असली हिंदुस्तान की कहानी को कविता के माध्यम से कहने वाला देसी कवि
हँसमुख और हरदिल अजीज़ कैलाश गौतम
अवधी और खड़ी बोली के प्रसिद्ध कवि कैलाश गौतम ने भारत के बदलते गाँव और शहरीकरण के तिलस्म को तीखे व्यंग्य, लोकबोली की मिठास, तीज-त्योहारों की हंसी- ख़ुशी, रिश्तों की खटास, देसज मुहावरेदारी के साथ रेखांकित करते हुए 'गांव गया था गांव से भागा', 'अमवसा क मेला', 'गान्ही जी', 'कचहरी न जाना', 'बाबू आन्हर माई आन्हर', 'पप्पू की दुलहिन', 'रामलाल का फगुआ', 'बड़की भौजी', 'जोड़ा ताल', 'सिर पर आग', 'कविता लौट पड़ी', 'बिना कान का आदमी', 'जै-जै सियाराम', 'तम्बुओं का शहर' जैसे अनेकानेक कालजयी सृजन किए हैं।
कैलाश गौतम कोई दुधमुहे कवि नहीं हैं कि उनका परिचय देना जरूरी हो, लेकिन जो कवि फन और फैशन से बाहर खड़ा हो, उससे लोग परिचित होना भी जरूरी नहीं समझते क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौंदर्यशास्त्र की बनी बनायी श्रेणियाँ खींचती हैं।
कैलाश गौतम अवधी के उस शीर्ष कवि का नाम है, जिसके शब्दों ही नहीं, ठहाकों से भी पूरा आसपास खिलखिला उठता था। वाराणसी (उ.प्र.) के गांव डिग्घी (अब चन्दौली) में जन्मे कैलाश गौतम को आकाशवाणी इलाहाबाद से सेवानिवृत्त होने के बाद सरकार ने हिन्दुस्तानी एकेडमी का अध्यक्ष मनोनीत किया। ऋतुराज सम्मान, यश भारती सम्मान से समादृत कैलाश गौतम का 9 दिसम्बर 2006 को निधन हो गया। उनकी इन पंक्तियों में आज भी जैसे गागर में सागर सा समाया लगता है
मन का वृन्दावन होना इतना आसान नहीं।
वृन्दावन तो वृन्दावन है, घर दालान नहीं।
वरिष्ठ साहित्यकार नरेश मेहता लिखते हैं कि कैलाश गौतम के ताल मखाने जैसे गीत हमारे अंतर में ग्राम्यता के घर आँगन वाले प्रत्यांकनों को मूर्त करते हैं। वह जिस सहज भाव और भाषा के साथ सारी परंपरा को शब्दों में, चित्रों में, बिम्बों में परोस देते हैं, वह कितना उदात्त है। क्या नहीं है इन गीतों में? सारा भारतीय लोकजीवन कंधे पर गीली धोती उठाए, चना-चबेना चबाते हुए अपनी विश्वास की धरती पर चलते दिखता है। भले ही आज का वर्णसंकर इतिहास इन्हें कितना ही गर्हित समझे परन्तु हमारी भारतीय संस्कृति का मूल हमारा यह लोक जीवन ही है। गांव के हालात पर उनकी इस कविता के रंग देखिए -
गांव गया था गांव से भागा।
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आंगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आंख में बाल देखकर
गांव गया था गांव से भागा।
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गांव गया था गांव से भागा।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गांव गया था गांव से भागा।
नये धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएं-कुएं में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गांव गया था गांव से भागा।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गांव गया था गांव से भागा।
नये नये हथियार देखकर
लहू-लहू त्यौहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का श्रृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गांव गया था गांव से भागा।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाखून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गांव गया था गांव से भागा।
कैलाश गौतम जैसे वास्तविक कवि अपनी संस्कृति से एक क्षण को भी पृथक नहीं होते। मैं इन लोकतत्वी रचनाओं के प्रति विनम्र होना चाहूँगा। कविता जब तक अपनी ग्राम्यता, संस्कृति के साथ ऐसी तन्मय नहीं होती, तब तक काव्य के दूसरे प्रकार के सारे आन्दोलनों का कोई अर्थ नहीं। भले ही इन आन्दोलनों की घेरेबन्दी हो परन्तु ये अपनी परम्परा से कटे हुए आन्दोलन हैं। वर्तमान भले ही घेरेबन्दी का हो सकता है, परन्तु भविष्य तो संस्कृति और लोकपथ पर रहकर जीवन के साथ चलती, बतियाती और गाती कविताओं का ही है। जयदेव, विद्यापति, निराला के बाद ये कविताएं ऐसी रचनात्मक बयार हैं, जिनका स्वागत किया ही जाना चाहिए। कैलाश गौतम की एक अदभुत रचना है - 'बड़की भौजी', रिश्ते की तरलता किस हद तक हो सकती है, इस रचना में कूट-कूट कर मानो पिरोयी गई है -
जब देखो तब बड़की भौजी हँसती रहती हैं।
हँसती रहती हैं, कामों में फँसती रहती हैं।
झरझर झरझर हँसी होंठ पर झरती रहती है,
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती हैं॥
डोरा देह, कटोरा आँखें जिधर निकलती हैं,
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती है।
खुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती हैं
आधी रात गए तक भौजी घर में खटती हैं।।
कभी न करती नखरा-तिल्ला सादा रहती हैं
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती हैं।
सबका मन रखती हैं घर में, सबको जीती हैं
गम खाती हैं बड़की भौजी गुस्सा पीती हैं॥
चौका-चूल्हा, खेत-कियारी, सानी-पानी में
आगे-आगे रहती हैं कल की अगवानी में।
पीढ़ा देतीं, पानी देतीं, थाली देती हैं,
निकल गई आगे से बिल्ली, गाली देती हैं॥
भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती हैं
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती हैं।
इधर भागती उधर भागती नाचा करती हैं
बड़की भौजी सबका चेहरा बांचा करती हैं॥
फुर्सत में जब रहती हैं, खुलकर बतियाती हैं
अदरक वाली चाय पिलाती, पान खिलाती हैं।
भइया बदल गये पर भौजी बदली नहीं कभी
सास के आगे उल्टे पल्ला निकली नहीं कभी॥
हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में
गीत बदलने में हैं आगे, राग बदलने में।
मुंह पर छींटा मार-मार कर ननद जगाती है
कौवा को ननदोई कहकर हँसी उड़ाती हैं॥
बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में
छोटी को कहती हैं गरी-चिरौंजी फागुन में।
छ्ठे-छमासे गंगा जातीं, पुण्य कमाती हैं,
इनकी-उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती हैं॥
आँगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती हैं
घर में कोई सौत न आये, यही मनाती हैं।
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गयीं
दाल परसकर बैठी रोटी देना भूल गयी॥
ख्यात कथाकार दूधनाथ सिंह लिखते हैं कि कैलाश गौतम कोई दुधमुहे कवि नहीं हैं कि उनका परिचय देना जरूरी हो, लेकिन जो कवि फन और फैशन से बाहर खड़ा हो, उससे लोग परिचित होना भी जरूरी नहीं समझते क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौंदर्यशास्त्र की बनी बनायी श्रेणियाँ खींचती हैं। कैलाश गौतम उस खांचे में नहीं अंटते। वह खांचा उनके काम का नहीं है या वे उस खांचे के काम के नहीं। इसका सीधा मतलब है कि यह कवि अपनी कविताओं के लिये एक अलग और और विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र की मांग करता है। उनकी 'कचहरी न जाना' कविता पढ़ते समय हमारे मनोमस्तिष्क पर आज भी अदालत के भीतर का माहौल साकार सा हो उठता है -
भले डांट घर में तू बीबी की खाना,
भले जैसे-तैसे गिरस्ती चलाना,
भले जा के जंगल में धूनी रमाना,
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना।
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है,
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है,
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है,
तिवारी था, पहले तिवारी नहीं है,
कचहरी की महिमा निराली है बेटे,
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे,
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे,
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे,
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे,
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे,
खुलेआम कातिल यहाँ घूमते हैं,
सिपाही दरोगा चरण चूमते हैं,
कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है,
भला आदमी किस तरह से फंसा है,
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे,
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे,
कचहरी का मारा कचहरी में भागे,
कचहरी में सोये, कचहरी में जागे,
मर जी रहा है गवाही में ऐसे,
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे,
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे,
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे,
कचहरी तो बेवा का तन देखती है,
कहाँ से खुलेगा, बटन देखती है,
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है,
उसी की कसम लो, जो हाज़िर नहीं है,
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी,
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी,
मुकदमे की फाइल दबाती कचहरी,
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी,
कचहरी का पानी जहर से भरा है,
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है,
मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे,
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे,
दलालों ने घेरा सुझाया-बुझाया,
वकीलों ने हाकिम से सटकर दिखाया,
धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ,
मैं मुट्ठी हूँ, केवल अंगूठा नहीं हूँ,
नहीं कर सका मैं मुकदमे का सौदा,
जहाँ था करौदा, वहीं है करौदा,
कचहरी का पानी कचहरी का दाना,
तुम्हे लग न जाये, तू बचना बचाना,
भले और कोई मुसीबत बुलाना,
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना,
कभी भूल कर भी न आँखें उठाना,
न आँखें उठाना, न गर्दन फंसाना,
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी,
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी।
कचहरी न जाना, कचहरी न जाना।
उमाशंकर सिंह लिखते हैं कि हिंदी की जातीय जमात से अलग-थलग माने जाने वाले कवि कैलाश गौतम की कविताएं स्वतंत्र हिन्दुस्तान की अलग कहानी कहती हैं। जी हाँ, वही कहानी, जिसको श्रीलाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' में कहा है। कैलाश गौतम का 'लोक' आज भी आलोचकों की नज़र से ओझल है। आलोचक भले न देख सकें, पाठक उनकी कविताओं का लौकिक यथार्थ बखूबी देख लेता है।
प्रियंकर के शब्दों में कैलाश गौतम विरल प्रजाति के गीतकार थे। लोकसंवेदना से गहरी संपृक्ति उनकी कविताओं और गीतों को विशिष्टता से भर देती है। आंचलिक बिम्बों से परिपुष्ट लोकराग की एक अनूठी बयार बहती है उनके गीतों में। पारम्परिक समाज और मानवीय संबंधों के टूटने के एक प्रच्छन्न करुण-संगीत, एक दबी कराह के साथ नॉस्टैल्जिया की एक अंतर्धारा उनकी कविता में हमेशा विद्यमान रहती है। यहां तक कि बाहरी तौर पर हास्य-व्यंग्य का बाना धरने वाली कविताओं में भी पीड़ा की यह रेखा स्पष्ट लक्षित की जा सकती है। वे खुद भी वैसे ही थे, आत्मीयता से भरे-पूरे, हँसमुख और हरदिल अजीज़।
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