आज़ादी की दूसरी लड़ाई की नायिका हैं इला बेन
रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करवाते हुए महिलाओं की ‘सेवा’ में समर्पित नारी-शक्ति का नाम है इला भट्ट ... सेवा-आंदोलन की जननी इला भट्ट को विरासत में मिली थी नाइंसाफी के ख़िलाफ जंग लड़ने की ताक़त
इला बेन को नाइंसाफी के खिलाफ जंग लड़ने की ताकत विरासत में मिली थी। माता-पिता से मिली ये ताकत कोई मामूली ताकत नहीं थी। ताकत इतनी थी कि उनका लोहा देश के लोगों ने ही नहीं बल्कि दुनिया के लोगों ने भी माना। सच्चाई और अहिंसा, यही वो दो अस्त्र थे जिनको साथ लेकर इला बेन ने दकियानूसी विचारों, रूढ़िवादी ताकतों, शोषण और नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़ीं और जीत हासिल की। ये इला बेन की पहल, उनके संघर्ष और आन्दोलन का ही नतीजा है कि देश में स्वरोजगार महिलाओं को उनके अधिकार मिले, उन पर हो रहे शोषण पर रोक लगाने के लिए कानून बने। इला बेन ने स्वरोजगार महिलाओं को संगठित कर उनकी न सिर्फ यूनियन बनायी बल्कि उनके उत्थान और विकास के लिए उनका खुद का सहकारिता बैंक भी बनवाया। इला बेन यहीं नहीं रुकीं, उन्होंने स्वरोजगार महिलाओं के लिए जो संगठन बनाया उसके अधीन काम करने वाली ऐसी कई संस्थाएं भी बनायीं जिससे स्वरोजगार महिलाओं का बहुमुखी विकास हो सके। सेल्फ इम्प्लॉइड विमेंस एसोसिएशन - एस.ई.डबल्यू.ए (सेवा) यानी स्वरोज़गार महिला संघ के ज़रिये इला बेन ने देश में एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक और सहकारिता क्रांति की शुरुआत की जिससे लाखों महिलाओं ने अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को मज़बूत बनाते हुए देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी शुरू की। ‘सेवा' क्रांति के नाम से मशहूर इस आन्दोलन का सद्प्रभाव दुनिया के कई देशों में भी पड़ा। दुनिया के कई देशों में महिला कार्यकर्ताओं ने इला बेन की ‘सेवा’ को आदर्श मानते हुए इसी तरह के आन्दोलन की शुरुआत की और स्वरोजगार महिलाओं को न सिर्फ उनके अधिकार दिलवाए बल्कि उन्हें आत्म-निर्भर भी बनाया। इला बेन ने अपने संघर्ष और आन्दोलनों से शोषित और पीड़ित महिलाओं को वही ताकत दी जोकि उन्हें विरासत में मिली थी – नाइंसाफी के खिलाफ जंग लड़ने की, अपने अधिकार हासिल करने के लिए सच्चाई और अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए आन्दोलन करने की। इला बेन ने अपने कामयाब आन्दोलनों से ये भी साबित किया है कि आन्दोलन का मतलब हिंसा, विध्वंस, तोड़-फोड़, नारेबाजी और झंड़ेबाज़ी नहीं है, रचनात्मक कार्य करते हुए भी आन्दोलन कामयाब किये जा सकते हैं। इला बेन के जीवन-आदर्श और आन्दोलन ये भी साबित करते हैं कि गांधीवादी विचारधारा हमेशा प्रासंगिक रहेगी। गरीब और ज़रूरतमंद लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए इला बेन का संघर्ष और आन्दोलन अब भी जारी है। 83 साल की उम्र में भी वे शोषित और पीड़ित लोगों के लिए अपनी ओर से हर मुमकिन कोशिश कर रही हैं। नाइंसाफी के खिलाफ जंग करने का उनका ज़ज्बा अब भी बरकरार है। अपने जीवन में जिस तरह के साहस का परिचय उन्होंने दिया है और जिस तरह से उन्होंने इंसाफ के लिए संघर्ष किया है वो दुनिया के सामने हमेशा एक मिसाल बनी रहेगी। इला बेन का जीवन लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करवाते हुए देश को गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, शोषण और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने से जुड़े कार्यों और कार्यक्रमों को समर्पित रहा है। वे देश को गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए शुरू हुई 'आज़ादी की दूसरी लड़ाई' की नायिका भी हैं।
आधुनिक युग में दुनिया की सबसे प्रभावशाली महिलाओं में अपनी ख़ास जगह रखने वालीं इला बेन यानी इला भट्ट का जन्म 7 सितम्बर, 1933 को अहमदाबाद में हुआ। माता-पिता पढ़े-लिखे तो थे ही साथ ही वे प्रभावशाली व्यक्तित्व के मालिक भी थे। परिवार काफी संपन्न था और समाज में उनका खूब आदर-सम्मान था। इला बेन के पिता सुमंतराय भट्ट अपने ज़माने के मशहूर वकील थे। दादा, ताऊ, काका, कजिन भी कानून के बड़े जानकार थे। ‘वकीलों का परिवार’ के रूप में भट्ट परिवार सूरत शहर में काफी लोकप्रिय था। इला बेन के नाना अहमदाबाद में मशहूर सर्जन थे और सरकारी अस्पताल में लोगों की सेवा करते थे। आज़ादी की लड़ाई में सक्रीय रूप से हिस्सा लेने के मक़सद से उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। इला बेन के तीनों मामा भी स्वतंत्रता सेनानी थे। पूरे परिवार में देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा था। पूरे परिवार पर महात्मा गांधी का काफी प्रभाव था। यह परिवार गाँधीजी के हर कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता था।
इला ने एक ऐसे परिवार में आँखें खोली थीं, जहाँ शिक्षा के प्रति शुरू से ही जागरूकता थी। इला की माँ वन लीला व्यास शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थीं, लेकिन शादी की वजह से उनकी पढ़ाई रोकनी पड़ी थी। शादी कर जब लीला व्यास अपने ससुराल गयीं तब उनके पति ने पढ़ाई फिर से शुरू करवाई। इला के पिता ने खुद उनकी माँ को पढ़ाया-लिखाया। माँ की पढ़ाई के लिए निजी अध्यापक भी रखा गया था।
इला बेन भला वो दिन कैसे भूल सकती हैं, जब एक ही दिन दो बड़ी उपलब्धियाँ उनके घर में आयी थीं। उन्हें आज भी वो दिन अच्छी तरह से याद है, जब एक ही दिन उनकी और उनकी माँ की परीक्षा के परिणाम आये थे। इला बेन ने बताया, “एक दिन ही दिन मेरी दसवीं और मेरी माँ की बीए की परीक्षा का रिजल्ट आया था। अखबार में हम दोनों का नाम छपा था। दसवीं पास करने वाले कई छात्र थे, उनमें मेरा भी नाम था, लेकिन बीए की परीक्षा सिर्फ मेरी माँ ने पास की थी।”
वो एक ऐसा दौर था, जब सिद्धांतों की लड़ाई परिवार में ज़ोंरों पर थी। कुछ बातों को लेकर इला बेन के माता और पिता के घरवालों के ख्यालात मेल नहीं खाते थे। इला बेन के पिता अंग्रेज़ी शिक्षा-पद्धति की पुरज़ोर वकालत किया करते थे,लेकिन उनके नाना ‘स्वदेशी’ के कट्टर समर्थक थे और उन्हें अंग्रेज़ों से सख़्त नफ़रत थी। अंग्रेज़ों के शासन के वे इतना खिलाफ़ थे उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी और आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। आज़ादी की लड़ाई में इला बेन के नाना ने अपना तन-मन-धन सब कुछ वार दिया था।
इला बेन पर अपने माता–पिता और नाना-दादा के आदर्शों और उनके परिवेश का प्रभाव समान रूप से पड़ा था। इला बेन कहती हैं, “मेरे पिता बहुत ही दयालु, धर्मभीरु और सिद्धांतवादी इंसान थे। वे नैतिक मूल्यों के पक्के थे। उन्हें सही-गलत की समझ थी और हमें भी बताते थे कि क्या सही है और क्या ग़लत। वे हमेशा हमसे कहते थे कि हमें सिर्फ अपने बारे में ही नहीं, बल्कि दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। मेरे पिता ने हमेशा नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़ी।” अपनी माँ के बारे में बताते हुए इला बेन ने कहा, “मेरी माँ को भी सही-गलत की समझ थी। वे हर चीज़ को आसानी से तोल-मोल लेती थीं। कई सारे गुण थे उनमें। वो भाषण भी बहुत अच्छा देती थीं। वो महिलाओं के कार्यक्रमों में भी खूब हिस्सा लेती थीं। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी लड़ाई लड़ी।”
इला बेन की माँ वन लीला व्यास अपने ज़माने की बड़ी सामाजिक कार्यकर्त्ता थीं और उन्होंने कई महिला आंदोलनों का नेतृत्व किया था। वे आल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस की भी नेता थीं। वन लीला अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए ही महिला आंदोलनों में हिस्सा लेती थीं। इला बेन बताती हैं, “हमारे घर में कोई नौकर-चाकर नहीं थे। माँ ही सभी काम करती थीं। घर का सारा काम करने के बाद भी वे बाहर के काम के लिए अपना समय निकाल लेती थीं।” माँ के बारे में इला बेन को इसलिए भी बहुत गर्व का अनुभव होता है कि वे सूरत की दूसरी महिलाओं की तरह रूढ़िवादी नहीं थीं और बदलते ज़माने के साथ महिलाओं को भी बदलने का सुझाव देती थीं। वे महिला क्लब भी जाती थीं।
ऐसे ही रोशन ख़याल परिवार में इला बेन का पालन-पोषण होने लगा। होश संभाला तो बहुत सारी विशेषताओं की मालिक शख्सियतें घर में ही मौजूद थीं। इला बेन का बचपन सूरत में बीता। माता-पिता ने उनका दाख़िला सूरत की म्युनिसिपल कन्या पाठशाला में करवाया गया। स्कूल घर के पास ही था और इला बेन अपनी दो बहनों के साथ स्कूल पढ़ने जाती थीं। उनकी स्कूली पढ़ाई गुजराती में ही हुई। एक ऐसे दौर में इला बेन ने स्कूल में क़दम रखा था, जब आज़ादी की जंग अपने पूरे शबाब पर थी। स्कूल के ज़माने की कई सारी घटनाएँ अब भी इला बेन के ज़हन में ताज़ा हैं। उन्हें याद है कि किसी तरह से गोलियाँ चलने की आवाज़ के बाद स्कूल को छुट्टी दे दी जाती थी। इला बेन जब स्कूल में थीं, तब आज़ादी की लड़ाई परवान चढ़ चुकी थी। हर तरफ आंदोलन हो रहे थे। लोग पूरी ताकत लगाकर अंग्रेज़ों को देश से बाहर करने की कोशिश में थे। सूरत में भी आज़ादी की लड़ाई दिन-ब-दिन ज़ोर पकड़ती जा रही थी। अक्सर पुलिस और स्वतंत्रता सेनानियों के बीच हिंसक झड़प भी होती थी। इला बेन ने उन्हीं दिनों की यादें ताज़ा करते हुए बताया, “हर तरफ़ आज़ादी की ही बातें थी। लोग गाँधीजी की बातें करते थे, भगत सिंह के चर्चे थे। गोलीबारी की आवाज़ें जैसे रोज़ के जीवन का हिस्सा थीं।”
इला बेन जब स्कूल में थीं, तभी देश को आज़ादी मिल गयी थी। आज़ादी के जश्न का दिन भी उन्हें याद हैं। लेकिन, उस दिन स्कूल में मातम छा गया था, जब गाँधीजी की हत्या हुई थी। इला बेन को भी बहुत दुःख हुआ था। दुःख की उस घड़ी में इला बेन ने अपने नायक महात्मा गांधी पर एक कविता भी लिखी थी। वो कविता पढ़कर स्कूल के संस्कृत अध्यापक इतना प्रभावित हुए थे कि उन्होंने सभी छात्राओं के सामने इला बेन से वो कविता पढ़वाई थी।
हालाँकि इला बेन ने सीधे आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था, लेकिन उनकी हिस्सेदारी कम भी नहीं थीं। उन्होंने स्वतंत्रता-सेनानियों की खूब मदद की थी। जब कभी वे अपने नाना और मामा के यहाँ जातीं, तो उन्हें आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान देने का मौका मिलता था। इला बेन ने कहा, “मेरे नाना के घर पर अक्सर पुलिस की रेड पड़ती थी। नाना के घर से ही जुलूस निकला करते थे। पुलिस ने मेरे तीनों मामा को भी गिरफ्तार कर लिया था। एक दिन जब मैं घर पर थी, तब पुलिस की रेड पड़ गयी। मैं जानती थी कि घर पर एक बैन्ड (प्रतिबंधित) किताब है। बच्चे भी जानते थे कि वो बैन्ड है। जैसे ही मैंने देखा कि पुलिस आ गयी हैं मैंने झट से उस किताब को उठाया और उसे पूजा-घर में ले गयी। मैंने उस किताब को गीता, रामायण जैसी दूसरी धार्मिक किताबों के बीच छिपा दिया। पुलिस कभी भी इन धार्मिक किताबों को हाथ नहीं लगती थी और उस दिन भी वो हमारे घर से खाली हाथ ही चली गयी।”
इला को उस छोटी-सी उम्र में भी बड़ी ज़िम्मेदारी निभानी थी। आज़ादी का आंदोलन चरम पर था और हर व्यक्ति पर पुलिस की पैनी नज़र थी। स्वतंत्रता-सेनानियों के लिए आपस में विचारों का आदान-प्रदान करना और बैठकें कर आन्दोलनकारी कार्यक्रमों की रूप-रेखा बनाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में इला बेन की फुर्ती, उनकी बुद्धिमता आज़ादी के सेनानियों के बहुत काम आयी। गोपनीय चिट्ठियों को सही समय पर सही हाथों में पहुंचाने की ज़िम्मेदारी इला बेन को कई बार दी गयी। नाना और मामा, नाम और पता बताकर इला बेन को गोपनीय चिट्ठियाँ थमा देते थे और इला बेन उन चिट्ठियों को सही लोगों तक पहुंचा देती थीं। इला बेन साइकिल पर सवार होकर जाती थीं और राजनीतिक सन्देश पहुँचाने का अपना मिशन पूरा कर लौट आती थीं। लड़की थीं और उम्र में छोटी भी, इसी वजह से पुलिस को भी उन पर कभी शक नहीं हुआ। इला बेन अपना काम पूरे आत्म-विश्वास और बड़ी सफाई के साथ किया करतीं। पुलिस हर बार इला बेन के हाथों मात खा जाती थी। इला बेन बताती हैं, “बहुत रोमांचक थे वे दिन। गली-गली जाकर चिट्ठियाँ पहुंचाने में बहुत मज़ा आता था। वो दिन कुछ और ही तरह के थे। मैंने राष्ट्र-भक्ति के गीत सीखे थे और हमेशा उन गीतों को गाती गुनगुनाती रहती थी।” ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये’बचपन में इला बेन का सबसे पसंदीदा भजन हुआ करता था।
इला भट्ट ने आज़ादी की लड़ाई भी देखी और आज़ादी मिलने के उस दिन को भी देखा और जिया था, आज़ादी का जश्न मनाया था और देश में नव-निर्माण की प्रक्रिया को शुरू होते हुए भी देखा था। स्कूल के दिनों में ही इला बेन ने ठान ली थी कि वे भी भारत के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करेंगी। स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद इला बेन ने एमटीबी कॉलेज से आर्ट्स में ग्रेजुएशन की पढ़ाई की। ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई शुरू की। इला बेन बताती हैं, “हम तीन बहनें थीं। हमारा कोई भाई नहीं था। वकालत में परिवार की विरासत को आगे बढ़ाना था। हम तीनों बहनों में से किसी न किसी को तो वकील बनना ही था। सो मैंने कानून की पढ़ाई करने और वकील बनने का फैसला किया था।” कानून की पढ़ाई के लिए इला बेन ने सूरत के एक लॉ कॉलेज में दाखिला लिया और इसके बाद अहमदाबाद के सर एल.ए. शाह लॉ कॉलेज से आख़िरी साल की पढ़ाई पूरी की।
इला बेन ने अपनी पढ़ाई के दौरान हिन्दू क़ानून पर विशेष अध्ययन किया था और इसी क्षेत्र में उनके शानदार प्रदर्शन की वजह से उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। कुछ समय तक इला बेन ने श्रीमती नाथी बाई दामोदर ठाकरे वुमन यूनीवर्सिटी में विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी भी पढ़ाई थी। इला बेन जब कानून की पढ़ाई कर रहीं थी, तब उनके माता-पिता और शिक्षकों ने उनसे कहा था – ‘गाँवों में जाओ, वहाँ रहो, उनसे सीखो, सब की मदद करो, न्याय और अन्याय को समझो, संघर्ष भी करो और विकास भी।’ यहीं बातें इला बेन के लिए जीवन का मकसद बन गयीं। वे कहती हैं, “अपने परिवार से जो संस्कार मिले उसी ने मुझे लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश करने को प्रेरित किया।ज़िंदगी का रास्ता चुनने में भी मुझे दिक्कत नहीं हुई। गांधीजी ने रास्ता दिखाया था, उन्होंने कहा था कि नया देश बनाना है। मैंने भी देश के लिए ही काम करने का फैसला कर लिया था।”
देश-निर्माण में समर्पित होने के इरादे से इला बेन ने लोगों की स्थिति-परिस्थिति को जानने-समझने की कोशिश शुरू की। वे कई लोगों से मिलीं, लोगों की समस्याओं को समझना शुरू किया। इला बेन ने देश में ग़रीबी के कारणों का भी पता लगाना शुरू किया। कानून की पढ़ाई करते हुए उन्होंने लोगों को संविधान के तहत मिले अलग-अलग अधिकारों के बारे में भी जाना। अपनी कोशिशों से इला बेन को दो बातों का अहसास हो गया – पहला, कई लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं और इसकी एक बड़ी वजह ये है कि लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी ही नहीं है। दूसरा – अगर ग़रीब लोगों को मौका दिया जाय तो वे काम करने और अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने में सक्षम होंगे। मौका न मिलने और शोषण का शिकार होने की वजह से कई लोग ग़रीब बनकर ही जी रहे हैं। इस अहसास के बाद इला बेन ने फैसला कर लिया कि लोगों को उनके अधिकार दिलाना और ग़रीबी दूर करने के लिए ज़रूरतमंदों की मदद करना ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य होगा। इसी मकसद से वे टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन(कपड़ा कामगार संघ) से जुड़ गयीं। कानून की डिग्री लेते ही उन्होंने मज़दूर संगठन में सक्रीय भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। इला बेन कानून की जानकार थीं,उन्हें कानूनी मामले देखने और संभालने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। मजदूरों की तनख्वाह, उनके बोनस की अदायगी जैसे मामले देखने, समझने और सुलझाने की ज़िम्मेदारी इला बेन के कंधों पर थी।
संगठन में काम करते हुए इला बेन ने कानूनी लड़ाईयाँ लड़ीं और मजदूरों को इंसाफ दिलवाना शुरू किया, लेकिन उनकी बड़ी लड़ाई संगठन में मौजूद रूढ़िवादी ताकतों से भी थी। इला बेन चूँकि सूरत में पली-बढ़ी थीं, उन पर वहाँ की संस्कृति का ज्यादा प्रभाव था और सूरत के लोगों पर मुंबई की संस्कृति और रहन-सहन का प्रभाव था। इला बेन बताती हैं, “मैंने जब कपड़ा कामगार संघ के लिए काम करना शुरू किया था, तब संगठन में महिलाएँ न के बराबर थीं। मैं उन दिनों पल्लू से अपना सर भी नहीं ढकती थी, इसी बात को लेकर संगठन के कई पुरुषों को आपत्ति थी। सूरत में महिलाएँ सिर नहीं ढकती थीं और बालों में फूल लगती थीं, लेकिन अहमदाबाद में लोग सूरत जैसे नहीं थे। शुरू में तो एक दो लोगों ने मुझे टोका भी, लेकिन मैंने उनकी नहीं सूनी।” बड़ी बात ये भी थी कि कपड़ा कामगार संघ के कर्मचारियों में इला बेन अकेली महिला थीं। कोर्ट में जब वे मजदूरों की ओर से दलीलें पेश कर रही होतीं तब भी वे कोर्ट में अकेली महिला होतीं।
इला बेन की बात केवल जागरूकता अभियानों तक सीमित नहीं रही। वो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की समर्थक थी। इला बेन खुद भी पुरुषों के समान मेहनत करती थीं। कपड़ा मज़दूरों के हितों की रक्षा के लिए वे कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहतीं। दूर-दूर तक कपड़ा मिलों में जाकर मज़दूरों से मिलतीं और उनकी समस्याएँ सुलझातीं। कुछ ही समय में उन्होंने पूरे अहमदाबाद में ‘कपड़ा मज़दूरों की आवाज़’ के तौर पर अपनी पहचान बना ली थी। चूँकि मज़दूरों के हक़ की लड़ाई के लिए उन्हें दूर-दूर तक जाना पड़ता, संगठन ने उन्हें स्कूटर भी दिलवा दिया। वे पूरे अहमदाबाद में स्कूटर चलाने वाली दूसरी महिला बनीं। ये वो समय था, जब इला बेन ने अपनी ताकत, काबिलियत, दृढ़ संकल्प, कानून के ज्ञान का परिचय देने के साथ-साथ अपनी नेतृत्व-क्षमता का भी परिचय देना शुरू कर दिया था। नेतृत्व की शानदार क्षमता को देखते हुए इला बेन को कपड़ा कामगार संघ की महिला इकाई का प्रभारी बना दिया गया। इसी दौरान इला बेन को इजराइल जाने का मौका मिला। इजराइल प्रवास के दौरान उन्हें एफ्रो एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ लेबर एण्ड को-आपरेटिव इन तेल अविव से काफी कुछ सीखने को मिला। इला बेन ने दुनिया के अलग-अलग देशों में मज़दूरों के हितों के लिए बने कानूनों का भी अध्ययन किया। ‘लेबर एंड कोआपरेटिव' में अंतर्राष्ट्रीय डिप्लोमा के साथ इला बेन इजराइल से भारत वापस लौटीं।
कपड़ा कामगार संघ के लिए काम करने के दौरान भी इला बेन ने कई नई बातें सीखीं और समझीं। मज़दूरों के हक़ की लड़ाई लड़ते हुए उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि देश के कानून में केवल उन लोगों को अधिकार दिए गए हैं जोकि जो संगठित क्षेत्र में काम करते हैं। संविधान में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले स्वरोज़गार लोगों के लिए कोई ख़ास प्रावधान नहीं हैं। इतना ही नहीं स्वरोज़गार लोगों के पास कोई संवैधानिक अधिकार भी नहीं हैं और कानून में उनके विकास और उनकी बेहतरी के लिए विशेष रूप से कोई प्रावधान भी नहीं है। इला बेन का ध्यान इस ओर भी गया कि कई सारी महिलाएँ भी स्वरोज़गार हैं और देश की प्रौढ़ आबादी में करीब 95 फीसदी लोग स्वरोज़गार पर ही निर्भर हैं। इला बेन ने बताया, “उन दिनों मैंने देखा कि देश में हज़ारों ऐसी आर्थिक प्रवृत्तियाँ हैं, जहाँ मालिक-मज़दूर का संबंध नहीं, जहाँ सेठ-नौकर का संबंध नहीं है। लाखों, करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो स्वयं रोज़गार करते हैं। मिलों और कारख़ानों में काम करने वालों के लिए तो देश में कानून बने हुए हैं, लेकिन इन स्वरोज़गारों के लिए कोई कानून नहीं है। मुझे इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि देश के सबसे बड़े श्रम-दल के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। ये बात भी मेरी समझ से बाहर थी कि दस से बारह घंटे काम करने वाले स्वरोज़गार पर निर्भर लोग आखिर ग़रीब क्यों रहते हैं? क्यों ये लोग भूखे पेट सोने को मजबूर होते हैं? मैं इन्हीं सवालों का जवाब ढूँढने लगी। मुझे पता चला कि देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग काम करने वाले करोड़ों स्वरोज़गार शोषण का शिकार होते हैं। मैं एक ठेलेवाले का उदहारण देती हूँ, ठेलेवाला जो अपना सामान बेचने के लिए बाज़ार जाता है, वहाँ उसे ट्रैफिक पुलिस तंग करते हैं और नगरपालिका लोग भी। इन दोनों से बचने के लिए उसे रिश्वत देनी पड़ती है। रिश्वत नहीं देने पर पुलिसवाले या तो उसे पीटते हैं या फिर उसका सामान उठाकर ले जाते हैं। दूसरे डिपार्टमेंट वाले भी अलग तंग करते हैं। मामला अगर कलेक्टर तक भी जाय तब भी इंसाफ नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा कोई कानून नहीं है, जिससे ठेलेवाले जैसे स्वरोज़गारों की मदद की जा सके। देश में स्वरोज़गार पर निर्भर लोगों के लिए न कोई कारगर नीति थी न ही कानून।” इला बेन ने ये बात भी गौर की थी कि कपड़ा मिलों में काम करने वाले कर्मचारियों और मज़दूरों के परिवार की कई महिलाएँ भी परिवार की आमदनी बढ़ाने के लिए दूसरी जगहों पर काम करती हैं। चूँकि उन्होंने स्वरोज़गारों के हक़ की लड़ाई लड़ने का बड़ा फैसला कर लिया था उन्होंने शुरुआत कपड़ा मिल मज़दूरों के परिवारों की महिलाओं से शुरुआत की। ईला भट्ट की कोशिशों का ही ये नतीजा था कि महिलाओं को कपड़ा कामगार संघ की महिला इकाई में सदस्यता दी जाने लगी।
इला बेन ने फिर एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने स्वरोज़गार महिलाओं को संगठित करने और उनके अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने की ठानी। 1970 में इला बेन से स्वरोज़गार महिलाओं को संगठित करने का काम शुरू किया। उस समय चाहे पुरुष हों या महिलाएं, सारे स्वरोज़गार असंगठित थे। सरकार से उन्हें किसी तरह की कोई मान्यता प्राप्त नहीं थी। उनकी अगुवाई करने वाला कोई नहीं था। न कोई यूनियन न कोई नेता। उनके अधिकारों के लिए कभी कोई तगड़ा आन्दोलन भी नहीं हुआ था। ऐसी स्थिति में इला बेन ने फैसला लिया था – स्वरोज़गारों को संगठित करने का, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन की अनुवाई करने का और स्वरोज़गारों को संवैधानिक अधिकार दिलाने का।
इसी फैसले को अमल में लाते हुए इला बेन ने 1972 में सेल्फ इम्प्लॉइड विमेंस एसोसिएशन एस. ई. डबल्यू.ए यानी स्वरोज़गार महिला संघ (सेवा) की स्थापना की। ये देश में स्वरोजगारों का पहला संगठन था। इस संगठन की शुरुआत कर इला बेन ने नया इतिहास रचा था। महिलाओं की मदद करते हुए उन्हें पूर्ण रूप से आत्म-निर्भर और स्ववालंबी बनाना ‘सेवा’ को शुरू करने का मुख्य लक्ष्य था। रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या को दूर करना था। महिलाओं की सामजिक और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करना था।‘सेवा’ के ज़रिए महिलाओं में उनके कौशल का विकास कर उनके अपने कारोबार को बढ़ाने में मदद करना भी एक बड़ा लक्ष्य था।
इला बेन ने बुलंद हौसलों और नेक इरादों के साथ स्वरोज़गार महिलाओं का संगठन तो बना लिया, लेकिन उनके सामने और भी कई बड़ी चुनौतियाँ थीं। पहली बड़ी चुनौती जो सामने आयी वो संगठन के पंजीकरण की थी। ट्रेड यूनियनों के रजिस्ट्रार ने संगठन का पंजीकरण करने से मना कर दिया। रजिस्ट्रार की दलील थी कि श्रमिक संगठन बनाना है तो पहले उस मालिक का नाम बताना होगा जहाँ संगठन की महिलाएँ नौकरी कर रही हैं। चूँकि संगठन की सारी महिलाएं अलग-अलग जगह काम करती थीं और स्वरोज़गार भी थीं, उनका कोई मालिक नहीं था। इला बेन ने बताया, “पंजीकरण के लिए भी हमें लड़ाई लड़नी पड़ी थी। हमने धरना-प्रदर्शन किया और दिल्ली भी गए। आन्दोलन करने के बाद ही रजिस्ट्रार ने हमारे संगठन का पंजीकरण किया।”
संगठन का पंजीकरण करवाने के बाद सदस्यों को आर्थिक रूप से मदद करने की बड़ी चुनौती सामने आयी। सारे बैंक स्वरोज़गारों को कर्ज़ देने के लिए तैयार नहीं थे। बैंक वालों को स्वरोज़गारों को कर्ज़ देना जोखिम भरा काम लगता था। इला बेन ने बताया, “उन दिनों स्वरोजगारों की कोई सुरक्षा नहीं थी। बैंक कर्ज़ देते नहीं थे, इसी वजह से लोग बाज़ार से कर्ज़ लेते थे। मैंने देखा था कि कई सारे लोग कर्ज़ में डूबे हुए थे। साहूकार उनका शोषण करते थे। एक दिन हमारे संगठन की एक बैठक में बैंक से कैसे कर्ज़ लिया जाय इस बात पर चर्चा हो रही थी, तभी चंदा बेन नाम की एक सदस्य ने कहा – क्यों न हम अपना बैंक खोल लें? मुझे वो सुझाव अच्छा लगा।” चंदा बेन के सुझाव को मानते हुए इला बेन ने सेवा को-ऑपरेटिव बैंक की नींव रखी, लेकिन इस बार भी पंजीकरण में कई सारी दिक्कतें पेश आयीं। को-ऑपरेटिव बैंकों के रजिस्ट्रार ने भी पंजीकरण से इन्कार कर दिया। भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी आपत्ति जताई। रिज़र्व बैंक के अधिकारियों की शिकायत में एक ये भी थी कि संगठन की ज्यादातर महिलाएँ अशिक्षित हैं और वे जब बैंक में खातेदार बनेंगी या फिर चुनाव जीतकर डायरेक्टर बनेगी तब बैंक कैसे चलाएँगी। इला बेन बताती हैं, “हमने फैसला लिया कि हम सारी बहनों को पढ़ना-लिखना भी सिखायेंगे। हमने दिन-रात मेहनत की। जब हमारी सदस्य हस्ताक्षर करना सीख गयीं तब हमने बैंक अधिकारियों से हमारे बैंक का पंजीकरण करने को कहा। बड़ी मुश्किल से हमारे बैंक का पंजीकरण हो पाया था।”
सेवा को-ऑपरेटिव बैंक ने काम करना क्या शुरू किया, महिलाओं की ज़िंदगी संवारनी शुरू हो गयी। महिला सदस्यों को कर्ज़ मिलने लगा और कर्ज़ की रकम से महिलाओं ने या तो नया कारोबार शुरू किया या फिर अपने पुराने कारोबार को विस्तार दिया। इस बैंक के ज़रिये ‘सेवा’ को शुरू करने का मुख्य लक्ष्य – यानी महिलाओं को संपूर्ण रोज़गार से जोड़ना, पूरा होने लगा। महत्वपूर्ण बात ये भी हैं कि सेवा और उनके सहकारिता बैंक ने हमेशा महिला सदस्यों की ज़रूरतों और मांगों के अनुसार काम किया है। संगठन और उससे जुड़ी अनुबद्ध संस्थाएँ महिला सदस्यों को आवास, बचत और ऋण, पेंशन तथा बीमा जैसी सेवाएं भी प्रदान करती है। यानी ‘सेवा’ मातृ संस्था है और ‘सेवा’ बैंक, गुजरात राज्य महिला सेवा सहकारिता संघ लि., ‘सेवा’ अकादमी, ‘सेवा’ पारिस्थितिकी पर्यटन, ‘सेवा’ निर्माण कंस्ट्रक्शन वर्कर्स कंपनी लि., लोक स्वास्थ्य, ‘सेवा’ इन्शुरन्स, ‘सेवा’ कलाकृति, ‘सेवा संस्कार केंद्र’ जैसी संस्थाएं सहयोगी संस्थाओं हैं। बड़ी खुशी के साथ इला बेन ने बताया, “हमारे संगठन में अब 18 लाख से ज्यादा सदस्य हैं। हमारा संगठन अब गुजरात के बाहर भी कई राज्यों में सक्रीय है। हमारे बैंक में 4 लाख खातादार हैं बैंक की वोर्किंग कैपिटल 300 करोड़ रुपये है। बैंक के हर साल 9 से 12 फीसदी का डिविडेंड भी दिया है।” ‘सेवा’ संगठन में दलित व अन्य पिछड़ी जातियों पिछड़ी और अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं की संख्या भी काफी बड़ी है। ‘सेवा’ ने इन्हीं महिलाओं के मन-मस्तिष्क में आत्मविश्वास,स्वाभिमान और एकता की भावना भरी है।
इला बेन के आंदोलन और उनके संघर्ष की बड़ी कामयाबी ये भी रही कि देश-भर के स्वरोज़गारों को पहचान मिली। सरकार को बाध्य होकर इस असंगठित क्षेत्र के लोगों को मान्यता देनी पड़ी। स्वरोज़गारों को भी संवैधानिक अधिकार मिले। इला बेन कहती हैं, “जिस दिन सरकार की ओर से स्वरोज़गारों को पहचान पत्र दिए गये, उस दिन मुझे बहुत खुशी हुई। इस बात की मुझे ज्यादा खुशी थी कि उन्हें भी सरकारी योजनाओं से जोड़ा गया था और वे भी पांच सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के हकदार बने। वे अब बीमा और स्वास्थ सुविधाओं का लाभ उठा सकते।”
एक सवाल के जवाब में इला बेन ने कहा, “जो लोग ताकतवर हैं, चाहे आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक रूप से या फिर राजनीतिक रूप से, जब तक उन लोगों की ग़रीब लोगों के प्रति मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक गरीबी दूर नहीं होगी। ये लोग ग़रीब के बारे में नहीं सोचते। खाना खाते समय लोगों को ये सोचना चाहिए कि जो रोटी वे खा रहे हैं वो किस खेत की है, किस किसान ने उस रोटी का गेहूँ उगाया है। किसने और कैसे उस गेहूं को लादकर बाज़ार में लाया है। जब ताक़तवर लोग इन सभी लोगों के बारे में सोचेंगे और इनकी भलाई के लिए काम करेंगे तभी गरीबी दूर होगी।”
कई कामयाब और ऐतिहासिक आंदोलनों की अगुवाई कर चुकीं इला बेन कहती हैं कि सच्चाई, ईमानदारी और अहिंसा से ही आंदोलन कामयाब हो सकते हैं। उन्होंने कहा, “लड़ाई –झगड़े से समस्या का हल नहीं निकालता। मारने-पीटने से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर आंदोलन मूल्यों पर आधारित हो तब ही वो कामयाब होता है। ईमानदारी और सच्चाई ऐसी होने चाहिए जहाँ दुश्मन अपने आप ही हार मान जाय और आंदोलन से ऐसी स्थिति पैदा करना चाहिए जहाँ अंत में दोनों पक्ष‘विन-विन सिचुएशन’ में रहें।
मौजूदा समय की महिला आंदोलनकारियों की बाबत पूछे गए एक सवाल के जवाब में इला बेन ने कहा, “मैं मानती हूँ कि आज की महिलाएँ बहुत बहादुर हैं। हमारे ज़माने की महिलाओं से कहीं ज्यादा मज़बूत हैं। मैं बस उन्हें एक ही सलाह दूंगी, मैं कहूंगी – जीवन में सादगी को अपनाओ, जीवन के कई पप्रश्नों का हल सादगी में ही है। सादगी से जीवन कामयाब बनेगा।”
इला बेन शुरू से ही महात्मा गाँधी के विचारों से प्रेरित और प्रभावित रहीं हैं। सादगी ही उनका सबसे बड़ा आभूषण है। ज़िंदगी के हर काम में सादगी और स्वच्छता को पसंद करती हैं। वे आज भी खादी के कपड़े ही पहनती हैं। अहिंसा में उनका अटूट विश्वास है। सच्चाई और ईमानदारी ही उनका सबसे बड़ा अस्त्र हैं। 83 साल की हो चुकी हैं, लेकिन अब भी अपने सारे काम खुद ही करती हैं। इंसाफ की लड़ाई में हार न मानने का ज़ज्बा अब भी उनमें पूरी शिद्दत के साथ बरकरार है।
इला बेन की एक बड़ी ख़ासियत ये भी है कि वे नाइंसाफी बर्दाश्त नहीं कर सकती। माता-पिता से मिले संस्कारों की वजह से वे नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़ने से बिलकुल नहीं घबराती। उनके विचार और सिद्धांत बिलकुल स्पष्ट हैं। उनकी लड़ाई नाइंसाफी के खिलाफ और ज़रूरतमंदों को रोटी, कपड़ा और मकान मिले इसके लिए संघर्ष की बड़ी मिसाल है।
80 के दशक में जब गुजरात में आरक्षण को लेकर आंदोलन शुरू हुए थे तब इला बेन ने पिछड़ी जातियों के ज़रूरतमंद लोगों के लिए आरक्षण का समर्थन किया था। उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की थी कि उनके खुद के समाज के लोग भी उनके विरोधी हो जाएंगे। इला बेन का विश्वास था कि आरक्षण की वजह से पिछड़ी जाति के लोगों को शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अवसर मिलेंगे और इससे उनकी सामजिक और आर्थिक स्थिति सुधरेगी। पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के समर्थन में खुलकर आ जाने के बाद इला बेन के पड़ोसियों ने ही उनके घर पर हमले करने शुरू कर दिए थे। कई सारे उनके रिश्तेदार भी उनके खिलाफ़ हो गए थे। इला बेन को तरह-तरह की धमकियाँ भी दी गयी थी, लेकिन सिद्धांतों की पक्की इला बेन न रुकीं और न किसी के सामने झुकीं। शुरू से ही कपड़ा कामगार संघ और उसकी महिला इकाई के बीच सैद्धांतिक मतभेद थे और आरक्षण-विरोधी दंगों और आन्दोलनों के दौरान ये मतभेद चरम पर जा पहुंचे। इसके बाद महिला इकाई ने अपनी अलग पहचान बनाने का फैसला कर लिया था और फिर स्वरोजगार महिला संघ यानी ‘सेवा’ की नींव पड़ी और महिला सशक्तिकरण के लिए एक नए आन्दोलन का आग़ाज़ हुआ।”
इंसानियत को सबसे बड़ा धर्म मानने वाली इला बेन ने हमेशा लोगों से जात-पात, धर्म-प्रांत, रंग-रूप को भूलकर नाइंसाफी के खिलाफ जंग लड़ने की सीख दी है। इला बेन ने महिलाओं का जो संगठन बनाया है उस पर उसकी सभी सदस्यों को बहुत गर्व है। गुजरात में जब कभी दंगे हुए और जब कभी हमलों से बचने के लिए लोग अपने घर छोड़कर भागे तब वे सेवा बैंक की अपनी पास बुक को अपने साथ लेना नहीं भूले। लोग दूसरी चीज़ें छोड़ने को तो राज़ी थे, लेकिन सेवा बैंक की पास-बुक को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सेवा बैंक की पास-बुक लोगों के लिए कितने मायने रखती है। इला बेन ने दंगों और हिंसा का शिकार हुईं महिलाओं के पुनर्वास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दंगों के बाद पीड़ितों के लिए बनाये गए राहत शिविरों में घूम घूम कर इला बेन ने अपनी ओर से हर मुमकिन मदद की। कई बार तो इला बेन ने खुद आगे बढ़कर दंगईयों को हंगामा करने से रोका।
इला बेन ने शादी भी अपनी मर्जी से की थी। 1956 में इला बेन की शादी रमेश भट्ट से हुई। दोनों का प्रेम-विवाह था। इला बेन के माता-पिता शुरू में इस शादी के खिलाफ थे। इसकी वजह भी साफ़ थी – आर्थिक रूप से रमेश का परिवार उतना संपन्न नहीं था जितना कि इला बेन का परिवार था। रमेश के पिता टेक्सटाइल वर्कर थे। इला बेन के माता-पिता चाहते थे कि वे अपनी बेटी की शादी अपने से ज्यादा संपन्न परिवार में करें। लेकिन, इला बेन को रमेश से मुहब्बत हो गयी थी और उन्होंने ये फैसला कर लिया था कि वे रमेश के सिवाय किसी और को अपना जीवन-साथी नहीं बनायेंगी। रमेश और इला बेन की मुलाकात कॉलेज के दिनों में हुई थी। दोनों एक ही क्लास में थे। रमेश की छात्रों के बीच अच्छी पैठ थी और वे लोकप्रिय छात्र नेता भी थे। रमेश भी समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के पक्षधर थे। वे समाजवाद की ‘नयी विचारधारा’ से प्रभावित थे। इला बेन को न सिर्फ रमेश के विचार पसंद आये बल्कि उनके व्यक्तित्व से भी वे बहुत प्रभावित हुईं। रमेश को जब आज़ाद भारत में हुई पहली जनगणना में आंकड़े जुटाने का काम मिला था जब उन्होंने इला बेन को भी अपने साथ लिया। दोनों ने सूरत की झुग्गी-बस्तियों में जनगणना का काम किया। इसी काम के दौरान इला बेन को झुग्गी-बस्तियों में रहने वालीं महिलाओं की समस्याओं और मुसीबतों को देखने, जानने और समझने का भी मौका मिला था। गरीब महिलाओं के दुःख-दर्द ने इला बेन को इतना झकझोर कर दिया था कि उन्होंने वहीं पर महिलाओं के उत्थान और विकास के लिए काम करने का संकल्प के लिया। इस तरह से रमेश ने इला बेन को कई नयी बातें बताई और सिखाई थीं।
शुरू में तो इला बेन के परिवारवालों ने शादी के लिए कड़ा ऐतराज़ जताया था लेकिन जिस तरह का प्यार दोनों में था उसके आगे सभी को झुकना पड़ा था। इला बेन और रमेश का विवाह 1956 में हुआ। और, विवाह समारोह भी इला बेन और रमेश की जीवन-शैली की तरह ही बिलकुल सादगी भरा था। रमेश और इला भट्ट को दो संतानें हुईं – पहले लड़की हुई जिसका नाम अमीमयी रखा गया और फिर बेटा हुआ जिसका नाम मिहिर रखा गया।
इला बेन की सेवा सिर्फ गुजरात, या फिर भारत तक ही सीमित नहीं रही। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महिलाओं को और भी ताक़तवर बनाने के लिए खूब मेहनत की। ईला भट्ट ने 1979 में ईस्थर ओक्लो और मिशैला वाल्श के साथ मिलकर ‘वुमन वर्ल्ड बैंकिग’ नाम की संस्था की भी स्थापना की थी। वे साल 1980 से 1988 तक इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था की अध्यक्ष रहीं। ये संस्था भी ‘सेवा’ की तरह ही काम करती है। ‘वुमन वर्ल्ड बैंकिग’ संस्था का भी मक़सद ग़रीब और ज़रूरतमंद महिलाओं की आर्थिक रूप से मदद करते हुए उन्हें स्वरोज़गार बनाना है, या फिर स्वरोज़गार होने पर महिलाओं में कौशल-विकास कर उनके कारोबार को विस्तार देना है।
महिलाओं के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने, उन्हें संगठित करके उनकी ताक़त बढ़ाने, ग़रीब और ज़रूरतमंद महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई का नेतृत्व करने जैसे साहसी, अद्वितीय और प्रभावशाली कार्यों के लिए इला बेन को देश और दुनिया में कई बड़े सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। गज़ब की नेतृत्व क्षमता का परिचय देने के लिए इला भट्ट को साल 19 77 में ‘सामुदायिक नेतृत्व श्रेणी’ में 'मेग्सेसे पुरस्कार' दिया गया। साल 1984 में उन्हें स्वीडन की संसद ने 'राइट लिवलीहुड' अवार्ड प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए 1985 में 'पद्मश्री' की उपाधि से नवाज़ा। अगले साल ही यानी 1986 में उन्हें भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' से भी अलंकृत किया । 2001 में हावर्ड यूनीवर्सिटी ने उन्हें 'आनरेरी डॉक्टरेट' की डिग्री प्रदान की। इसके बाद येल, बड़ौदा व अन्य विश्वविद्यालयों ने भी उन्हें साल 2010 में जापान के प्रतिष्ठित 'निवानो शांति पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया। इला बेन को 20 11 में शांति, निरस्त्रीकरण व विकास के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार भी मिला। इला भट्ट राज्य सभा की सदस्य भी रह चुकीं हैं। उन्होंने भारतीय योजना आयोग में सदस्य के तौर पर भी काम करते हुए महिलाओं के उत्थान और विकास के लिए नयी-नयी योजनाएँ बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एक सवाल के जवाब में इला बेन ने कहा, “मैं कभी भी कामयाबी के परिप्रेक्ष्य में नहीं सोचती। विफलता के बारे में भी नहीं सोचती। मैं बस इसी बात पर ध्यान देती हूँ कि जिस रास्ते पर मैं चल रही हूँ, वो सही है या नहीं, भले ही देर हो, लेकिन मंज़िल तक पहुँचने वाला रास्ता सही होना चाहिए।
इला बेन से हमारी विशेष भेंट-वार्ता अहमदाबाद में उनके आवास पर हुई थी। इस भेट-वार्ता के दौरान एक सन्दर्भ में मैंने उन्हें ‘मैडम’ कहकर संबोधित किया था। इस पर इला रमेश भट्ट ने कहा था – 'अगर आप मुझे बेन कहेंगे तो बहुत खुशी होगी'।