"संगीत मार्तंड" पंडित जसराज के संघर्ष की अछूती कहानी
Sunday November 29, 2015 , 5 min Read
"माँ की दवाईयों के लिए जेब में पूरे पैसे नहीं थे तो दुकानदार ने उधार देने से मना कर दिया"
युवा जसराज जब पैदल साउथ कोलकता से सेंट्रल कोलकता तक माँ के लिए दवाइयाँ ढूंढते घूम रहे थे...
किसी भी कामयाबी के पीछे संघर्ष की एक लंबी दास्तान छुपी होती है। संघर्ष की कहानियाँ कभी-कभी किसी को पता चलती है, लेकिन कभी-कभी वो कहानियाँ वो घटनाएँ कामयाबी के परतों में गुम हो जाती हैं। मुश्किल से ही किसी दिन परतें खुलती जाती हैं और संघर्ष के अनछुए पहलू सामने आते रहते हैं। हिंदुस्तानी संगीत के आसमान पर लंबे अरसे तक सूरज बनकर चमकते रहे संगीत मार्तंड पंडित जसराज आज इस दुनिया की सबसे वरिष्ठ शख्सियत के रूप में मौजूद हैं। साल भर वे कहीं भी रहें, लेकिन नवंबर के अंतिम सप्ताह में वे हैदराबाद ज़रूर आते हैं और जब वे हैदराबाद आते हैं तो उनके संघर्षों की स्मृतियां भी लौट आती हैं। हैदराबाद में इन स्मृतियों को ताज़ा करने के लिए एक ही जगह है और वह है, उनके पिताजी की समाधि, जहाँ पर वे घंटों बैठ कर संगीत की उस देन को याद करते हैं, जो उनको अपने पिताजी से मिली थीं। चार पाँच साल की उम्र बहुत ज्यादा नहीं होती और उसी उम्र में पिता से हमेशा के लिए बिछुड़ने का दर्ज वही जान सकता है, जिसपर वो गुज़री है और यहीं से शुरू होता हैं, संघर्ष का लंबा सिलसिला।
हैदराबाद के अम्बरपेट में पिता की समाधि के पास योर स्टोरी के डॉ अरविन्द यादव से एक बेहद अंतरंग बातचीत के दौरान पंडित जी ने बहुत सारी कहानियों को शेयर किया। अपनी इस बड़ी कामयाबी के पीछे छुपे तत्वों के बारे में पंडित जसराज स्पष्ट रूप से स्वीकारते हैं कि उनका संघर्ष जारी है, बल्कि हर दिन और हर लम्हे को वो संघर्ष ही मानते हैं।
आज जो कहानी हम सुना रहे हैं, वह कहानी कोलकता की गलियों में माँ की दवाइयों के लिए भटकते युवा जसराज की है। उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए पंडित जसराज कहते हैं, "पिता की सेवा नहीं कर सका था। माँ साथ थीं, लेकिन उन्हें कैंसर ने आ घेरा। पचास के दशक में कैंसर का होना क्या हो सकता है, इसका अंदाज़ा आज लगाना मुश्किल है। डॉक्टर की लिखी दवाइयाँ ढूंढ़ता हुआ पैदल साउथ कोलकता से सेंट्रल कोलकता पहुँचा। बहुत सी दवाई की दुकानों में उस समय वह दवाइयाँ थी ही नहीं। जब आखिरकार एक दुकान पर दवाइयाँ मिली भी तो जेब में उतने रुपये नहीं थे, जितनी महंगी वह दवाइयाँ थीं। जेब से जितने रुपये निकल सकते थे, निकालने के बाद मैंने कहा कि शेष पैसे बाद में दूँगा। दवाई की दुकान वाले का जवाब था कि दवाई की दुकान पर भी कभी उधारी सुनी है?लेकिन उसी वक़्त किसी ने अपना हाथ काँधे पर रखा और दुकान में खड़े व्यक्ति से कहा कि जितने रुपये हैं, ले लो और पूरी दवाइयाँ दे दो बाकी रुपये मेरे खाते में लिख देना।...वे दुकान के मालिक थे। पता नहीं मुझे कैसे जानते थे।"
पंडित जसराज मानते हैं कि संघर्ष, मेहनत, मशक्कत,रियाज़ सारी चीज़ें जीवन में ज़रूरी हैं, लेकिन उन सब के साथ ऊपर वाले की मेहरबानी भी ज़रूरी है। वही संघर्ष में साथ देता है। पंडित जी ने अपने जीवन में हज़ारों लोगों को ज़मीन से आसमान की राह दिखायी है। उनके अपने जीवन की कई कहानियाँ हैं, जो लोगों को नयी राह दे सकती हैं। एक और घटना का उल्लेख करते हुए पंडित जी बताते हैं, `माँ के लिए दवाइयों का इन्तज़ाम तो हो गया था। डाक्टर ने कहा था कि दिन में दो बार उन्हें इंजेक्शन लगाना होगा। इसके लिए डॉक्टर ने एक विजिट के लिए 15 रुपये पूछे। एक दिन में तीस रुपये जुटा पाना बहुत मुश्किल था, लेकिन सवाल माँ का था मैंने हामी भर दी। दूसरे जब डॉक्टर साहब जा रहे थे, तो मैंने उनसे गुजारिश की कि आज शाम को ऑल इंडिया रेडियो सुनिये, उसमें मैं गा रहा हूँ। उन्होंने कहा, मुझे गाने में दिलचस्पी नहीं है और मैं अपनी भांजी के घर दावत में जा रहा हूँ। '...मैं मायूस हो गया, लेकिन जब दूसरे दिन डॉक्टर साहब आये तो उनका मूड़ बिल्कुल बदला हुआ था। उन्होंने कहा, ` मैंने तुम्हारा गाना सुना। जानते हो, यह गाना मैंने अपनी भाँजी के घर सुना और भाँजी ने कहा कि इस गाने वाले के पास पैसे नहीं रहते।'... उनकी वह भाँजी गीता राय थी, जो बाद में गायिका गीता दत्त के नाम से मशहूर हुई। डॉक्टर साहब ने उस दिन के बाद नाम मात्र 2 रुपये प्रति विजिट लेने शुरू किए। इस तरह संघर्ष के दिनों में कोई मेरे साथ साथ चलता रहा।'
पंडित जसराज मानते हैं कि संघर्ष से कामयाबियाँ मिलती हैं, लेकिन साथ ही वे यह भी मानते हैं कि उन कामयाबियों को `मैं' की नज़र नहीं करना चाहिए। आदमी को जब अपने पर घमंड आता है तो वह समाप्त हो जाता है। उसके संघर्ष के मायने भी खो जाते हैं।
पंडित जसराज के बचपन के कुछ दिन हैदराबाद के गली कूचों में गुज़रे हैं। यहाँ का गौलीगुडा चमन और नामपल्ली ऐसे मुहल्ले हैं, जहाँ पंडित जी के बचपन की कई यादें हैं। उन्हें स्कूल के रास्ते की वो होटल भी याद है, जहाँ रुक कर वो बेगम अख्तर की ग़ज़ल...दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे , वरना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे सुना करते थे। ...इस ग़ज़ल ने उनका स्कूल छुडवा दिया और फिर वे तबला बजाने लगे। बरसों बाद लाहौर में उन्हें गायक कलाकार के रूप में मंच का मुख्य आकर्षण बनने की सूझी और फिर गायक बनने के लिए भी लंबे संघर्षों का सिलसिला जारी रहा।
पंडित जी मानते हैं कि इस लंबी जिंदगी से कुछ प्रेरणा अगर ली जा सकती है तो यही कि लगातार काम करते रहना चाहिए। गाने का शौक है तो सीखते रहो और रियाज़ करते रहो और उस ऊपर वाले की मेहरबानी का इन्तिज़ार करो।