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सबको मिले स्वस्थ मनोरंजन का अधिकार: पंकज दुबे

अपनी कल्पनाशीलता के सहारे हमेशा नई राह बनाने की कोशिश पंकज को पहले चाईबासा से रांची, फिर दिल्ली, फिर इंग्लैंड और उसके बाद मुंबई ले आई। पंकज को लगता है कि बहुत ज्यादा ज्ञान अहंकार को जन्म देता है, इसलिए उनकी ज़िंदगी की पूरी कैंपेनिंग कल्पनाशीलता के साथ है। यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है और यही जीवन की शैली भी।

सबको मिले स्वस्थ मनोरंजन का अधिकार: पंकज दुबे

Monday November 07, 2016 , 9 min Read

टीवी और फिल्में आजकल मनोरंजन का साधन तो हैं, लेकिन क्या हम जानते हैं कि हमारे बच्चे जो देख रहे हैं, उन्हें देखना चाहिए या नहीं? नहीं हम नहीं जानते। भागदौड़ भरी इस ज़िंदगी में बच्चों की ज़िम्मेदारी से जितनी देर दूर रहा जाये उतना अच्छा है, लेकिन ऐसा करके हम यह भूल रहे हैं कि उन्हें दिया जाने वाला एंटरटेनमेंट उनके आज को प्रभावित करते हुए उनके आनेवाले कल के साथ खेल रहा है। बच्चों का का भविष्य उनके आज की तरह ही खूबसूरत रहे और मस्तिष्क दूषित न हो इसी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए पेंग्विन बेस्ट सेलर लेखक पंकज दुबे ने एक अनोखे कार्यक्रम की नींव डाली और उसे नाम दिया सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल

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सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल के दौरान पंकज रुबीना अली (स्लमडॉग मिलिनेयर की बाल कलाकार) के साथa12bc34de56fgmedium"/>

वैसे तो पंकज दुबे लेखन की दुनिया में जाना माना नाम हैं, कहानियां लिखते हैं और अपनी कहानियों को बड़ी खूबसूरती से सुनाते भी हैं। पंकज की खासियत है कि वह सामने रखी किसी भी चीज़ को पकड़ कर उस पर कहानी गढ़ सकते हैं, फिर वह चाहे कार की चाबी हो या फिर धूप वाला चश्मा और उनकी कहानियों का अंत भी हमेशा दिलचस्प होता है... किसी हिंदी सिनेमा की तरह! लेकिन पंकज की ज़िंदगी का एक और पक्ष है, जिसके बारे में वह शोर करना नहीं, काम करना पसंद करते हैं और वह है हेल्दी एंटरटेनमेंट। अपने इस कैंपेन को पूरा करने के लिए पंकज ने भारत के पहले स्ट्रीट फिल्म फेस्टिवल सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल की नींव रखी।

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मेरा मानना है कि जो मीडिया बच्चे कंज़्यूम करते हैं, उससे उनके भविष्य का विकास होता है और बात उनके अवचेत में बैठ जाती है। आजकल का अस्सी प्रतिशत सिनेमा बच्चों के मस्तिष्क को दूषित कर रहा है। बच्चे क्रूर और भावना शून्य हो रहे हैं। मेरा मकसद बच्चों की उसी कोमल भावना को बचाना है। बच्चों में समानुभूति लाने के लिए उनका सेंसिटिव और सेंसिबल होना ज़रूरी है। मेरी ज़िंदगी का सबसे पहला उद्देश्य है, कि हेल्दी एंटरटेनमेंट के माध्यम से बच्चों में समानुभूति का निर्माण किया जाये, ताकि वे एक बेहतर और संवेदनशील नागरिक बन सकें।

सड़क छाप फिल्म फेस्टिवल 2008 में दिल्ली के न्यू सीमा पुरी इलाके से शुरु हुआ और उसके बाद यह फेस्टिवल कोलकाता, बैंगलोर, हैदराबाद, मुंबई पटना, राँची, चाईबासा, जमशेदपुर, खूंटी, मुरहू की मलीन बस्तियों और गरीब इलाकों में लंबे समय तक चलता रहा। इस फेस्टिवल के दौरान उन बच्चों ने सिनेमा का लुत्फ उठाया, जो खेल नहीं खेलते बल्कि चलना सीखते ही पैसा कमाना शुरु कर देते हैं। आसान नहीं होता मलीन बस्तियों में जाकर पेरेंट्स को यह समझाना कि हम आपके बच्चे को हेल्दी बाल सिनेमा दिखायेंगे। कई बार कई जगहों से पंकज को निराश होकर भी लौटना पड़ा। दिए गए समय पर बच्चे नहीं पहुंचे, सिर्फ इसलिए क्योंकि किसी को सिग्नल पर खड़े होकर भीख मांगनी थी, तो किसी को चौराहे पर गुब्बारे बेचने थे। अशिक्षित और गरीब जनता के लिए उनके बच्चों का पैसे कमाना ज्यादा ज़रूरी था, बजाय इसके कि वह कुछ नया करें।

मैं गीता के उपदेश “कर्म करो फल की इच्छा मत करो,” से बिल्कुल विपरीत चलता हूं। मेरा मानना है पहले फल खाओ और उसके बाद कर्म करो, तब कर्म करने का आनंद दोगुना होगा। जैसे मैंने सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल के दैरान ढेर सारे फलवालों को फेस्टिवल का हिस्सा बना लिया और उनके साथ जुड़कर मैं पहले बच्चों को मीठे फल खिलाता हूं उसके बाद सिनेमा दिखाता हूं।
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पंकज उन दिनों से फिल्मों के शौकीन हैं, जिन दिनों घरों में टीवी होना बड़ी होती थी और वीसीआर तो आज कोई त्यौहर है वाला फील देता था। उन्हीं दिनों की एक घटना को सोचकर पंकज दु:खी भी हो जाते हैं। वे कहते हैं, कि बचपन के दिनों में मैंने अपनी कॉलोनी में एक फिल्मी क्लब बनाया था, जिसमें कॉलोनी के सभी लोग एक साथ एक जगह बैठकर फिल्मों का लुत्फ उठाते थे और इसके लिए मैं चंदा जमा करता था। लेकिन तब भी ऐसे कई लोग थे, जो छोटी जाति के होने की वजह से उस क्लब में शामिल नहीं हो सकते थे और उनमें से एक थे कालू भईया। कालू भईया कॉलोनी का जनरेटर चलाते थे, घर-घर में रोशनी देते थे, लेकिन वो हमारे साथ बैठकर फिल्म नहीं देख सकते थे। बचपन की उसी घटना ने मुझे सड़क छाप फिल्म फेस्टिवल की ओर मोड़ा।

पंकज जानते हैं, कि उनकी कल्पनाशीलता ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति है, जो उनके साथ-साथ दूसरों की ज़िंदगी में भी रंग भर सकती है।

चाईबासा के पंकज दुबे अपनी कल्पनाशीलता के बल पर झारखंड से निकलकर दिल्ली यूनिवर्सिटी पहुंच गए। यहां अपनी कल्पनाओं को आकार देते हुए डिबेट्स, क्रिएटिव राईटिंग और थियेटर का हिस्सा बन कर, मुखौटा नाम से एक थियेटर ग्रुप और स्पृहा (SPRIHA) नाम का एक सामाजिक संगठन बनाया, जिसका काम बच्चों में कहानियों और अन्य मीडिया माध्यमों से संवेदना का विकास करना था। उसी बीच वे अपनी मास्टर्स इन अप्लाइड कम्युनिकेशन की पढ़ाई करने कोवेन्ट्री यूनिवर्सिटी इंग्लैंड चले गए और उसके बाद लंबे कुछ समय तक बीबीसी लंदन में ब्रॉडकास्टर की भूमिका निभाई। लेकिन उनके अंतरमन ने भारत की वादियों में लौट जाने को कहा और वे लौट आए। भारत आकर कई बड़े न्यूज़ चैनल्स में काम किया, लेकिन यहां भी उनका मन नहीं लगा और फिर से मुखौटा और स्पृहा की दुनिया में वापस लौट गए। स्पृहा का नया चेहरा ही सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल के रूप में सामने आया, जिसमें मुंबई के धारावी इलाके में रुबीना अली (फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर फिल्म में बाल कलाकार) ने अन्य बच्चों के साथ बैठकर सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल का लुत्फ उठाया।

मुझे जितना सुकून बच्चों के साथ मिलता है, वह सुख किसी और काम में नहीं। यही वजह थी कि मैं अपने देश वापिस लौटा। बच्चों के होंठों की मुस्कुराहट मुझे जीने और आगे बढ़ने का मकसद देती है।

सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल पंकज की ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनके बचपन का सपना है। इस फेस्टवल के दौरान पंकज ने पाया कि कचरा चुनने वाले और नशा करने वाले छोटे-छोटे बच्चे फिल्म देखने और वर्कशॉप्स अंटेड करने में खासा दिलचस्पी ले रहे हैं। चूंकि पंकज खुद एक पिता हैं, तो बच्चों के मनोविज्ञान को बेहद बारीकी से समझते हैं। पंकज इन दिनों अपने कैंपेन राईट टू हेल्दी एंटरटेनमेंट सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल लेवल-2 की तैयारियों में व्यस्त हैं।

पंकज दुबे को प्यार से लोग PD भी बुलाते हैं। वैसे तो पंकज झारखंड के चाईबासा इलाके से हैं, लेकिन सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल के चलते अपना बोरिया-बिस्तर मुंबई लेकर पहुंच गए और अब वहीं के हो गए। पेंग्विन से उनकी दो किताबें आ चुकी हैं, और दोनों ही बेस्ट सेलर रही हैं। लूज़र कहीं का (what a loser) और इश्क़ियापा (Ishqiyapa, to hell with love)। पंकज बाईलिंगुवल राईटर हैं और अपनी किताबें हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में एक साथ लिखते हैं, जो अनुवाद नहीं होतीं, बल्कि उनकी अपनी भाषाशैली में एक साथ उनके ही द्वारा लिखी जाती हैं। पंकज कई चर्चित फिल्मों पर भी काम कर चुके हैं और जल्दी ही एक बड़े प्रोजेक्ट के साथ धमाल मचाने वाले हैं। फिल्में हमेशा से पंकज के दिल के करीब रही हैं। पंकज एक फिल्मी बॉय हैं, जो बारिश में भीग कर सड़क पर जमा हुए पानी को पैरों से मारते हुए आगे बढ़ जाता है और जिसके लिए शाम का मतलब ज़िंदगी में रोमांटिक गीत के होने जैसा है।

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शुरु के दिनों में पंकज ने चंदा लेकर भी खूब काम किया है, लेकिन अफसोस की चंदा देने वाले सिर्फ उनके दोस्त और परिवार वाले ही थे, क्योंकि बाकियों को कन्विंस करना आसान नहीं था और इसी ज़रूरत को महसूस करते हुए पंकज आजकल एक ऐसे रेवेन्यू मॉडल पर भी काम कर रहे हैं, जिसमें पैसा लगाने वाला नुक्सान की बजाय ,सिर्फ फायदा लेकर निकले।

पंकज एक दिलचस्प लेखक हैं, जो अपनी लेखन शैली में नई-नई शैलियों का प्रयोग करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम हास्य में लपेटा हुआ होता है। 2016 के जून महीने में पंकज का चुनाव लेखकों के सबसे सम्मानित कार्यक्रम राइटर्स रेजीडेंसी, सियोल आर्ट स्पेस, साउथ कोरिया के लिए भी हुआ, जहां एशिया से सिर्फ तीन लेखक चुने गए थे और पंकज उन तीन में से एक थे। सियोल में पंकज ने कई देशों से आये प्रसिद्ध लेखकों के साथ हिस्सा लिया और अपनी खूबसूरत कहानियों से लोगों को दिवाना बनाया।

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सामाजिक तौर पर काम तो PD कई सालों से कर रहे थे, लेकिन इनके प्रयासों को पहली बार यूथ आइकॉन अवार्ड 2010 के माध्यम से कर्नाटक में सम्मानित किया गया। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी उपस्थिति से इस समारोह की शोभा बढ़ाई। इन्हें अशोका चेंज मेकर्स द्वारा 'स्कूलों में क्या पढ़ाया जाये, जिससे बदलाव हो' के लिए एक्सपर्ट कमेंटेटर के रूप में भी नॉमिनेट किया गया। पंकज के पहले उपन्यास लूज़र कहीं का (what a loser) को Lit’O fest 2015 मुंबई में Best first Published Book of an Author Award मिला। अपने दूसरे बेस्ट सेलिंग उपन्यास इश्क़ियापा (Ishqiyapa, to hell with love) के साथ पंकज ने एक खास तरह का प्रयोग किया, जिसे इश्क़ियापा एक्सप्रेस का नाम दिया। इस दौरान पंकज इश्क़ियापा लेकर उन 20 शहरों में गए जहां लोग जाना पसंद नहीं करते, क्योंकि ये शहर बाज़ारी चकाचौंध से बहुत दूर हैं। इन शहरों में पंकज ने युवा पाठकों को किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित किया। यहां इन्हें लोगों का बहुत सारा प्यार मिला और जैसा कि वे कहते हैं, “इश्कियापा एक्सप्रेस के दौरान उन छोटे शहरों के लोंगो ने मुझे सेलेब्रिटी की तरह ट्रीट किया।” इश्क़ियापा के इसी अनोखे प्रयास के चलते पंकज को श्री राम जेठमलानी के द्वारा Lit’O fest 2016 में Creative Leadership Award दिया गया।

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PD का सपना है, कि वह अपने सड़कछाप फिल्म फेस्टिवल को देश के हर छोटे-बड़े गाँव शहर कस्बे में लेकर जायें और हेल्दी एंटरटेमेंट की इस मुहीम में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करें। क्योंकि पंकज के अनुसार स्वस्थ मनोरंजन का अधिकार सबको है। इन सबके साथ इन दिनों पंकज अपने एक खास प्रस्ताव पर भी काम कर रहे हैं, जिसके अंतर्गत सिनेमा चेन्स में प्रत्येक फिल्म टिकट से एक रुपया अलग कर एक फंड इकट्ठा किया जाए। वे एक देशव्यापी प्रयास करने की दिशा में भी आगे बढ़ रहे हैं जिसे उन्होंने अडॉप्ट ए फेस्टिवल का नाम दिया है।

एक सवाल जो लोग अक्सर पंकज से पूछते हैं, आपका रेवेन्यू मॉडल क्या है? जिस पर पंकज मुस्कुराकर जवाब देते हुए कहते हैं, यदि आपका दिल भी बच्चों के स्वस्थ मन और मस्तिष्क के लिए धड़कता है, तो समझ लिजिये जल्द ही बन जायेगा मेरा रेवेन्यू मॉडल।