बेरोजगारी में जूडो-कराटे सीखकर आयरन लेडी बनीं आशा खरे
मुफलिसी की मुश्किलें भी कैसी-कैसी राह दिखा देती हैं। पिता के नौकरी से सस्पेंड कर दिए जाने के बाद चार भाई-बहनों वाला परिवार चलाने के लिए रोजगार की मजबूरी में जूडो-कराटे प्रशिक्षक बन बैठे डॉ अरुण खरे की पत्नी डॉ आशा खरे आज अपनी बेमिसाल कामयाबी श्रेय अपने दांपत्य जीवन को ही देती हैं। तिरसठ साल की उम्र में भी बड़े-बड़ो को पटखनी देने में आज भी उन्हें उतनी ही महारत है। उनकी सिखाई बच्चियां अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अब तक दर्जनों मेडल जीत चुकी हैं।
दमोह शहर के असाटी वार्ड जैन धर्मशाला के पास रह रहीं डॉ. आशा खरे की शादी वर्ष 1976 में डॉ. अरुण खरे के साथ हुई थी। उनके पति ने अकोला (महाराष्ट्र) में योग प्राणायाम एवं जूडो कराटे की शिक्षा ली।
ब्लैक बेल्ट से गौरवान्वित दमोह (म.प्र.) की डॉ. आशा खरे तिरसठ की उम्र में भी अच्छे-अच्छों को पलक झपकते धूल चटा देती हैं। इस ताकत का सबसे बड़ा राज है अब तक की जिंदगी में लगातार युवतियों और महिलाओं को जूडो-कराटे में महारत दिलाते रहना। डॉ आशा खरे जूडो कराटे के क्षेत्र में जाना माना नाम है। अपने पति अरुण खरे के साथ उन्होंने अभी तक करीब एक हजार बच्चों को इस हुनर में पारंगत किया है। उन्होंने विशेष रूप से युवतियों को आत्मरक्षा के गुर सिखाए हैं। इनकी प्रशिक्षित लड़कियों में से आज 16 लड़कियां पुलिस विभाग में अपनी सेवाएं दे रही हैं। वह बताती हैं कि 1976 में शादी के बाद अपने पति अरुण खरे एवं अकोला निवासी चंद्रशेखर गाडगिल से उन्होंने कराटे का प्रशिक्षण लिया था।
इसके बाद 1984 में इटारसी में आयोजित टूर्नामेंट में प्रदर्शन किया। वर्ष1985 में दमोह में हुए अखिल भारतीय कराटे मुकाबले में तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल बोरा ने उनके प्रदर्शन से खुश होकर उनको सम्मानित किया। इसके बाद 1986 में दमोह में ही आयोजित कराटे एशिया कप में नेपाल, भूटान, कोरिया, जापान के साथ भारत के खिलाड़ियों के बीच उन्होंने शानदार कराटे का प्रदर्शन किया। इसके साथ ही 1989-90 में पटियाला एवं अकोला में उनका जोरदार प्रदर्शन हुआ। अपने प्रदर्शनों के दौरान उन्होंने जापानी यावारा, तोनफा, नान-चाकू, सुमरई शस्त्र के इस्तेमाल किए। आज उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज है। उनको आयरन ऑफ द लेडी दमोह, जिला महिला सम्मान सहित अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स से नवाजा जा चुका है।
दमोह शहर के असाटी वार्ड जैन धर्मशाला के पास रह रहीं डॉ. आशा खरे की शादी वर्ष 1976 में डॉ. अरुण खरे के साथ हुई थी। उनके पति ने अकोला (महाराष्ट्र) में योग प्राणायाम एवं जूडो कराटे की शिक्षा ली। उसी दौरान वह हरिद्वार गए, जहां अपने गुरू संत देवी प्रसाद पांडे से योग, प्राणायाम की शिक्षा ली। उनके गुरू समाधि लेने में पारंगत थे। यह विद्या भी उन्होंने सीख ली। कुछ ही दिनों में जब वह दमोह लौटकर आए तो दमोह के रानी दुर्गावती स्कूल के पास युवाओं को जूडो-कराटे का प्रशिक्षण देने लगे।
जब पति में समाधिस्थ होने की कला हो, फिर आशा भला कैसे पीछे रहतीं। वह इसके लिए भी लोगों में जानी-पहचानी जाती हैं। वह योग-प्राणायाम के बल पर लगातार पांच-पांच दिन तक जमीन के अंदर समाधि भी ले चुकी हैं। अब मध्य प्रदेश शासन द्वारा समाधि लेने पर पाबंदी लगा दिए जाने के कारण वह अपना ये हुनर नहीं दिखा पाती हैं। डॉ खरे बताती हैं कि समाधि से पहले कई दिनों तक श्वांस को अधिकाधिक समय तक रोकने का अभ्यास करना पड़ता है। शुरूआत में एक दिन इसके बाद पांच-पांच दिन तक समाधि ली जा सकती है। यह सब योग-प्राणायाम के अभ्यास से ही संभव है। शासकीय प्रतिबंध के कारण अब वह केवल छात्राओं को जूडो-कराटे ही सिखाती हैं।
यद्यपि जूडो कराटे में आज भी वह कमाल दिखाकर लोगों को अचंभित करती रहती हैं। वह आज भी पूरे उत्साह नई पीढ़ी के बच्चों को जूडो-कराटे के प्रशिक्षण देती रहती हैं। इस दौरान वह तंदुरुस्त से तंदुरुस्त युवाओं को भी पटखनी देने में देर नहीं लगाती हैं। जिले की पहली ब्लैक बेल्ट महिला डॉ. आशा खरे अब तक हजारों छात्राओं को सेल्फ डिफेंस का प्रशिक्षण दे चुकी हैं। स्कूल शिक्षा विभाग की ओर से हायर सेकंडरी स्कूल की छात्राओं को सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग देने के लिए उनको नियुक्त किया गया है। वह अलग-अलग स्कूलों में जाकर तीन-तीन माह का प्रशिक्षण देती हैं। प्रशिक्षण में वह जूडो कराटे के अलावा तलवारबाजी, लाठी चलाना भी सिखाती हैं।
उनसे ट्रेंड हुईं दर्जनों छात्राएं इस वक्त पुलिस विभाग में नौकरियां कर रही हैं। डॉ खरे का मानना है, आज के वक्त में लड़कियों को जूडो कराटे सिखाना इसलिए भी बहुत जरूरी हो गया है ताकि वे असंयोग से कभी किसी असामाजिक तत्व के चंगुल में आ जाने पर स्वयं अपनी रक्षा करने में कुशल हों। अकोला में एक बबन पहलवान था। मंदिर आने वाली महिलाओं को परेशान किया करता था। लड़कियों ने ही उसकी पिटाई कर उसका आतंक खत्म किया। इसी तरह छिंदवाड़ा और इटारसी के बीच महिलाओं के साथ लूटपाट करने वाले गिरोह को काबू में कर उन्हें पुलिस के हवाले किया गया।
डॉ आशा खरे में आज भी गजब की इच्छाशक्ति है। ज्यादातर अपनी मेहनत-मशक्कत के काम वह खुद निपटा लिया करती हैं। उन्हें देश-समाज से इतनी प्रतिष्ठा मिली है कि आज उनका घर मेडल, पदक, सर्टिफिकेट से अटा पड़ा है। उनके सहयोग से तमाम युवाओं, युवतियों को नौकरियां मिली हैं। इतने सम्मान मिलने के बाद भी उन्होंने कभी पैसों को महत्व नहीं दिया है। आज भी यह अपने पति के साथ सौ साल पुराने टूटे-फूट घर में ही सामान्य जीवन जी रही हैं, जबकि उनके सिखाए बच्चे इसी साल नेपाल में अंतर्राष्ट्रीय जूड़ो-कराटे चैम्पिशयनशिप में शामिल होकर दर्जनों मेडल प्राप्त किए हैं। उनके कारण दमोह की बेटियों का दम एक बार फिर दुनिया में दिखाई दिया है।
पांच देशों के बीच हुई एक कराटे प्रतियोगिता में यहां की बेटियों ने 28 मेडल जीते हैं जबकि भारत को इस प्रतियोगिता में कुल 33 मेडल मिले हैं। प्रतियोगिता में भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, भूटान और मेजबान देश नेपाल के कराटे खिलाड़ियों के बीच मुकाबले हुए। इसमें दमोह की बेटियों ने कमाल का प्रदर्शन किया। दमोह वापस आने पर इन कराटे खिलाड़ियों का गर्मजोशी से स्वागत हुआ और लोगों ने दमोह का मान बढ़ाये जाने पर अपनी खुशी का इजहार किया। ये पहला मौका नहीं, जब दमोह की इन बेटियों ने शहर का मान बढ़ाया हो बल्कि इसके पहले भी देश में हुई विभिन्न प्रतियोगिताओ में इन बेटियों ने मेडल्स जीत कर अपना दबदबा बनाया है। इस टीम की कई खिलाड़ियों के नाम भी कई रिकॉर्ड हैं और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में मार्शल आर्ट में लड़कियों ने अपना नाम दर्ज कराने के साथ कई टीवी शोज में अपनी प्रस्तुति देकर लोगों को रोमांचित किया है। बेहद सीमित संसाधनों के बीच मार्शल आर्ट और कराटे सीखने वाली दमोह की ये बहादुर बेटियां आगे बढ़ने का जज्बा रखती हैं। इन शानदार कामयाबियों की वजह और कोई नहीं, बल्कि खरे दंपति ही रहे हैं।
यद्यपि दमोह के इस नामचीन खरे परिवार का बचपन बड़ा ही संघर्षपूर्ण रहा है। डॉ. अरुण खरे बताते हैं कि जब वह 26 वर्ष के थे, उनके पिताजी को शासकीय नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया। उसके बाद उनके चार भाई, चार बहनों सहित पूरे परिवार का भार उनके ऊपर आ गया। परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्होंने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया, लेकिन उस समय काफी कम पैसे मिलते थे, जिससे गुजारा नहीं हो पाता था। इसी कारण उनको मेहनत-मजदूरी भी करनी पड़ी। सन् 1968 में बीएससी पास करने के बाद उन्होंने काफी नौकरी तलाशी, लेकिन नहीं मिली। उनकी तमन्ना देश सेवा में जाने की थी। तब किसी ने बताया कि जूडो-कराटे सीखो, तो जल्दी नौकरी मिल जाएगी।
इसके लिए वह महाराष्ट्र और हरिद्वार गए। लौटकर वह योग, समाधि, जूड़ो कराटे सिखाने लगे। कुछ साल बाद आशा के साथ उनकी शादी हो गई। वह भी उन्हीं की राह चल पड़ीं। वर्ष 1980 में दमोह के मागंज स्कूल मैदान में उन्होंने आशा और बहन अर्चना के साथ एक गड्ढे में 24 घंटे की समाधि ली थी। ऊपर से पूरा गड्ढा ढक दिया गया था। उस समय तत्कालीन कलेक्टर एमपी दुबे और एसपी भी मौके पर पहुंचे। इस समाधि के बाद उनका नाम देश-दुनिया में हो गया। गड्ढे में 24 घंटे समाधि लेने वाले वह विश्व के पहले व्यक्ति बन गए। इससे पहले फ्रांस के डॉ. लुईस ने लंबी समाधि ली थी। उनका रिकॉर्ड उन्होंने तोड़ दिया।
इस उपलब्धि पर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में उनका नाम दर्ज हो गया। संस्था द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया गया था। इस उपलब्धि के बाद उन्हे राष्ट्रीय भीम अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 1998 में वह राष्ट्रीय कमांडो ऑफ मास्टर से, 2003 में राष्ट्रीय भारत-भीम अवार्ड से, 2004 में वेस्ट बंगाल अवॉर्ड से, 2006 में वर्ल्ड मार्शल ऑर्ट फेडरेशन द्वारा ग्रेंड मास्टर उपाधि से, 2011 में जीटीवी के शाबास इंडिया सम्मान से समादृत किए गए। इन सबसे प्रभावित होकर हरिसिंह गौर यूनिवर्सिटी सागर ने उनको अपना कोच बना लिया।
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