दसवीं क्लास फेल कवि के गीतों से गूंजा पूरा देश
अपनी ओजस्वी रचनाओं से बेतिया (बिहार) के कवि गोपाल सिंह नेपाली हमेशा हिंदी साहित्य प्रेमियों के दिल पर राज करते रहेंगे। उन्हें जितना अपने देश से प्रेम था, उतना ही हिंदी भाषा से। 11 अगस्त को नेपाली जी का जन्मदिन होता है। एक कविसम्मेलन में जाते समय मात्र 55 वर्ष की उम्र में उनका बिहार के एक रेलवे प्लेटफार्म पर निधन हो गया था।
निर्माता-निर्देशक के तौर पर उन्होंने तीन फीचर फिल्मों- नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था। ‘नाग पंचमी’, ‘नवरात्रि’, ‘नई राहें’, ‘जय भवानी’, ‘गजरे’, ‘नरसी भगत’ आदि फिल्मों के लिए उन्होंने गाने लिखे।
बेतिया (बिहार) से देश-प्रसिद्ध हुए नेपाली मूल के कवि गोपाल सिंह नेपाली का आज (11 अगस्त) जन्मदिन है। उनके जन्म का नाम गोपाल बहादुर सिंह था। बाद में वह कविसम्मेलनों के मंचों से छा गए। कविताएं वह गोपाल सिंह नेपाली के नाम से लिखते रहे। एक ओर तो उनकी कविताओं ने पूरे हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, दूसरी तरफ नेपाली जी की स्कूली योग्यता ने भी लोगों को अचंभित किया। वह 10वीं क्लास फेल थे, जिस पर किसी को यकीन नहीं होता था कि उनकी साहित्य साधना ने इतनी कम स्कूली शिक्षा की लक्ष्मण रेखा को आखिर कैसे पार किया होगा। उनकी कविताओं ने देश ही नहीं, दुनियाभर में धूम मचाई। उनकी देशभक्ति भी असंदिग्ध रही। 'मेरा देश बड़ा गर्वीला' गीत में वह लिखते हैं -
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली।
नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली।
यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की,
सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की,
शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डगर नुकीली।
आन कठिन भारत की लेकिन, नर-नारी का सरल देश है
देश और भी हैं दुनिया में, पर गाँधी का यही देश है,
जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली।
लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा
सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली।
गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 को हुआ था। वह अपने दादा के साथ नेपाल से रोजीरोटी की तलाश में आकर बिहार में बस गए थे। उनके दादा बेतिया के छापेखाने में काम करते थे। उनके पिताजी फौजी थे। वह जहां-जहां स्थानांतरित होते रहे, उनके साथ-साथ नेपाली जी को भी देश भ्रमण का अवसर मिलता रहा। नेपाली जी एक कविता की पंक्ति - 'पीपल के पत्ते गोल-गोल, कुछ कहते रहते डोल-डोल' कवि जयशंकर प्रसाद नहाते समय अक्सर गुनगुनाया करते थे। पहली बार नेपाली जी की कविता सुनने के बाद उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने कहा था- 'बरखुर्दार क्या पेट से ही कविता सीखकर पैदा हुए हो?' नेपाली जी ने पत्रकारिता भी की। वह चार पत्रिकाओं रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी के संपादक के रहे। 17 अप्रैल 1963 को कवि सम्मेलन में भाग लेने जाते समय भागलपुर रेलवे स्टेशन पर हृदयगति रुकने से उनका मात्र 52 वर्ष की उम्र में स्वर्गवास हो गया। नेपाली जी का एक प्रसिद्ध गीत है- 'मेरा धन है स्वाधीन कलम' -
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम।
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम।
वर्ष 1944 में नेपाली जी फिल्मों में लिखने के लिए मुंबई चले गए। वर्ष 1963 तक उन्होंने फिल्मों के लिए काम किया। इसी दौरान उन्होंने ‘हिमालय फिल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स’ की स्थापना की। निर्माता-निर्देशक के तौर पर उन्होंने तीन फीचर फिल्मों- नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था। ‘नाग पंचमी’, ‘नवरात्रि’, ‘नई राहें’, ‘जय भवानी’, ‘गजरे’, ‘नरसी भगत’ आदि फिल्मों के लिए उन्होंने गाने लिखे। उनके पुत्र कुल सिंह नेपाली कहते हैं कि ऑस्कर विजेता फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' का गाना 'दो घनश्याम...' की रचना नेपाली जी की है। इसके लिए उन्होंने कोर्ट में याचिका भी दायर की थी। उन्होंने फिल्मों में लगभग चार सौ धार्मिक गीत लिखे। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान नेपाली ने बॉर्डर पर जाकर सैनिकों के लिए कविता पाठ किया था -
शंकर की पुरी, चीन ने सेना को उतारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा
हो जाय पराधीन नहीं गंग की धारा
गंगा के किनारों ने शिवालय को पुकारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
अम्बर के तले हिन्द की दीवार हिमालय
सदियों से रहा शांति की मीनार हिमालय
अब मांग रहा हिन्द से तलवार हिमालय
भारत की तरफ चीन ने है पाँव पसारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
कह दो कि हिमालय तो क्या पत्थर भी न देंगे
लद्दाख की तो बात क्या बंजर भी न देंगे
आसाम हमारा है रे! मर कर भी न देंगे
है चीन का लद्दाख तो तिब्बत है हमारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
भारत से तुम्हें प्यार है तो सेना को हटा लो
भूटान की सरहद पर बुरी दृष्टि न डालो
है लूटना सिक्किम को तो पेकिंग को संभालो
आज़ाद है रहना तो करो घर में गुज़ारा।
नेपाली जी की प्रमुख काव्य कृतियां हैं - उमंग, पंछी, रागिनी तथा नीलिमा, पंचमी, सावन, कल्पना, आंचल, नवीन, रिमझिम और हमारी राष्ट्र वाणी। कविता के क्षेत्र में नेपाली ने देश प्रेम, प्रकृति प्रेम, तथा मानवीय भावनाओं का सुंदर चित्रण किया है। हिंदी दिवस पर नेपालीजी की कविता ‘हिंदी है भारत की बोली’ आज भी हमारे भाषा-प्रेम को उत्साहित करती है। यह कविता उन्होंने अप्रैल, 1955 में लिखी थी। यह कविता आज साढ़े छह दशक बाद भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है -
हिंदी है भारत की बोली
दो वर्तमान का सत्य सरल,
सुंदर भविष्य के सपने दो।
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो।
यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,
लाखों मुखड़ों की भाषा है
थी अमर शहीदों की आशा,
अब जिंदों की अभिलाषा है
मेवा है इसकी सेवा में,
नयनों को कभी न झंपने दो।
श्रृंगार न होगा भाषण से
सत्कार न होगा शासन से
यह सरस्वती है जनता की
पूजो, उतरो सिंहासन से
तुम इसे शांति में खिलने दो।
इसमें मस्ती पंजाबी की,
गुजराती की है कथा मधुर
रसधार देववाणी की है,
मंजुल बंगला की व्यथा मधुर
साहित्य फलेगा फूलेगा
पहले पीड़ा से कंपने दो।
नेपालीजी की काव्य प्रतिभा बचपन से ही परिलक्षित होने लगी थी। उन्होंने जब होश संभाला, चंपारण में महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन चल रहा था। उन्ही दिनों पंडित कमलनाथ तिवारी, केदारमणि शुक्ल और राम रिषिदेव तिवारी के नेतृत्व में भी इस आंदोलन के समानान्तर एक आंदोलन चल रहा था। नेपाली इस दूसरी धारा के ज्यादा करीब थे। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपाली की पहली कविता ‘भारत गगन के जगमग सितारे‘ 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई। एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर उनके एक गीत को सुनकर गद्गद हो गए। नेपाली जी के गीतों की उस दौर में धूम मची हुई थी लेकिन उनकी माली हालत खराब थी।
वह चाहते तो नेपाल में उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्था हो सकती थी क्योंकि उनकी पत्नी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से ताल्लुक रखती थीं लेकिन उन्होंने बेतिया में ही रहने का निश्चय किया। संयोग से नेपाली को आर्थिक संकट से निकलने का एक रास्ता मिल गया। वर्ष 1944 में वह अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुम्बई गए। उस कवि सम्मेलन में फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी भी मौजूद थे, जो उनकी कविता सुनकर बेहद प्रभावित हुए। यही से नेपालीजी का फिल्मी करियर शुरू हुआ था। वह आजीवन अपनी रचनाओं से देशवासियों को जगाते, ललकारते रहे। उनका एक ऐसा ही गीत द्रष्टव्य है, 'यह दिया बुझे नहीं' -
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार-द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो जोर का बहाव हो,
आज गंग-धार पर यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है।
यह अतीत कल्पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भावना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं,
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है।
तीन-चार फूल है, आस-पास धूल है,
बाँस है -बबूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर दे, फूँक दे, चकोर दे,
कब्र पर मजार पर, यह दिया बुझे नहीं,
यह किसी शहीद का पुण्य-प्राण दान है।
झूम-झूम बदलियाँ चूम-चूम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रहीं हलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो, यातना विशेष हो,
क्षुद्र जीत-हार पर, यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है।
उत्तर छायावाद के जिन कवियों ने कविता और गीत को संवेदनशील साहित्य अनुरागियों का कंठहार बनाया, उनमें नेपालीजी तब भी लोकप्रिय थे और आज भी स्मरणीय हैं। उनका जीवन जितना विकट रहा, दृष्टि उतनी ही पैनी। उनके एक-एक शब्द, कविता की एक एक पंक्ति पूरा का पूरा वांछित दृश्य पलभर में आंखों के सामने चित्रित कर देती थी -
अफ़सोस नहीं इसका हमको, जीवन में हम कुछ कर न सके।
झोलियाँ किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके।
अपने प्रति सच्चा रहने का, जीवन भर हमने काम किया।
देखा-देखी हम जी न सके, देखादेखी हम मर न सके।
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