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रेप और डिप्रेशन से लड़कर गायकी को अपना सब कुछ देने वाली बेगम अख्तर साहिबा

"गजल के दो मायने होते हैं, पहला गजल और दूसरा बेगम अख्तर: कैफी आज़मी"

रेप और डिप्रेशन से लड़कर गायकी को अपना सब कुछ देने वाली बेगम अख्तर साहिबा

Thursday July 13, 2017 , 8 min Read

अनूठी गायिका बेगम अख्तर के गायन को लेकर तो काफी कुछ लिखा और पढ़ा गया है, मगर उनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में लोग बहुत ज्यादा नहीं जानते हैं। बेगम अख्तर जितनी अनूठी गायिका थीं, उतनी ही अनूठा उनका जीवन और व्यक्तित्व था। देश के बंटवारे के समय बेगम अख्तर के पति इश्तियाक अहमद अब्बासी पाकिस्तान जाना चाहते थे। वे मुस्लिम लीग के तत्कालीन नेता खलीक उज्जमां के भांजे थे। लेकिन बेगम अख्तर ने उनसे कहा कि वह संगीत और हिंदुस्तान के बिना नहीं जी सकेंगी।

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बेगम अख्तर की गायकी जहां एक ओर चंचलता और शोखी भरी थी, वहीं दूसरी ओर उसमें शास्त्रीयता और दिल को छू लेने वाली गहराइयां भी थीं। आवाज में गजब का लोच, रंजकता और भाव अभिव्यक्ति के कैनवास को अनंत रंगों से रंगने की क्षमता के कारण उनकी गाईं ठुमरियां बेजोड़ हैं।

हिन्‍दुस्तान में शास्त्रीय रागों पर आधारित गजल गायकी को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाली विख्यात गायिका बेगम अख्तर के परिचय में उर्दू के अजीम शायर कैफी आजमी की कही यह पंक्ति ही काफी है- 'गजल के दो मायने होते हैं, पहला गजल और दूसरा बेगम अख्तर।' उनकी गायकी जहां एक ओर चंचलता और शोखी भरी थी, वहीं दूसरी ओर उसमें शास्त्रीयता और दिल को छू लेने वाली गहराइयां भी थीं। आवाज में गजब का लोच, रंजकता और भाव अभिव्यक्ति के कैनवास को अनंत रंगों से रंगने की क्षमता के कारण उनकी गाईं ठुमरियां बेजोड़ हैं। बेगम अख्तर अपनी मखमली आवाज में गजल, ठुमरी, ठप्पा, दादरा और ख्याल पेश कर मशहूर होनेवाली एक सदाबहार गायिका थीं। उनकी गायकी आज भी लोगों को दीवाना बना देती है। बेहद साफ आवाज और शुद्ध उर्दू उच्चारण रखने वाली बेगम अख्तर हिंदुस्तानी संगीत की कोहिनूर हीरा हैं। 

इस अनूठी गायिका के गायन को लेकर तो काफी कुछ लिखा और पढ़ा गया है, मगर उनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में लोग बहुत ज्यादा नहीं जानते हैं। बेगम अख्तर जितनी अनूठी गायिका थीं, उतनी ही अनूठा उनका जीवन और व्यक्तित्व था। देश के बंटवारे के समय बेगम अख्तर के पति इश्तियाक अहमद अब्बासी पाकिस्तान जाना चाहते थे। वे मुस्लिम लीग के तत्कालीन नेता खलीक उज्जमां के भांजे थे। लेकिन बेगम अख्तर ने उनसे कहा कि वह संगीत और हिंदुस्तान के बिना नहीं जी सकेंगी।

नन्ही बिब्बी से अख्तरी बाई और फिर कालजयी बेगम अख्तर बनने का सफर

फैजाबाद में सात अक्तूबर 1914 को जन्मीं बेगम अख्तर के बचपन का नाम बीबी था। सात साल की उम्र से ही उनकी संगीत की तालीम शुरू हो गई थी और 15 वर्ष की उम्र से उन्होंने संगीत के कार्यक्रम शुरू कर दिए थे। पहले उन्हें अख्तरीबाई फैजाबादी के रूप में पहचान मिली। उन्होंने रोटी, नसीब का चक्कर, दाना पानी, अहसान सहित कई फिल्मों में भी काम किया। इश्तियाक अहमद अब्बासी से विवाह के बाद उनका गायन कुछ वर्षों के लिए बंद हो गया। वे बीमार रहने लगीं लेकिन फिर वे एक रोज आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र पहुंचीं और गायन की शुरुआत की। उन्हें बेगम अख्तर का नया नाम मिला। वह बचपन से ही पार्श्व गायिका बनना चाहती थीं लेकिन उनके परिवार वाले उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ थे। लेकिन उनके चाचा ने उनके शौक को आगे बढ़ाया। जिसके बाद उन्होंने सारंगी के उस्ताद इमान खां अता मोहम्मद खान से संगीत की शिक्षा ली।

कुलीन परिवार से ताल्लुक रखने वाली अख्तरी बाई को संगीत से पहला प्यार सात वर्ष की उम्र में थियेटर अभिनेत्री चंदा का गाना सुनकर हुआ। उस जमाने के विख्यात संगीत उस्ताद अता मुहम्मद खान, अब्दुल वाहिद खान और पटियाला घराने के उस्ताद झंडे खान से उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत की दीक्षा दिलाई गई।

अपने हुनर के लिए भारत सरकार द्वारा 1968 में पद्मश्री व सन 1975 में पद्मभूषण से नवाजी जाने वाली बेगम ने बचपन में गाना सीखने से ही मना कर दिया था। बात उनके बचपन की है, बेगम उन दिनों सुर नहीं लगा पा रही थीं जिससे उनके गुरू ने उन्हें डांट दिया। वह इतनी निराश हुईं कि रोने लगीं और कह दिया कि हमसे नहीं होता। इसके बाद उस्ताद ने उन्हें मनाया और फिर से कोशिश करने को कहा, जिसके बाद वह अच्छा सुर लगाने में कामयाब रहीं। कुलीन परिवार से ताल्लुक रखने वाली अख्तरी बाई को संगीत से पहला प्यार सात वर्ष की उम्र में थियेटर अभिनेत्री चंदा का गाना सुनकर हुआ। उस जमाने के विख्यात संगीत उस्ताद अता मुहम्मद खान, अब्दुल वाहिद खान और पटियाला घराने के उस्ताद झंडे खान से उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत की दीक्षा दिलाई गई।

अख्तरी ने 15 वर्ष की बाली उम्र में मंच पर अपनी पहली प्रस्तुति दी थी। यह कार्यक्रम वर्ष 1930 में बिहार में आए भूकंप के पीड़ितों के लिए आर्थिक मदद जुटाने के लिए आयोजित किया गया था, जिसकी मुख्य अतिथि प्रसिद्ध कवयित्री सरोजनी नायडू थीं। वह अख्तरी की गायिकी से इस कदर प्रभावित हुईं कि उन्हें उपहार स्वरूप एक साड़ी भेंट की।

रेप की वीभत्सता को हराने वाली बेगम अख्तर

कई उस्तादों से सीखा मगर संगीत की तालीम का यह सफर कोई सुखद सफर नहीं था। सात साल की उम्र में बिब्बो के एक उस्ताद ने गायकी की बारीकियां सिखाने के बहाने उनकी पोशाक उठाकर अपना हाथ उनकी जांघ पर सरका दिया। इस प्रसंग के बहाने बताते चलें कि बेगम अख्तर पर किताब लिखने वाली रीता गांगुली ने एक जगह कहा है कि संगीत सीखने वाली करीब 200 लड़कियों से उन्होंने बात की और लगभग सभी ने अपने उस्तादों को लेकर इस प्रकार की शिकायत की। तेरह साल की उम्र में बिब्बो, अख्तरी बाई हो गई थीं। तब बिहार की एक रियासत के राजा ने उनका कद्रदान बनने के बहाने उनका रेप कर दिया। लेकिन इस क्रूर हादसे के बावजूद बेगम अख्तर ने दोबारा खुद को समेटा और जीवन को नए सिरे से शुरू किया।

सारे बंधन को तोड़कर संगीत को दिया अपना जीवन

शादी के बाद सामाजिक बंधनों की वजह से बेगम साहिबा को गाना छोड़ना पड़ा। गायकी छोड़ना उनके लिए वैसा ही था, जैसे एक मछली का पानी के बिना रहना। वे करीब पांच साल तक नहीं गा सकीं, जिसके कारण वह बीमार रहने लगीं। यही वह वक्त था जब संगीत के क्षेत्र में उनकी वापसी उनकी गिरती सेहत के लिए हितकर साबित हुई और 1949 में वह रिकॉर्डिग स्टूडियो लौटीं। उन्होंने लखनऊ रेडियो स्टेशन में तीन गजल और एक दादरा गाया। इस प्रस्तुति के बाद उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े और उन्होंने संगीत गोष्ठियों में गायन का रुख किया। गायकी का यह सिलसिला उनकी आखिरी सांस तक जारी रहा। बेगम साहिबा का आदर समाज के जाने-माने लोग करते थे। सरोजनी नायडू और शास्त्रीय गायक पंडित जसराज उनके जबर्दस्त प्रशंसक थे, तो कैफी आजमी भी अपनी गजलों को बेगम साहिबा की आवाज में सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे।

खुदा की नेमत बेगम अख्तर

उन्होंने न सिर्फ़ संगीत की दुनिया में वापस कदम रखा बल्कि हिंदी फ़िल्मों में गायन के साथ अभिनय भी शुरू कर दिया। नाटकों से उनका रिश्ता 20 के दशक और हिंदी फ़िल्मों से 30 के दशक में ही जुड़ गया था। अदाकारा के रूप में उनकी आखिरी पेशकश थी सत्यजीत रे की बंगाली फ़िल्म ‘जलसा घर’ जिसमें उन्होंने शास्त्रीय गायिका का किरदार निभाया था। उन्होंने करीब 400 रचनाओं को अपना स्वर दिया। ढेरों पुरस्कार मिलने और असंख्य प्रशंसक हासिल करने के बावजूद बेगम अख्तर में लेशमात्र भी घमंड नहीं था। वे पूरी उम्र मशहूर उस्तादों से सीखती रहीं। उनकी इच्छा थी कि केवल अच्छा ही नहीं गाना है, बल्कि बेहतर से बेहतर भी होते जाना है। बेगम अख्तर ने 1961 में पाकिस्तान, 1963 में अफगानिस्तान और 1967 में तत्कालीन सोवियत संघ में भी अपने सुरों का जादू बिखेरा। भारत सरकार ने इस सुर साम्राज्ञी को पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया था। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था।

एक महान गायिका की अप्रतिम विदाई

1974 में बेगम अख्तर ने 30 अक्तूबर, अपने जन्मदिन के मौके पर कैफी आजमी की यह गजल गाई- 'वो तेग मिल गई, जिससे हुआ था कत्ल मेरा, किसी के हाथ का लेकिन वहां निशां नहीं मिलता।' इसे सुनकर वहां मौजूद कैफी सहित तमाम लोगों की आंखें नम हो गईं। किसी को नहीं मालूम था कि इस गजल का यह मिसरा इतनी जल्द सच हो जाएगा। बेगम अख्तर जब अहमदाबाद के मंच पर ये पर गा रही थीं तब उनकी तबीयत काफी खराब थी। उनसे अच्छा नहीं गाया जा रहा था। ज्यादा बेहतर की चाह में उन्होंने खुद पर इतना जोर डाला कि उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा, जहां से वे वापस नहीं लौटीं। हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। लखनऊ के बसंत बाग में उन्हें सुपुर्दे-खाक किया गया। उनकी मां मुश्तरी बाई की कब्र भी उनके बगल में ही थी।

-प्रज्ञा श्रीवास्तव

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