दो दशकों से लाइलाज बीमारी पर शोध कर रहा यह भारतीय वैज्ञानिक, पूरी दुनिया ने माना लोहा
किसी गंभीर बीमारी के लिए जब किसी दवाई का आविष्कार होता है तो पीड़ितों के लिए वह एक राहत होती है और आमजनों के लिए सिर्फ एक खबर। क्या हमने कभी गौर किया कि इन आविष्कारों के पीछे कितने सालों का शोध होता है और वैज्ञानिक अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इन शोधों के लिए दे देते हैं। आज हम एक ऐसे ही भारतीय मूल के केमिकल इंजीनियर के बारे में बात कर रहे हैं, जो स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं और लगभग दो दशकों से एक लाइलाज बीमारी का इलाज ढूंढने के लिए शोध कर रहे हैं।
चैतन खोसला, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के गैस्ट्रोएंटरोलॉजी के प्रोफेसर गैरी ग्रे के साथ मिलकर लंबे समय से सीलिएक रोग का इलाज ढूंढने की कोशिश में लगे हुए हैं। उनकी टीम को काफी हद तक सफलता भी मिली है। खोसला की रिसर्च टीम की ओर से सबसे पहला महत्वपूर्ण योगदान 2001 में सामने आया था, जब उनकी टीम ने अपना रिसर्च पेपर पब्लिश किया।
किसी गंभीर बीमारी के लिए जब किसी दवाई का आविष्कार होता है तो पीड़ितों के लिए वह एक राहत होती है और आमजनों के लिए सिर्फ एक खबर। क्या हमने कभी गौर किया कि इन आविष्कारों के पीछे कितने सालों का शोध होता है और वैज्ञानिक अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इन शोधों के लिए दे देते हैं। आज हम एक ऐसे ही भारतीय मूल के केमिकल इंजीनियर के बारे में बात कर रहे हैं, जो स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं और लगभग दो दशकों से एक लाइलाज बीमारी का इलाज ढूंढने के लिए शोध कर रहे हैं। 53 वर्षीय इस केमिकल इंजीनियर का नाम है, चैतन खोसला। चैतन, सीलिएक रोग के सटीक इलाज पर लंबे समय से रिसर्च कर रहे हैं। फिलहाल यह एक लाइलाज बीमारी है और चैतन का शोध, इस बीमारी पर हो रही अडवांस रिसर्च में बड़ा योगदान दे रहा है। चैतन ने 1985 में बॉम्बे आईआईटी से केमिकल इंजीनियरिंग में ग्रैजुएशन पूरा किया। 1990 में उन्होंने कैलिफोर्निया इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से अपनी पीएचडी की। फिलहाल, चैतन्य स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में केमिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हैं।
चैतन्य मानते हैं कि इस बीमारी पर रिसर्च उनके लिए सिर्फ एक करियर या प्रोफेसन से जुड़ा मुद्दा ही नहीं है बल्कि इसके साथ उनका एक व्यक्तिगत पहलू भी जुड़ा हुआ है क्योंकि यह बीमारी उनके परिवार को भी प्रभावित कर चुकी है।
क्या है सीलिएक रोग?
इस बीमारी में आपका डाइजेस्टिव सिस्टम (पाचन तंत्र) प्रभावित होता है। हमारा शरीर ग्लूटेन नाम का प्रोटीन पचा नहीं पाता है। ग्लूटेन लगभग उन सभी खाद्य पदार्थों में पाया जाता है, जो आमतौर पर हम खाते हैं। जैसे कि गेहूं, जौ और राई आदि। यह बीमारी किसी भी उम्र के पुरुष या महिला को अपनी चपेट में ले सकती है। इस बीमारी की वजह से आपका शरीर कई और बीमारियों की चपेट में आ सकता है। खाना न पचा पाने की वजह से आपके शरीर में न्यूट्रीएंट्स (पोषक तत्वों) की कमी हो जाती है। इस कारण से आपको इनफर्टिलिटी, कैंसर, डायरिया, वजन में भारी कमी, ऐनीमिया, हड्डी संबंधी रोग और अक्सर कमजोरी का एहसास; जैसी बीमारियां भी घेर सकती हैं।
अब तक का हासिल
चैतन खोसला, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के गैस्ट्रोएंटरोलॉजी के प्रोफेसर गैरी ग्रे के साथ मिलकर लंबे समय से इस बीमारी का इलाज ढूंढने की कोशिश में लगे हुए हैं। उनकी टीम को काफी हद तक सफलता भी मिली है। खोसला की रिसर्च टीम की ओर से सबसे पहला महत्वपूर्ण योगदान 2001 में सामने आया था, जब उनकी टीम ने अपना रिसर्च पेपर पब्लिश किया। इस पेपर में ग्लूटेन की पूरी संरचना के बारे में बताया गया। साथ ही, इस बात को भी स्पष्ट किया गया कि हमारे शरीर को ग्लूटेन को पचाने में किस तरह की दिक्कतें पेश आती हैं और क्यों?
चैतन और उनकी टीम ने शोध में पाया कि हमारी आंतों (इन्टेस्टाइन) में ग्लूटेन को पचाने के लिए जरूरी एनजाइम्स की कमी की वजह से, शरीर इस बीमारी की चपेट में आ जाता है। यह उनकी टीम के लिए बड़ी सफलता थी। इसके बाद टीम ने दो तरह के एनजाइम्स पर रिसर्च की, जिनकी मदद से ग्लूटेन मॉलीक्यूल को पचाना संभव किया जा सके। टीम ने लैब में इन एनजाइम्स पर शोध किया और उन्हें सफलता भी हासिल हुई, लेकिन हमारी शरीर लैब से कहीं अधिक जटिल है और इसलिए अभी भी सफर बाकी है।
चैतन और उनके शोध को पूरे विश्व में सराहा जा रहा है। उन्हें अपने योगदान के लिए कई बार सम्मानित भी किया जा चुका है। उन्हें 1999 में ऐलन टी. वॉटरमैन अवॉर्ड, 1999 में ही द एली लिली अवॉर्ड इन बायोलॉजिकल केमिस्ट्री, 2000 में द एसीएस अवॉर्ड इन प्योर केमिस्ट्री और 2011 में द जेम्स ई. बैले अवॉर्ड मिल चुके हैं।
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