सेहत बचाने वाले चूल्हे बनाकर साई भास्कर गाँवों में महिलाओं की ज़िंदगी में भर रहे हैं नयी रोशनी
दो-दो पीजी की डिग्रियाँ हैं जेब में ... आईआईटी-मुंबई से भी की पढ़ाई ... डाक्ट्रेट की उपाधि भी की हासिल ... आसानी से मिल जाती किसी कॉर्पोरेट संस्था में नौकरी ... लेकिन, साई भास्कर ने ग्रामीण विकास को बनाया अपनी ज़िंदगी का मिशन ... अपने मकान के रसोई घर को बनाया प्रयोगशाला और बनाए सेहत बचाने वाले चूल्हे ... इन चूल्हों का इस्तेमाल कर हज़ारों महिलाएं उठा रही हैं लाभ ... खेतों की नमी नापने वाले सेंसर भी बनाए ... किसानों को बायोचार के इस्तेमाल से होने वाले फायदे भी बताये ... पानी पर धान की खेती करने के अपने सपने को साकार करने के लिए शुरू किये हैं नए प्रयोग
साई भास्कर रेड्डी का जन्म अपने नाना-नानी के गाँव में हुआ था। परंपरागत तरीके से प्रसव हुआ, लेकिन पैदा होने के कुछ की मिनटों में शिशु का शरीर ठंडा पड़ गया। नानी ने बच्चे के शरीर को गरम करने के लिए चूल्हे से ताप दिया था। चूल्हे की ताप की वजह से बच्चा फिर से सामान्य हो गया। शायद जन्म के कुछ ही मिनटों बाद मिली चूल्हे की वही गरमी ऊर्जा बनकर उनके दिल-दिमाग में उतरकर कहीं छिप गयी थी। बाद में वही गरमी और ऊर्जा जवानी में बाहर निकली और इसी ने साई भास्कर को स्वास्थ के लिए लाभकारी चूल्हे बनाने की ताकत दी।
बड़े होकर साई भास्कर रेड्डी ने जब अलग-अलग गाँवों में महिलाओं को पारम्परिक चूल्हों की वजह से तरह-तरह की परेशानियां झेलता हुए देखा तो उनका मन पसीज गया। साई भास्कर ने देखा कि पारम्परिक चूल्हों की वजह से महिलाएं बीमार पड़ रही हैं। चूल्हे से निकलने वाले काले कार्बन की वजह से महिलाओं के फेफड़े कमज़ोर पड़ रहे हैं। उनकी आँखों की रोशनी कमज़ोर हो रही है। चूँकि साई भास्कर काफी पढ़े-लिखे थे, उन्हें ये बात भी याद आयी कि एक घंटा लकड़ी के चूल्हे को जलाना 50 सिगरेट फूंकने के बराबर है। उन्हें इस बात की भी जानकारी थी कि गाँवों में इस्तेमाल में लाये जाने वाले पारम्परिक चूल्हों से जो धुवाँ निकलता है, उससे महिलाओं को कैंसर होने का खतरा भी रहता है। पारम्परिक चूल्हों की वजह से गाँव की महिलाओं को हो रहे नुकसान को देखकर साई भास्कर रेड्डी तिलमिला गए। उन्होंने ठान ली कि वे ऐसा कुछ करेंगे जिससे महिलाओं को चूल्हों से हो रहे नुकसान से बचाया जा सके। चूँकि विज्ञान की पढ़ाई की हुई थी, पर्यावरण के जानकार थे और मन से वैज्ञानिक भी, उन्होंने प्रयोग करने शुरू किये। प्रयोग में काफी समय लगा। मेहनत भी खूब लगी। मेहनत, लगन और पक्के इरादे का ही नतीजा था कि साई भास्कर रेड्डी ऐसे चूल्हे बनाने में कामयाब हो गए जिससे धुवाँ कम निकलता है और जो धुवाँ निकलता भी है वो सीधे खाना बना रही महिलाओं के शरीर पर नहीं आता। इस कामयाबी के बाद भी साई भास्कर रेड्डी ने प्रयोग जारी रखे और उन्होंने चूल्हों के 50 से ज्यादा ऐसे मॉडल बना लिए जिससे महिलाओं की सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता है।
तेलंगाना के वरंगल जिले के एक गाँव में बनी अपनी प्राकृतिक प्रयोगशाला में हुई एक विशेष भेंट-वार्ता में साई भास्कर रेड्डी ने अपने जीवन में अब तक किये अलग-अलग प्रयोगों और उनकी कामयाबी के लिए लगी मेहनत के बारे में बताया। साई भास्कर रेड्डी ने कहा,"मैंने देखा कि गाँवों में पारम्परिक चूल्हों की वजह से महिलाओं को बहुत नुकसान हो रहा है। रसोई-घर की हालत देखकर ही अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि चूल्हे कितना नुकसान पहुंचा सकते थे। गाँवों में हर रसोई-घर की हालत एक जैसी थी। चूल्हे से निकलने वाले धुएँ की वजह से रसोई-घर की दीवारें और छत पर ऐसी काली परत जम गयी थी कि उसे देखकर ही डर लगता था। मैंने अनुमान लगाया कि जब दीवार और छत की ये बुरी हालत हुई है तब महिलाओं के शरीर पर इस धुएँ का कितना बुरा असर हुआ होगा। अनुमान से ही मेरे होश उड़ गए। मैं बेचैन हो गया और मैंने अपनी बेचैनी दूर करने के इन महिलाओं की मदद करने के सोची "
साई भास्कर रेड्डी ने आगे कहा,
"मैंने पारम्परिक चूल्हों के बारे में अध्ययन करना शुरू किया। इस अध्ययन के दौरान मुझे पता चला कि पारम्परिक चूल्हों में लकड़ी जलाने पर आग कम लगती है और धुवाँ ज्यादा निकलता है। कायदे से तो लकड़ियों की आग से चूल्हे पर रखे बर्तन को ज्यादा गरमी मिलनी चाहिए लेकिन गाँवों में चूल्हों को ही ज्यादा गरमी मिल रही है। मुझे दो और बड़ी बातों का अहसास हुआ - पहली बड़ी बात ये थी कि पारम्परिक चूल्हों में हीट की रिटेंशन रेट ज्यादा थी। दूसरी बात ये थी कि इन चूल्हों को बनाते समय 'प्रिंसिपल्स ऑफ़ गुड कबसशन" का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था।"
अपना अध्ययन पूरा कर लेने और ठोस निष्कर्ष पर पहुँच जाने के बाद साई भास्कर रेड्डी ने प्रयोग शुरू किये। हैदराबाद में अपने मकान के रसोई-घर को ही प्रयोगशाला बनाया। प्रयोग के लिए ज़रूरी पुराने बर्तन, पुराने चूल्हे जैसे सामानों के लिए वे कबाड़ी-वाले के पास जाने लगे। कबाड़ी-वाले के पास जाने की दो ख़ास वजह थीं। पहली ये कि एक ही जगह उन्हें अपने प्रयोग के लिए ज़रूरी सारे सामान मिल जाते थे। और दूसरा ये कि सारे सामान सस्ते में मिलते थे। सारे सामान इकठ्ठा करने के बाद साई भास्कर रेड्डी ने रसोई-घर में प्रयोग शुरू किये। इन प्रयोगों से घर-वालों और पड़ोसियों को बहुत परेशानी हुई। साई भास्कर रेड्डी रात-रात भर चूल्हों पर प्रयोग करते थे। रसोई-घर से लगातार तरह-तरह की आवाज़ें आती रहती थीं, धुवाँ लगातार निकलता रहता था। सारा रसोई-घर कालिख की कोठरी बन गया था। साई भास्कर रेड्डी के प्रयोगों की वजह से घरवालों को न दिन में चैन था ना रात को सुकून। उनकी पत्नी इन प्रयोगों से इतना परेशान हो गयीं कि कुछ दिन के लिए वे सुसराल छोड़कर मायके चली गयीं।
उन दिनों की याद करते हुए साई भास्कर रेड्डी ने बताया,
"मुझपर एक जूनून सवार था। लेकिन मेरे परिवारवाले मेरे मकसद को नहीं समझ पा रहे थे। पत्नी को भी कुछ समझ में नहीं आया और वे घर छोड़कर मायके चली गयीं। पिता अक्सर कहते कि मैं पागल हो गया हूँ और अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ। उनके लिए ये हैरानी की बात थी कि खूब पढ़ा-लिखा उनका लड़का आखिर चूल्हों पर क्यों काम करता रहता है। माँ को लगता था कि मुझपर कोई भूत सवार हो गया।"
माँ ने तो एक दिन गुस्से में साई भास्कर रेड्डी की सारी प्रयोगशाला ही उजाड़ कर रख दी थी। किसी काम से कुछ दिनों के लिए साई भास्कर रेड्डी को घर से बाहर जाना पड़ा था। जब वे घर वापस लौटे तो देखा कि रसोई-घर से उनके सारे सामान गायब हैं। रसोई-घर एक दम साफ़ हो चुका है। उनके 'मेहनत की कालिका' भी साफ़ कर दी गयी थी। जांच-पड़ताल करने पर साई भास्कर रेड्डी को पता चला कि उनकी माँ ने सारा सामान कचरा-कुंडी में फ़ेंक दिया है और कालिका मिटाकर चूना लगा दिया है। इसके बाद साई भास्कर रेड्डी दौड़कर कचरा-कुंडी गए और वहां से सारा सामान उठाकर वापस घर लाया और प्रयोग फिर से चालू किये। माँ और दूसरे घरवालों के डर से इस बार साई भास्कर रेड्डी ने सारी सावधानियां बरतीं और उस समय तक घर छोड़कर नहीं गए जब तक उनके प्रयोग कामयाब नहीं हुए।
साई भास्कर रेड्डी को अपने प्रयोगों की वजह से बड़ी कामयाबी मिली थी। 'प्रिंसिपल्स ऑफ़ गुड कबसशन" का सही फायदा उठाते हुए वे ऐसे चूल्हे बनाने में कामयाब हुए थे, जिनसे गाँव की महिलाओं को बहुत फायदा होने वाला था। साई भास्कर रेड्डी के चूल्हों की सबसे बड़ी ख़ास बात ये थी कि इनमें से धुवाँ कम निकलता था आग खूब जलती थी। चूल्हे पर आग भी ऐसी जलती थी कि बर्तन ज्यादा गरम होता था ना कि चूल्हा। और तो और ये चूल्हे आसानी से बनाए जा सकते थे। इनकी कीमत भी सौ रुपये के अंदर ही थी। यानी गरीब लोग भी इसे आसानी से खरीद सकते थे। महत्वपूर्ण बात ये भी थी कि लोग खुद तकनीक सीखकर इन चूल्हों को खुद बना सकते थे।
साई भास्कर रेड्डी ने जनहित और लोक-कल्याण के मसकद से किफायती और फायदेमंद चूल्हों को बनाने की सारी तकनीक को सार्वजनिक कर दिया था। सारी जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध करवा दी थी । लेकिन साई भास्कर रेड्डी अच्छी तरह जानते थे कि गाँववाले इंटरनेट नहीं देखते। इसी वजह से उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को इन नए, किफायती, फायदेमंद और सेहत बचाने वाले चूल्हों के बारे में बताना शुरू किया। चूल्हा-जागरूकता अभियान के तहत वे कई गाँव गए। लोगों को उनके चूल्हे बहुत पसंद आये। साई भास्कर रेड्डी के चूल्हे हाथो-हाथ बिकने लगे। कई बार तो ऐसा हुआ कि कई अमीर,शिक्षित, समाज-सेवी लोगों ने साई भास्कर रेड्डी से चूल्हे खरीदे और उन्हें ले जाकर गाँवों में बांटा। अब साई भास्कर रेड्डी के इन्हीं चूल्हों का इस्तेमाल भारत के सोलह राज्यों के सैकड़ों गाँवों में किया जा रहा है। हज़ारों महिलाएं इन चूल्हों का इस्तेमाल कर फायदा उठा रही हैं।
साई भास्कर रेड्डी का कहना है कि गोबर गैस, बॉयो-गैस, केरोसिन और एलपीजी गैस के चूल्हों की तुलना में 'प्रिंसिपल्स ऑफ़ गुड कबसशन" के आधार पर बनाए गए ये चूल्हे ही लोगों और पर्यावरण के लिए ज्यादा फायदेमंद हैं। उनके मुताबिक, केरोसिन और एलपीजी गैस का दुबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। केरोसिन के चूल्हों से निकलने वाला काला कार्बन बहुत खतरनाक होता है। जबकि गोबर गैस के चूल्हों का मॉडल भारत में फेल हुआ है। गाँवों में आज भी लाखों ऐसे लोग हैं, जिनके पास गाय, भैंस, बकरी जैसे जानवर नहीं हैं और इन्हें गोबर आसानी से नहीं मिलता। जब कि लोगों को अपने चूल्हे जलाने के लिए लकड़ियां आसानी से मिल जाती हैं। इतना ही नहीं चूल्हों पर जलने के बाद लकड़ियों का जो कोयला बचता है, उससे भी गाँव के लोगों को फायदा मिलता है। साई भास्कर रेड्डी ने बताया कि उन्होंने कोयले पर भी प्रयोग किये। कोयले का इस्तेमाल बायोचार बनाने में करने से उसका पोषक तत्व बढ़ जाता है। साई भास्कर रेड्डी ने अपनी प्रयोगशाला में मिट्टी में चूल्हे को कोयला, वर्मिकम्पोशर और गुड का पानी मिलाकर बायोचार बनाया। इस बायोचार में मिट्टी की गुणवत्ता और उसके पोषक तत्व को बढ़ाने की ज़बरदस्त ताकत है। साई भास्कर रेड्डी के मुताबिक रासायनिक खाद के बजाय बायोचार के इस्तेमाल से खेतों में उपजने वाले खाद्य पदार्थ पूरी तरह से मानव शरीर के लिए सुरक्षित होते हैं।
साई भास्कर रेड्डी ने न सिर्फ चूल्हों और बायोचार पर ही प्रयोग किये हैं, बल्कि गाँवों में रहने वाले लोगों के फायदे और किसानों की भलाई के लिए उन्होंने और भी कई सारे प्रयोग किये और नयी और बेहद लाभकारी चीज़ों का आविष्कार किया। खेतों में नमी कितनी है? फसल के लिए कितने पानी की ज़रुरत है? खेत में पानी कब, कैसे और कितना डालना चाहिए? इन सवालों का जवाब देने वाले सेंसर भी साई भास्कर रेड्डी ने बनाए हैं। साई भास्कर रेड्डी के ये सेंसर आसानी से बनाये जा सकते हैं। इन्हें बनाने में खर्च भी बहुत कम होता है। विदेश से इस तरह के सेंसर भारत में आते तो हैं लेकिन इनकी कीमत लाखों में होती है।
किसानों और गाँव में रहने वालों की ज़िंदगी सुधारने के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले साई भास्कर रेड्डी ने प्रयोग रोके नहीं हैं। ये वैज्ञानिक इन दिनों पानी में धान की खेती करने के अपने सपने को साकार करने की कोशिश में लगा है। साई भास्कर रेड्डी को भरोसा है कि बाँध परियोजनाओं के पानी पर धान की खेती की जा सकती है और इससे भी लोगों को काफी फायदा पहुंचेगा। गाँव के लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए प्रयोग करने वाले वैज्ञानिक साई भास्कर रेड्डी पर्यावरण-संरक्षण के लिए आंदोलन करने वाले एक सक्रिय एक्टिविस्ट भी हैं। प्रोफेसर पुरुषोत्तम रेड्डी के साथ मिलकर इन्होंने पर्यावरण-संरक्षण से जुड़े कई मुद्दों को लेकर जन-आंदोलन किये हैं। साई भास्कर रेड्डी ने अलग-अलग कोर्ट में भी पर्यावरण-संरक्षण के लिए कानूनी लड़ाईयां लड़ी हैं। वे कई बड़े राष्ट्रीय मुद्दों में जाने-माने पर्यावरणविद और नामचीन वकील एम. सी. मेहता के लिए शोधकर्ता और सहायक के तौर पर भी काम कर रहे हैं।
पर्यावरण, प्रकृति, गाँव, नदी , तालाब, जंगल, पेड़-पौधे, पत्थर-पहाड़ जैसी चीज़ों से साई भास्कर रेड्डी का प्यार और लगाव बचपन से ही रहा है। बचपन के माहौल ने ही उन्हें गाँवों में रहने वाले लोगों की परेशानियां दूर करने वाली चीज़ों का आविष्कार करने वालावैज्ञानिक और पर्यावरण-संरक्षण के लिए लड़ने वाला आंदोलनकारी बनाया।
इस वैज्ञानिक और सामाजिक आंदोलनकारी का जन्म तेलंगाना राज्य के चेवेल्ला इलाके में अपने नाना-नानी के गाँव मामिडिपल्ली में हुआ। जन्म गाँव में ज़रूर हुआ लेकिन, सारी पढ़ाई-लिखाई शहरों में हुई। साई भास्कर रेड्डी का बचपन हैदराबाद के उप्पल इलाके में बीता। इसी इलाके में उनके पिता का दफ्तर था। पिता सर्वे ऑफ़ इंडिया में काम करते थे। साई भास्कर रेड्डी को घर के पास ही के केंद्रीय विद्यालय में दाखिल करवाया गया। स्कूल के आसपास जंगल था। इसी जंगल में खेलते-कूदते उनका बचपन बीता था। स्कूल के पास ही एक पहाड़ था जिसका नाम एलुगुगुट्टा था। इस पहाड़ में गुफाएँ थीं। साई भास्कर अकसर इन गुफाओं में लुक्का-छिप्पी का खेल खेलते थे। और तो और, घर के बिलकुल पास एक छोटी-सी झील भी थी और इसी झील में वे तैरते भी और मछलियां भी पकड़ते थे। साईं भास्कर कहते हैं,
"बचपन से ही मैं प्रकृति के बीच पला-बढ़ा था। पेड़-पौधों, जंगल-तालाब और पत्थरों ने बचपन से ही मुझे बहुत आकर्षित किया था। अब भी मैं इन्हीं के बीच रहना पसंद करता हूँ।"
साई भास्कर रेड्डी ने 1986 में दसवीं की पढ़ाई पूरी की थी। वे शुरू से ही औसत विद्यार्थी थे। दसवीं उन्होंने सेकंड क्लास में पास की थी। उनके पिता से ही उनके खानदान में पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत हुई थी। पिता से पहले सभी अशिक्षित थे। उनके पिता ने बारहवीं तक पढ़ाई की थी और इसके बाद उन्हें सर्वे ऑफ़ इंडिया में ड्राफ्ट्समैन की नौकरी मिली थी। नक़्शे बनना का काम था ड्राफ्ट्समैन का। दसवीं की पढ़ाई पूरे होने के बाद साई भास्कर रेड्डी ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए कॉलेज ढूंढना शुरू किया। एक दिन वे बीपीसी यानी बायोलॉजी, फिज़िक्स और केमिस्ट्री कोर्स में दाखिले के लिए एप्लीकेशन लेकर घर आये। जब पिता ने देखा कि एप्लीकेशन बीपीसी का है तब उन्होंने साई भास्कर रेड्डी को डांटा और एमपीसी कोर्स में दाखिला लेने की सख्त हिदायत दी। पिता को यकीन था कि बीपीसी की पढ़ाई कर उनका बेटा डॉक्टर नहीं बन सकता है। वे मानते थे बीपीसी कोर्स लेने से आगे पढ़ने के बहुत कम विकल्प मिलेंगे। वे चाहते थे कि उनका बेटा इंजीनियर बने। पिता के कहने पर साई भास्कर रेड्डी ने सेंट पीटर्स जूनियर कालेज में एमपीसी कोर्स में दाखिला ले लिया। इंटर की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने इंजीनियरिंग कालेजों की प्रवेश परीक्षा यानी एमसेट के लिए भी तैयारी शुरू कर दी।
इसी बीच उन्होंने एक ऐसी बात सुन ली जिससे उनकी ज़िंदगी बदल गयी। एक दिन कालेज में एक टीचर दूसरे बच्चे को बता रहे थे कि जियोलॉजी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को अलग-अलग जगह जाने और खूब घूमने-फिरने का मौका मिलता है। यात्राएं करने के लिए जियोलॉजी सबसे अच्छा विषय है। टीचर की ये बात साई भास्कर रेड्डी के मन में घांट बांधकर बैठ गयी। इसी वजह से उन्होंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद डिग्री में जियोलॉजी को ही मुख्य विषय चुना। 1988 में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय के पीजी कालेज ऑफ़ साइंस में दाखिला लिया।
यहाँ पर फिर उन्हें अपने बचपन जैसे दिन वापस मिल गए थे। हँसते-खेलते पढ़ाई हो रही थी। चूँकि मनचाहा विषय था साई भास्कर रेड्डी ने मन लगाकर पढ़ाई की। जियोलॉजी में साई भास्कर रेड्डी अव्वल नंबर भी लाने लगे। प्रतिभा और विषय में दिलचस्पी को देखकर कालेज के एक लेक्चरर डॉ के. नरेंदर रेड्डी ने साई भास्कर रेड्डी से कहा कि उन्हें आईआईटी में आसानी से दाखिला मिल जाएगा। चूँकि लेक्चरर ने एक रास्ता दिखाया था , साई भास्कर रेड्डी उसी पर चल पड़े। उन्होंने आईआईटी की प्रवेश परीक्षा लिखी और पहले ही एटेम्पट में सीट हासिल कर ली। बीएससी की डिग्री लेने के बात उन्होंने आईआईटी, मुंबई में एमएससी की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया। उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए साई भास्कर रेड्डी ने बताया, " मैं पहले कभी मुंबई नहीं गया था। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा देने के लिए ही मैं पहली बार मुंबई गया था। मेरे घर के पास एक शख्स रहते थे जो सरकारी बस यानी राज्य सड़क परिवहन निगम की बस चलाते थे। जब उन्हें पता चला कि मुझे मुंबई जाकर परीक्षा देनी है तब उन्होंने अपनी ड्यूटी मुंबई रुट पर डलवा ली थी। मैं उन्हीं के साथ सरकारी बस में मुंबई गया था। परीक्षा केंद्र - आईआईटी, मुंबई का आर्ट्स-साइंस ऑडिटोरियम था, लेकिन वहां पहुँचते ही मैं परेशान हो गया। मैंने जियोलॉजी विषय चुना था लेकिन मेरा नाम फिजिक्स में था। मैंने वहां पर मौजूद एक अधिकारी से इस बात की शिकायत की थी। उन्होंने मुझे जियोलॉजी में परीक्षा लिखने को कहा, तब जाकर मैंने राहत की सांस ली। मैंने परीक्षा लिखी और परीक्षा के कुछ ही घंटों बाद ये घोषणा हो गयी कि मैं पास हो गया हूँ। मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी। इसके बाद मैं हैदराबाद आया। मैं बहुत भावुक हो गया था। मैंने अपने पिता से कहा - अब आपको मेरी पढ़ाई के लिए खर्च नहीं करना पड़ेगा। सरकार खुद मेरी पढ़ाई का खर्चा उठाएगी। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि मेस की फीस ज्यादा थी, जो उन्हें ही भरनी पड़ी"
आईआईटी, मुंबई में एमएससी की पढ़ाई के दौरान ही साई भास्कर रेड्डी सिविल सर्विसेज एग्जाम के लिए तैयारी करने लगे। तैयारी में उन्होंने घण्टों लाइब्रेरी में पढ़ाई करते हुए बिताये। तैयारी करने के बाद जब उन्होंने सिविल सर्विसेज एग्जाम लिखा और जो परिणाम आये उससे उन्हें एहसास हो गया कि ज्ञान होना अलग बात है और सिविल सर्विसेज एग्जाम में पास होना अलग बात है। इस एग्जाम में पास होने के लिए एक ख़ास रणनीति की ज़रुरत होती है। ये ज़रूरी नहीं कि विषय पर ज़बरदस्त पकड़ रखने वाला हर शख्स एग्जाम में पास हो जाएगा। अगर रणनीति नहीं है तो अच्छे से अच्छा विद्वान भी ये परीक्षा पास नहीं कर सकता। साई भास्कर रेड्डी भले ही सिविल सर्विसेज परीक्षा पासकर आईएएस नहीं बन पाये, लेकिन उन्हें इस बात की खुशी है कि एग्जाम की तैयारी में जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया, उससे उन्हें जीवन में बहुत लाभ मिला। इतना ही नहीं इस ज्ञान की वजह से ही वे दूसरों की मदद भी कर पाये।
1993 में आईआईटी से एमएससी की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब साई भास्कर रेड्डी हैदराबाद लौटे तो उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय में एमएससी (जियोग्राफी) कोर्स में दाखिला लिया। एमएससी (जियोग्राफी) की पढ़ाई के दौरान वे हॉस्टल में रहने लगे थे। उन दिनों छात्र राजनीति ज़ोरों पर थी और एक छात्र संगठन का काफी दबदबा था। विश्वविद्यालय परिसर खासकर होटल में लड़ाई-झगड़े आम बात थी। कई बार उनके दोस्तों की पिटाई भी हुई थी। लेकिन, साई भास्कर रेड्डी इन सब से बहुत दूर रहते थे। उनकी दिलचस्पी सिर्फ पढ़ाई और शोध-अनुसंधान में थी। साई भास्कर रेड्डी ने बताया कि वे राजनीति से दूर थे, लेकिन उन्होंने जियोग्राफी स्टूडेंट्स एसोसिएशन बनाया था। इस एसोसिएशन का राजनीति से कोई वास्ता नहीं था और ये ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान के लिए बनाया गया था। उन्होंने उसी दौरान विश्वविद्यालय स्तरीय क्विज प्रतियोगिताएं भी करवाई थीं। साई भास्कर रेड्डी ने ये भी बताया कि उस्मानिया विश्वविद्यालय में एमएससी (जियोग्राफी) की पढ़ाई के दौरान ही वे जाने-माने पर्यावरणविद प्रोफेसर पुरुषोत्तम रेड्डी के प्रभाव में आये थे। एक दिन उनके लेक्चरर नहीं आये थे तब साई भास्कर रेड्डी ने अपने जियोग्राफी विभाग के नज़दीक मौजूद राजनीति-शास्त्र विभाग में जाकर वहां के प्रोफेसर पुरुषोत्तम रेड्डी से उनकी क्लास में आकर पढ़ाने का अनुरोध किया था। प्रो. पुरुषोत्तम रेड्डी के विचारों से साईं भास्कर रेड्डी इतना प्रभावित हुए कि वे भी पर्यावरण-संरक्षण के कार्यकर्त्ता बन गए। आगे चलकर उन्होंने प्रोफेसर पुरुषोत्तम रेड्डी के साथ पर्यावरण को बचाने के लिए कई आन्दोलनों में हिस्सा लिया। आज भी वे प्रोफेसर पुरुषोत्तम रेड्डी के सबसे वफादार और निष्ठावान साथियों और शागिर्दों में एक हैं।
एमएससी (जियोग्राफी) के दौरान एक और बेहद दिलचस्प घटना हुई थी। साई भास्कर रेड्डी ने क्लास के दौरान अपने ही लेक्चररों की गलतियाँ पकड़ना शुरू कर दी थी। इससे सारे लेक्चरर बहुत नाराज़ हुए थे। और जब कभी साई भास्कर क्लास में मौजूद होते तो लेक्चरर ये तंज़ मारते कि क्लास में विद्वान बैठे हुए हैं तो फिर उनके पढ़ाने की क्या ज़रूरत है। इस तरह के तंज़ से परेशान होकर साई भास्कर रेड्डी ने क्लास अटेंड करना ही बंद कर दिया। साई भास्कर रेड्डी बताते है," उन दिनों लेक्चरर तैयारी करके नहीं आते थे। चूँकि ज्यादातर बच्चों को विषय का ज्ञान नहीं होता था वे लेक्चरर की सारी बातों को सही मान लेते थे। मैं पढ़ा हुआ था और मैं समझ जाता था कि लेक्चरर क्या सही पढ़ा रहे हैं और क्या गलत।"
1995 में एमएससी (जियोग्राफी) की डिग्री लेने के बाद साई भास्कर रेड्डी के सामने दो विकल्प थे। कौंसिल फॉर साइंटिफिक रिसर्च में फ़ेलोशिप के ज़रिये जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या फिर आईआईटी से पीएचडी करना। लेकिन, साई भास्कर रेड्डी ने वरंगल के काकतीय विश्वविद्यालय से पीएचडी करने का फैसला लिया। इसकी वजह थी उनके गाइड के. नरेंदर रेड्डी का उनको दिया हुआ भरोसा। डॉ. के. नरेंदर रेड्डी ने साई भास्कर रेड्डी से कहा था - अगर तुम्हें आज़ादी चाहिए तो मेरे निरीक्षण में पीएचडी करो। साई भास्कर रेड्डी को ये बात जंच गयी और उन्होंने पीएचडी के लिए अपना रजिस्ट्रेशन काकतीय विश्वविद्यालय में करवा लिया। चूँकि प्रोफेसर पुरुषोत्तम रेड्डी के प्रभाव में वे पर्यावरण संरक्षण के आन्दोलनों से जुड़ गए थे साई भास्कर रेड्डी ने पटानचेरूवू औद्योगिक क्षेत्र में प्रदूषण की समस्या को अपना शोध का विषय बनाया। चूँकि गाइड से 'आज़ादी' मिली हुई थे साई भास्कर रेड्डी ने पीएचडी के लिए शोध के दौरान ही काम करना शुरू कर दिया था।
दिसंबर, 1995 से अप्रैल, 1998 यानी दो साल और पांच महीनों तक उन्होंने डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी के लिए काम किया। यहाँ उन्होंने राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान के प्रोग्राम ऑफिसर की जिम्मेदारियां निभाईं। इसके बाद उन्होंने मई 1998 से जनवरी,1999 तक फोरम फॉर यूटिलाइज़ेशन ऑफ़ गोदावरी वाटर्स नाम की एक गैर-सरकारी संस्था के लिए बतौर प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर काम किया। साई भास्कर रेड्डी ने कुछ समय तक सेंटर फॉर वर्ल्ड सॉलिडेरिटी के जॉइंट फारेस्ट मैनेजमेंट प्रोग्राम में प्रोग्राम ऑफिसर का भी काम किया। साई भास्कर रेड्डी ने जहाँ-जहाँ काम किया वहाँ-वहाँ उनका खूब नाम हुआ। अलग-अलग जगह पर काम करते हुए साई भास्कर रेड्डी ने कई आविष्कार किये। ऐसे शोध और अनुसंधान किये जिसके नतीजों से लोगों को, ख़ास तौर पर ग्रामीण लोगों, को बहुत लाभ पहुंचा। साई भास्कर रेड्डी को जब साल 2001 में आँध्रप्रदेश ग्रामीण आजीविका कार्यक्रम के लिए काम करने का मौका मिला तब उन्होंने गाँवों में लोगों की समस्याओं को बहुत करीब से जाना-समझा। वे समस्याओं को जान-समझकर चुप नहीं बैठे। उन्होंने इन समस्याओं के परिष्कार के लिए काम करना शुरू किया।
इसके बाद उन्हें जब आँध्रप्रदेश ग्रामीण विकास संस्थान में काम करने का मौका मिला तब फील्ड विजिट के दौरान उन्होंने जो कुछ देखा उसने उनके जीवन के मकसद को ही बदल दिया। ग्रामीण विकास संस्थान के काम के सिलसिले में वे महबूबनगर जिले के श्रीरंगपटना गाँव गए थे और यहीं पर पारम्परिक चूल्हों से महिलाओं को होने वाले नुकसान को देखकर उनका दिल दहल गया था। आगे चलकर जब उन्होंने किफायती,फायदेमंद को सेहत बचाने वाले चूल्हे बनाए तब उन्हें पहली बार इसी गाँव की महिलाओं को दिया था। साई भास्कर रेड्डी कहते है," इस गाँव की महिलाओं ने जब मेरे बनाए चूल्हों का इस्तेमाल किया तब वे बहुत खुश हुईं। उनकी सालों पुरानी समस्या दूर हो गयी थी। उनके चहरे पर जो मुस्कान आयी थी उसे देखकर मैं ठान ली कि मैं अपना जीवन गाँव के लोगों की खुशियों के लिए समर्पित कर दूंगा।" ख़ास बात तो ये भी है कि कभी साई भास्कर रेड्डी के प्रयोगों से परेशान हो चुके उनके माता-पिता, उनकी पत्नी - सभी अब उनकी कामयाबियों पर फक्र करते हैं। इतना ही नहीं वे अब साई भास्कर रेड्डी के नए प्रयोगों में उनकी हर मुमकिन मदद भी कर रहे हैं।