डिजिटाइजेशन के दौर का डिजीटल लेखक
दिव्य प्रकाश दुबे का नाम जब-जब ज़बान पर आता है, तब-तब नई वाली हिन्दी ज़ेहन में दौड़ जाती है। अब ये नई वाली हिन्दी है क्या बला और क्यों लोग दिव्य को डिजीटल लेखक कहते हैं, जानने के लिए पढ़ें दिव्य प्रकाश दुबे से योरस्टोरी की एक दिलचस्प मुलाकात...
जिन लोगों को ये लगता है, कि अब हिन्दी खत्म होती जा रही है, वे एक बार नई वाली हिन्दी स्टाईल में लिखने वाले दिव्य प्रकाश दुबे से मिलें, उनके सारे सवालों के जवाब मिल जायेंगे और यदि मुलाकात मुमकिन नहीं, तो टर्म्स एंड कंडीशंस से लेकर मुसाफिर कैफे का स्वाद उन्हें बेशक यह सोचने पर मजबूर कर देगा, कि हां हिन्दी कहीं गई नहीं, बल्कि नई वाली हिन्दी के रूप में अनंतजीवी हो उठी है।
समय की मांग ने कई ज़बानों से गुज़रते हुए हिन्दी का एक नया रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया और उसे खत्म होने से बचा लिया है, क्योंकि भाषा कभी नहीं मरती, सिर्फ स्टाईल बदलता है।
"अच्छी हिन्दी वो ही लिख सकता है, जिसने अंग्रेजी को भी खूब अच्छे से पढ़ा हो। क्योंकि अच्छा लिखने के लिए वर्ल्ड के बेस्ट लिटरेचर का अध्ययन बेहद ज़रूरी है, इसलिए लोगों का ये कहना कि हिन्दी वे ही लिखते हैं, जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती, कुछ-कुछ बेमानी सा हो जाता है!"
अक्सर लोग ये जानना चाहते हैं, कि नई वाली हिन्दी क्या है? तो बताने के लिए मैं बता देती हूं, कि नई वाली हिन्दी कोई नया प्रयोग नहीं है, बल्कि ये वही हिन्दी है जो बोलचाल के नाम से जानी जाती हैं, जिसमें कोई औपचारिकता नहीं... दिव्य के शब्दों में दोस्ती-यारी वाली हिन्दी ही नई वाली हिन्दी है।
दिव्य कहते हैं,
अंग्रेजी में एक शब्द होता है इंटिमेसी, जिसे हम हिन्दीं में अंतरंग हो जाना कहते हैं। किसी भी रिश्ते या एहसास में अंतरंगता तभी आती है जब उन दो भावों के बीच की औपचारिकता हट जाये... और हिन्दीं में उसी औपचारिकता के हट जाने का नाम है नई वाली हिन्दी। जब हिन्दी एक भाषा न रह कर करीबी दोस्त बन जाती है, तो वो नई वाली हिन्दी हो जाती है।
आपने अपने आसपास ऐसे कई लोग देखे होंगे जो हिन्दी के भारी और गंभीर शब्दों को पढ़कर या सुन कर अपना सिर पकड़ते हुए कहते हैं, "हिन्दी अपने बस की बात नहीं।" लेकिन दिव्य प्रकाश हिन्दी को कूल कहते हैं। कई लोग दिव्य को हिन्दी का चेतन भगत भी कहते हैं, जिस नाम से दिव्य को खासा आपत्ति है। वे कहते हैं, "मैं दिव्य प्रकाश दुबे हूं। मैं हिन्दी का लेखक हूं, मुझे किसी अंग्रेजी लेखक के साथ लगे हैश टैग की ज़रूरत नहीं। मुझे मेरे नाम से ही जानें।" आजकल हिन्दी लिखने वाले सिर्फ हिन्दी के प्रोफेसर और पत्रकार ही नहीं है, बल्कि इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई पढ़ कर आये अंग्रेजी नौकरी करने वाले वे युवक भी हैं, जिन्होंने खो रही हिन्दी को एक नई पहचान दी है। दिव्य को पढ़ने वाला एक खास पाठक वर्ग है, जिसे इंतज़ार रहता है, कि दिव्य की नई किताब कब आ रही है। दिव्य उन लेखकों में से हैं, जिनकी किताबें पाठकों के दिलों में जगह बनाने के साथ-साथ बाज़ार में कमाई भी अच्छी करती हैं और अक्सर अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसी साईट्स पर बेस्टसेलर की लिस्ट में दिखाई पड़ जाती हैं।
हिंदी दुनिया और हिंदी लेखन को आप क्या दे रहे हैं, पर दिव्य कहते हैं,
एक बार फिर हिन्दी लोगों के दिलों में पहले की तरह उतरने लगी है। अब हिन्दी वो हिन्दी नहीं रही, जो दबी-कुचली एक कोने में पड़ी हुई है, बल्कि हिन्दी में लिखने वाले लेखक हिन्दी में अपनी पहचान बनाने के साथ-साथ ठीक-ठाक पैसा भी कमा रहे हैं और मुझे उम्मीद है, कि जल्द ही हिन्दी लेखक इतनी कमाई कर पायेंगे कि वे सिर्फ अपनी लेखनी के बल पर ज़िंदगी आराम से काट सकें। मैंने शुरुआत इसी उम्मीद के साथ की है।
"मैं मार्केटिंग का आदमी हूँ, इसलिए जानता हूँ कि अपने प्रोडक्ट को बेचना कैसे है! हालांकि किताबें प्रोडक्ट नहीं होतीं, मन का बड़ा प्यारा-सा भाव होती हैं, जिन्हें लेखक शब्दों में बांधने की एक गुस्ताख़ कोशिश कर बैठता है।"
दिव्य किसी लेखकीय पृष्ठभूमी से संबंध नहीं रखते हैं। उनके परिवार में पढ़ने वाले तो हैं, लेकिन लिखने वाले सिर्फ एक वे ही। किताबें उन्हें विरासत में मिली लेकिन लेखन नहीं। फिर भी वे बहुत अच्छे से जानते हैं कि तकनीकों का फायदा उठाते हुए उन्हें अपनी किताबें पाठकों तक पहुंचानी कैसे हैं। शब्दों से खेलना इन्हें अच्छे से आता हैं। कई लोग दिव्य को डिजीटल लेखक भी कहते हैं, क्योंकि फेसबुक से लेकर मोबाईल एप्प तक, यू ट्यूब से लेकर अॉनलाईन बुक खरीदने तक दिव्य ने कई तरह के नये प्रयोग किये हैं, जो दिव्य से पहले किसी लेखक ने नहीं किये। दिव्य अपनी किताबों के मार्केट में आने से पहले उनका यूट्यूब वीडियों शूट करते हैं। यह अनोखा प्रयोग हिन्दी किताबों की दुनिया में पहली बार हुआ।
डिजिटाइजेशन के दौर का डिजीटल लेखक कहे जाने पर दिव्य कहते हैं,
मैं जैसा लिख रहा हूँ वैसे ही लिखता, बस डिजिटल की टाइमिंग मैच कर गयी और मैं डिजिटलाइजेशन के दौर का डिजीटल लेखक हो गया। मैं मार्केटिंग का आदमी हूँ, इसलिए अपने प्रोडक्ट (किताब) के भरोसे को साथ लिए उसका प्रचार-प्रसार करने की कोशिश करता हूं, जिसमें सोशल मीडिया बड़े से मेले में लगी एक छोटी सी दुकान है।
दिव्य को पढ़ने वाले तो सभी लोग जानते हैं, लेकिन सभी हिन्दी पढ़ने वाले लोगों को ये बात बता देना ज़रूरी है, कि दिव्य हिन्दी के वे पहले लेखक हैं, जिनकी किताब मुसाफिर कैफे इंग्लिश पब्लिशर वेस्लैंड से छपी है। वेस्टलैंड ने पहली बार कोई हिन्दी किताब छापी है। अब तक ये पब्लिकेशन सिर्फ इंग्लिश किताबें छापता आया है, लेकिन दिव्य प्रकाश दुबे जैसे हिन्दी के ज़िद्दी लेखकों को पढ़ने वाली बढ़ती तादात को देखते हुए वेस्टलैंड को हिन्दी में अपना बाज़ार नज़र आया और इन्होंने अंग्रेजी प्रकाशन होने वाबजूद हिन्दी किताब छापने का फैसला लिया। दिव्य ने अब तक तीन किताबें लिखी हैं, टर्म्स एंड कंडीशन, मसाला चाय और मुसाफिर कैफे। टर्म्स एंड कंडीशन को भी लोगों ने खासा पसंद किया था, जो की बेस्टसेलर में थी और मसाला चाय दिव्य की दूसरी बेस्टसेलर रही। मुसाफिर कैफे ने भी अच्छी कमाई की और 10 दिन में 5के तक की बिक्री की।
दिव्य की कहानियों को पढ़ते हुए लगता है, कि कहानी में लिखी घटना हो न हो दिव्य की ज़िंदगी से ही जुड़ी हुई है और यही एक बेहतरीन लेखक की पहचान है, कि वह अपनी कहानियों के किरदार में इस तरह घुस जाये कि उनके जैसा हो जाये। यही उसके लेखन की बारीकी और किरदारों से उसकी मोहब्बत है। दिव्य नई वाली हिन्दी के साथ न्याय करते हुए शब्दों को अपनी कहानियों में बहुत कठिन होने की बजाय सरलता से लिखने की कोशिश करते हैं, ताकि उनके शब्द आज हिंग्लिश पाठकों को कनेक्ट कर सकें और जैसे की वे खुद भी इसी तरह के हैं।
"लाइफ को लेकर योजनाएं बड़ी नहीं, बल्कि सिंपल होनीं चाहिए। योजनाओं के बड़े होने का मतलब है, ज़िंदगी का छोटा पड़ जाना। इसलिए मेरी ज़िंदगी की एक ही योजना है, हर साल सिर्फ एक किताब"
"हिन्दी में उलझना मुझे ऐसे लगता है, जैसे मैं अपने गाँव की ओर लौट रहा हूँ। शहर में सबकुछ है, लेकिन सुकून सिर्फ गाँव में है और वही सुकून मुझे मेरी हिन्दी में भी मिलता है"
दिव्य प्रकाश जो लिखते हैं, उसे पढ़कर लगता ही नहीं है, कि हम कुछ लिखा हुआ पढ़ रहे हैं, बल्कि लेखक अपने पाठकों से बात कर रहा होता है। इनकी लिखने और बोलने की शौली में कोई अंतर ही नहीं है या फिर कहा जाये तो इनकी लिखने की कोई शैली ही नहीं है। इनका अपना अलग ही अंदाज़ है और इनका यही स्टाईल इनके पाठकों को खूब पसंद आता है। दिव्य हिन्दी के स्थापित प्रतिमानों को तोड़ने में यकीन रखते हैं। इनके आलोचक भले ही इनकी लेखन शैली का विरोध करें, लेकिन इनका पाठक वर्ग इनकी हर कहानी में खुद को पाता है।
आने वाले दिनों में दिव्य हिन्दी के साथ और भी कई नये प्रयोग करने वाले है, साथ ही दिव्य ने अपने बुढ़ापे को लेकर भी कुछ प्यारी-प्यारी योजनाएं बनाई हैं। दिव्य अभी तो नहीं, लेकिन आगे चलकर बच्चों के लिए भी लिखना चाहते हैं। कहते हैं, अभी मैं इतना मेच्योर नहीं, कि बच्चों पर कुछ लिखूं, लेकिन भविष्य में यकीनन इस पर काम करूंगा।
"सोशल मीडिया ने हमारी डायरी के उस पन्ने को दुनिया के सामने खोल दिया है, जो एक टाइम पर हमारा रफ़ रजिस्टर हुआ करता था।"
आजकल दिव्य ने एक नया काम शुरू कर दिया है। सुना है वो स्टोरीबाज़ी भी कर लेते हैं। उड़िसा से सुहानी फोन पर बता रही थी, कि आज दिव्य प्रकाश दुबे की स्टोरीबाज़ी है, फिर पांच दिन बाद अहमदाबाद में बैठा रोहन बताने लगा कि दिव्य की स्टोरीबाज़ी कमाल होती है। नॉन हिन्दी पट्टी इलाकों में दिव्य की स्टोरीबाज़ी के चर्चे हैं। यानी कि अब हिन्दी पाठकों को इस बात की खुशी मनानी चाहिए, कि बहुत जल्दी हिन्दी किताबें उन हाथों में भी नज़र आयेंगी जिन्होंने हिन्दी का क' ख' ग' नहीं पढ़ा। दिव्य को पढ़ने के लिए तो हिन्दीं सीखनी ही पड़ेगी, क्योंकि दिव्य अंग्रेजी में नहीं लिखते।
दिव्य का सपना है, कि हिन्दी किताबें अंग्रेजी पाठकों के हाथों में हो और उन्हें इंतज़ार है उस दिन का जब टाईम्स अॉफ इंडिया के फ्रंट पेज पर किसी हिन्दी किताब का एड लगा हो, फिर वो किताब दिव्य की हो या फिर किसी और हिन्दी लेखक की।
जिनकी मदर टंग हिन्दी है, लेकिन वे हिन्दी बोलने और लिखने में शर्म महसूस करते हैं, अंत में दिव्य उनसे H. Jackson Brown Jr. की एक लाईन साझा करना चाहते हैं,
"Never make fun of someone who speaks broken English. It means they know another language.”