कभी धोनी के साथ खेली-पढ़ीं, आज हैं सफल उद्यमी
सरकारी परियोजनाओं के लिये काम करने वाली जेनेसिस कंस्लटिंग प्रा. लि. की सर्वेसर्वा हैं हंसाफेफड़ों की जानलेवा बीमारी से उबरकर अपने प्रतिस्पर्धी के साथ मिलकर शुरू किया व्यवसायअपने घर की छत पर बने कमरे को दफ्तर बनाकर शुरू किया काम2014-15 के वित्तीय वर्ष में किया 2 करोड़ का व्यवसाय
‘‘हर सफल महिला, चाहे वह एक नेता, गृहिणी, सामाजिक कार्यकर्ता, अभिनेत्री, उपन्यासकार, शिक्षक या उद्यमी या कुछ और हो, वह मुझे प्रेरित करती है क्योंकि उनकी सफलता के पीछे एक खास कहानी छिपी होती है।’’
महिला उद्यमी हंसा सिन्हा की कहानी कई दिलचस्प तथ्यों से भरी होने की वजय से विशेष बन जाती है। प्रसिद्ध भारतीय क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के साथ पढ़ चुकी हंसा, काॅलेज के दिनों में फेफड़े की बीमारी की वजह से मौत के मुंह में जाने से बचीं और इसके अलावा उन्होंने अपनी कंपनी जेनेसिस शुरू करने के लिये अपने प्रतिद्वंदी तक से हाथ मिलाने से गुरेज नहीं किया। एक बेटी, पत्नी या माँ के रूप में उन्होंने जीवन को अपनी ही शर्तों पर जिया है।
हंसा का परिस्थितियों के हिसाब से खुद को ढालना, कठिन कामों को पूरा करने की चुनौती को स्वीकारना और किसी भी क्षेत्र में बेहतर करने के लिये चीजों को बदलने की क्षमता उन्हें औरों से अलग बनाती है जीवन में आगे बढ़ने में मदद करती है।
1980 में बिहार की राजधानी पटना में जन्मी हंसा का बचपन अन्य बच्चों की तरह ही बीता। उनका बचपन भी अपने भाइयों-बहनों के साथ खाने की चीजों में बड़ा हिस्सा हथियाने के लिये होने वाले मामूली झगड़ों, पिता की मोटरसाइकिल पर आगे बैठने की जिद के साथ रसना का एक और गिलास लेने के लिये होने वाली चुहलबाजी करने में गुजरा।
पटना के नोट्रे डेम अकादमी से प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद वे बैंक में कार्यरत अपने पिता के स्थानांतरण की वजह से उनके साथ रांची आ गईं और प्रतिष्ठित सेंट फ्रांसिस से अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद उन्होंने इंटर की पढ़ाई के लिये रांची के ही डीएवी श्यामली में दाखिला लिया और मानवीकी के क्षेत्र में अध्ययन करने लगीं। इसी समय उनकी बास्केटबाॅल के खेल में हुई और उन्होंने क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर तक इस खेल का प्रतिनिधित्व किया। इसके अलावा हंसा, महेंद्र सिंह धोनी के साथ स्कूल की खेल संयोजक भी रहीं। उस समय को याद करते हुए वे खुशी से बताती हैं कि, ‘‘मुझे अब भी रांची के मैकाॅन स्टेडियम में हुआ स्कूल का स्पोटर्स डे याद है जहां मैंने ‘माही’ (एमएस धोनी) के साथ मार्च करने के अलावा एक रिले दौड़ में भी हिस्सा लिया था।’’
इसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिये पटना आ गईं जहां उन्होंने पटना महिला काॅलेज से विज्ञापन, सेल्स प्रमोशन और सेल्स मैनेजमेंट में स्नातक किया। इन्हीं दिनों उन्हें फेफड़ों की बीमारी ने जकड़ लिया जिससे पार पाना उनके लिये बहुत कठिन रहा। ‘‘फेफड़ों से संक्रमित पीले तरल से निकालने के लिये मेरी हड्डियों को काटकर एक पाइप डाला गया जो बहुत दर्दनाक था। मैं दो बार मौत के मुंह से वापस आने में सफल रही। एक बार तो आॅपरेशन थियेटर में और दूसरी बार तब जब दो आॅपरेशन के बाद दोबारा मेरी बीमारी पलटकर वापस आ गई।’’
उनके माता-पिता और परिजनों ने उनके ठीक होने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। हंसा कहती हैं कि, ‘‘उस समय मेरे मित्रों और रिश्तेदारों द्वारा विभिन्न तरीके से दिये गए समर्थन और साथ ने जीवन के प्रति मेरे नजरिये को बदला और मुझे रिश्तों और संबंधों के महत्व की एक नई परिभाषा का ज्ञान हुआ। उस समय मैंने तय किया कि मैं दिल के नजदीक के रिश्तों को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ूंगी। मेरी बीमारी ने मुझे जीवन में हमेशा अप्रत्याशित की उम्मीद करने और सामने आने वाली बाधाओं का खुलकर सामना करने का एक स्पष्ट संदेश देने के अलावा रिश्तों और संबंधों के महत्व को, चाहे वे खून के हों या अपने बनाए हुए, भी समझाया।’’
उन्हें अपनी इस बीमारी से उबरने में लगभग एक साल का समय लगा और ठीक होने के बाद उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद उन्होंने कोलकाता के भारतीय विद्या भवन से 2004 में मास कम्युनिकेशन में परस्नातक किया और उसी साल शाॅपर्स स्टाॅप में नौकरी कर ली। इसके एक साल बाद ही वे परामर्शदाता कंपनी माफोई (अब रैंडस्टॅड) के साथ काम करने लगीं। जल्द ही वे विवाह के बंधन में बंध गईं और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उन्होंने कुछ समय के लिये नौकरी छोड़ दी।
हंसा ने पूरे भारत के उपभोक्ताओं को संभालने के अलावा यूनीसेफ और बिहार के स्वास्थ्य एवं शिक्षा विभाग जैसे बड़े उपक्रमों के खातों के प्रबंधन का काम भी सफलतापूर्वक किया है। इसके अलावा उन्होंने विभिन्न प्रकार के भर्ती और प्रशिक्षण कार्यों को संभालने के अलावा विभिन्न निविदा दस्तावेज तैयार करने, प्रतिस्पर्धी बोलियां तैयार करने के अलावा सौंपे गए कार्यों का सफल निष्पादन करने के साथ-साथ अच्छा राजस्व भी उत्पन्न करके अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है। हंसा का कहना है कि, ‘‘मैंने अपने कार्य को समय से पूरा करने के लिये शनिवार और रविवार के अलावा अन्य छुट्टियों के दिनों में भी जीतोड़ काम किया है।’’
जनवरी 2011 में उन्होंने माफोई के दिनों के अपने प्रतिस्पर्धी परिमल मधुप के साथ हाथ मिलाया और जेनेसिस कंस्लटिंग प्राईवेट लिमिटिड की नींव रखी। ‘‘मेरी और परिमल, दोनों की कंपनियों को एक सरकारी भर्ती परियोजना का काम वितरित किया गया था और हम दोनों ही उस परियोजना पर काम कर रहे थे।’’ हंसा की कंपनी का शाखा प्रमुख इस परियोजना के बीच में ही काम छोड़कर चला गया और उन्हें अपने प्रधान कार्यालय से भी किसी भी प्रकार की सहायता नहीं मिल रही थी। उसी समय हंसा ने उस कंपनी को अलविदा कहने का मन बना लिया और अपना व्यवसाय शुरू करने के लिये परिमल के साथ हाथ मिलाया।
वरिष्ठ आईएएस राजेश भूषण, जो अब ग्रामीण विकास मंत्रालय में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत हैं, ने उन्हें अपने दम पर काम करने की प्रेरणा दी। राजेश ने बिना अपने कार्यालय के समर्थन के उनके द्वारा किये एक उत्कृष्ट कार्यों की सराहना की और अपनी कंपनी बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। हंसा बताती हैं कि, ‘‘उन्होंने हमें अपनी कंपनी बनाकर बिहार में चल रही परियोजनाओं में अपनी किस्मत आजमाने की राय दी और निवेशकों के समर्थन से बिहार में ही अपने काम को जारी रखने के लिये प्रोत्साहित किया। दो साल बाद ही हमनें जेनेसिस के झंडे तले क्रिएटिव एम्प्रिंट्स एलएलपी नामक कंपनी की सहस्थापना की।’’
इतने समय बाद भी परिमल के साथ उनके संबंधों में कोई बदलाव नहीं आया है ओर वे उनके साझीदार होने के अलावा एक अच्छे पारिवारिक मित्र भी हैं। वे दोनों काम को लेकर कई बार एक दूसरे से असहमत जरूर होते हैं लेकिन उपभोक्ता की संतुष्टि ही इनके लिये सर्वोच्च है।
जेनेसिस के प्रारंभिक दिनों में ये लोग आर्थिक तौर पर मजबूत नहीं थे और इनके पास काम करने के लिये एक टीम को रखने या कार्यालय के बुनियादी ढांचे को तैयार करने के लिये धन नहीं था। शुरूआती संघर्ष के दिनों को याद करते हुए हंसा बताती हैं कि, ‘‘मैंने अपने घर की छत पर बने एक कमरे से काम करना शुरू किया और उसी कमरे को एक दफ्तर का रूप दे दिया और हम लोग काम को निबटाने के लिये अपने लैपटाॅप और मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते थे। इसके अलावा दो व्यक्ति हमारे साथ स्वतंत्र रूप से फ्रीलांसर के रूप में काम करने के लिये जुड़ गए। ऐसे में हमारे साथ काम करने को आतुर उपभोक्ता हमारे लिये भगवान से कम नहीं थे।’’
वर्तमान में उनके पास 15 सदस्यों की एक पूरी टीम है जो बिहार के अलावा देशभर में कई परियोजनाओं को सफलतापूर्वक अंजाम दे चुके हैं। उन्होंने अबतक अधिकतर सरकारी और सामाजिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिये काम करने के अलावा कुछ काॅर्पोरेट और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिये भी सफलतापूर्वक काम किया है। जेनेसिस ग्रुप ने 2014-15 के वित्तीय वर्ष में 2 करोड़ रुपये का कारोबार करने में सफलता प्रापत की है। हंसा गर्व से कहती हैं, ‘‘रास्ते में आने वाली तमाम बाधाओं के बावजूद हमारे परियोजनाओं के निष्पादन और वितरण के साक्षी रहे बिहार के आबकारी आयुक्त राहुल सिंह हमें ‘जिनाइस’ के नाम से पुकारते हैं।’’
एक महिला उद्यमी के रूप में उनकी सबसे बड़ी चुनौती ‘एक महिला होने के लाभ नहीं लेना’ रही। उनके परिवार ने उनका उस समय भी पूरा समर्थन किया जब कई बार जब उन्हें आधी रात के बाद तक भी काम करना पड़ता था या काम के सिलसिले में कई-कई दिनों तक घर से बाहर रहना पड़ता था। हंसा बताती हैं कि, ‘‘चूंकि मेरे पति पटना के बाहर तैनात हैं इसलिये मैं अपनी बेटी को अपने माता-पिता के पास छोड़कर जाती थी। एक उद्यमी के रूप में मेरे पास सप्ताहांत की सुविधा नहीं है और मुझे चौबीसों घंटे अपने काम को देने पड़ते हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन का सामना करना मेरे लिये एक चुनौती है और मैं अपनी सात साल की बेटी को पूरा समय दे पाने में असमर्थ रहती हूं जिसे अपनी माँ की जरूरत है।’’
हंसा अपने पति और माता-पिता द्वारा मिले समर्थन और प्रोत्साहन से काफी अभिभूत हैं क्योंकि इसी की वजह से वे अपनी मंजिल को पा सकी हैं और उन्हें लगता है कि यही समर्थन और प्रोत्साहन उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा है। भविष्य में वे अपने उद्यम के लिये अधिक धन की व्यवस्था कर उसे और ऊँचाईयों तक ले जाना चाहती हैं। आकाश सफलता की सीमा है और हंसा उससे कम में समझौता करने के लिये तैयार नहीं हैं।