी जाती है आग
भट्ठे के अंदर
कि धीरे-धीरे सुलगती
वह फैलने लगती है
गर्म होने लगता है भट्ठा
पकने लगती हैं ईटें
धीरे-धीरे।
एक शऊर होता है भट्ठे का भी,
यूँ ही थोड़े पक जाती हैं ईटें
सुर्ख लाल
कि उन पर जरा सी चोट हो
और वे खन्ना उठें।
तुम्हें अगर लगाना है भट्ठा
पकानी हैं ईंटें
तो मिल लेना चैतू कुम्हार से।
चैतू कुम्हार के बिना
न तुम भट्ठा लगा पाओगे
न समझ पाओगे भट्ठे का शऊर
मिल लेना उससे।
वो ठहरा बिना पढ़ा-लिखा आदमी
मिट्टी की भाषा बोलने-समझने वाला
समझना उसे
उसकी मिट्टी, हवा, पानी को
समझाना उसे
अपने भट्टे और ईंटों की कैफियत।
धीरे-धीरे
उसे भी चेत आयेगा
फिर गर्म होगा भट्ठा
पकने लगेंगी ईंटें
और सोंधी गंध भरने लगेगी
आसपास
चारों तरफ।
साहित्य में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की उर्वरता तो पूरे हिंदी जगत से छिपी नहीं लेकिन आज हम बात कर रहे हैं, कुछ ऐसे कवि-साहित्यकारों की भी, जो शब्दों की अबुझ ज्योति जगाते हुए हाल ही में दुनिया से विदा हो गए। ऐसे ही साहित्यकारों में एक थे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार प्रभाकर चौबे। उनका जन्म छत्तीसगढ़ में महानदी के उदगम स्थल सिहावा में एक अक्टूबर 1935 को हुआ था। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहने वाले प्रभाकर चौबे ने लगभग 54 वर्षों तक लगातार लेखन के जरिए साहित्य और पत्रकारिता को अपनी सेवाएं दीं। वह 25 वर्षों तक लगातार अपने साप्ताहिक कॉलम ’हंसते हैं-रोते हैं’ में विभिन्न समसामयिक विषयों पर व्यंग्यात्मक और चिंतन परक आलेख लिखे।
उनकी प्रकाशित पुस्तकों में अनेक व्यंग्य संग्रह, व्यंग्य उपन्यास व्यंग्य एकांकी, कविता संग्रह और सम्पादकीय आलेखों का संकलन शामिल हैं। अभी कुछ ही रोज पहले छत्तीसगढ़ की ही राजधानी रायपुर में जाने माने उपन्यासकार तेजिंदर सिंह गगन का निधन हो गया। तेजिंदर के उपन्यास काला पादरी, डायरी सागा-सागा, सीढ़ियों पर चीता कापी चर्चित हुए। तेजिंदर अपने गृहनगर रायपुर में ही दूरदर्शन से सेवानिवृत्त हुए और उसके बाद से प्रदेश के सांस्कृतिक जगत में लगातार सक्रिय रहे। वह छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य भी थे। गगन वैसे तो मुख्य रूप से कथाकार के रूप में ही साहित्य जगत में चर्चित रहे लेकिन उनकी कविताओं के भी कुछ अलग ही रंग थे। यह हिन्दी साहित्य की विडम्बना ही कही जाएगी।
सुशील कुमार के शब्दों में 'मुक्तिबोध, धूमिल और कुमार विकल की काव्य-परंपरा के अत्यंत दृष्टि-सम्पन्न कवि तेजिंदर सिंह गगन की कविताएँ प्रतिबद्ध विचारधारा के साथ सर्जनात्मक प्रतिभा और काव्यात्मक सार्थकता का बखूबी भान कराती हैं। वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर- और अपना प्रतिमान भी खुद बनाती हैं। ऐसी कविताओं को आलोचकों के प्रतिमानों की जरूरत न हुई, न कभी होगी। कवि की पक्षधरता से आप उनकी कविता के प्रतिमान को स्वयं भलीभाँति समझ सकते हैं। मेरी दृष्टि में इनकी कविताएं संघर्ष और विद्रोह की अनुपम कविताएँ हैं – संघर्षरत, युद्धरत, बेचैन मनुष्य की खालिस कविताएँ। तेजिंदर जी के यहाँ यह संघर्ष जीवन और कविता दोनों स्तरों पर मौजूद है। यहाँ कवि केदारनाथ सिंह या उदय प्रकाश की कविताओं की तरह कोई ‘ड्रामेबाजी’ या ‘फैंटेसी’ का स्वप्नलोक नहीं, बल्कि सीधी सपाट शैली में बिंबों के नायाब प्रयोग से कविताएँ बनावट और बुनावट में समाज के आंतरिक यथार्थ को खोलती हुई इतनी सघन अर्थ-स्फीतियाँ रचती हैं कि पाठक कवि की ‘कहन के जादू’ से स्वयं सम्मोहित हो जाता है' -
यह कविता नहीं
एक बयान है कि
अब चिड़िया को कविता में
आने की इजाजत नहीं दी जाएगी।
चिड़ियां, पेड़, बच्चा और मां
– इनमें से कोई भी नहीं आएगा
कविता में
यहां तक कि कविता भी नहीं ।
समय के ऐसे दौर में
जब बादशाह खाता है रेवड़ियाँ
और बाँटता है टट्टी,
मैं हैरान हूं कि
तुम्हें पेड़ और बच्चे याद आ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ की तरह ही मध्य प्रदेश ने भी हाल के वक्त में अपने कई महत्वपूर्ण कवि-साहित्यकार हमेशा के लिए खो दिए हैं। उनमें ही एक रहे बाल कवि बैरागी। वह वर्ष 1980 से 1984 तक मध्यप्रदेश के मंत्री और वर्ष 1984 से 1989 तक लोकसभा के सदस्य भी रहे लेकिन ख्याति तो उन्हें अपने साहित्य कर्म से ही मिली। एक जमाने में वह कवि-सम्मेलनों के सरताज हुआ करते थे। वह जब चौथी कक्षा के विद्यार्थी थे, उम्र नौ वर्ष थी। देश को तब आजादी नहीं मिली थी। दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। बात सन 1940 की है। उनके कक्षा अध्यापक भैरवलाल चतुर्वेदी ने एक बार भाषण प्रतियोगिता का विषय रखा 'व्यायाम'। चौथी कक्षा की तरफ से चतुर्वेदी जी ने बैरागी को प्रतियोगी बना दिया।
साथ ही इस विषय के बारे में काफी समझाइश भी दी। उनका जन्म का नाम तो नंदरामदास बैरागी था। उन्हें 'व्यायाम' की तुक 'नंदराम' से जुड़ती नजर आई। वह गुनगुनाने लगे- 'भाई सभी करो व्यायाम'। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ बनाई और अंत में अपने नाम की छाप वाली पंक्ति जोड़ी - 'कसरत ऐसा अनुपम गुण है/कहता है नंदराम/ भाई करो सभी व्यायाम'। इन पंक्तियों को गा-गाकर उन्होंने याद कर लिया और जब हिन्दी अध्यापक रामनाथ उपाध्याय को उन्होंने ये पंक्तियां सुनाई तो वे भाव-विभोर हो गए। उन्होंने प्रमाण पत्र दिया - 'यह कविता है। खूब जियो और ऐसा करते रहो।' बाद में जब प्रतियोगिता पूरी हुई तो निर्णायकों ने अपना निर्णय अध्यक्ष को सौंप दिया। सन्नाटे के बीच निर्णय घोषित हुआ। बैरागी के लिए वह पहला मौका था, जब उन्हें माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिला और फिर कविता के कारण ही वह बालकवि के रूप मशहूर होते चले गए और एक दिन पूरे देश में छा गए -
‘चाहे सभी सुमन बिक जाएं,
चाहे ये उपवन बिक जाएं,
चाहे सौ फागुन बिक जाएं,
पर मैं अपनी गंध नहीं बेचूंगा।’
बालकवि बैरागी ने हिंदी फ़िल्मों के लिए दो गीत लिखे। 1971 में रेशमा और शेरा और दूसरा 1985 में फ़िल्म ‘अनकही’ का एक गीत, ‘मुझको भी राधा बना ले नंदलाल’। बालकवि बैरागी इसलिए बड़े हैं, क्योंकि वे उन कुछ गीतकारों की टोली में थे, जिन्हें फ़िल्मों की चमक-दमक से ज़्यादा साहित्य में सुख मिलता था। गोपाल दास नीरज भी अलीगढ़ लौट गये। गोपाल सिंह नेपाली भी मुंबई में नहीं टिके। पंडित नरेंद्र शर्मा ने भी बहुत थोड़े से गाने लिखे। संतोष आनंद दिल्ली में एकाकी जीवन गुज़ारने लगे।
ऐसे कई गीतकार, जिन्होंने हिंदी फ़िल्मों को बेहद ख़ूबसूरत गाने दिये, लेकिन जब फ़िल्मों में शब्दों को किनारा किया जाने लगा, वे चुपचाप बंद गली के अपने आख़िरी मकान में जाकर क़ैद हो गये। लेकिन बैरागी कैद नहीं हुए, बल्कि और ज्यादा मुखर होते गए साहित्य से सियासत तक। बालकवि बैरागी अपनी गंध को खुद में ही समेटे एक निराला एवं फक्कड व्यक्तित्व थे। संवेदनशीलता, सूझबूझ, हर प्रसंग को गहराई से पकड़ने का लक्ष्य, अभिव्यक्ति की अलौकिक क्षमता, शब्दों की परख, प्रांजल भाषा, विशिष्ट शैली आदि विशेषताओं एवं विलक्षणताओं को समेटे न केवल अपने आसपास बल्कि समूची दुनिया को झकझोरने वाले जीवट वाले व्यक्तित्व थे वह। जब कवि सम्मेलनों के मंच से कविता पाठ करते थे, मानो पूरा दर्शक वर्ग सन्नाटा साध लेता था -
केरल से कारगिल घाटी तक
गोहाटी से चौपाटी तक, सारा देश हमारा
जीना हो तो मरना सीखो
गूंज उठे यह नारा, सारा देश हमारा।
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