इनका दलित उम्दा की उनका दलित!
राष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर हाजिर बहस पर एक नज़र...
आजकल बेहिसाब चखचख मचाए हुए हैं। और कुछ नहीं तो चलो, राष्ट्रपति चुनाव पर ही तालियां बजा लेते हैं। बहस हाजिर है। बहस चल रही है। दलित का जवाब, दलित से। इनका दलित उम्दा कि उनका! यानी राष्ट्रपति पद के लिए योग्यता और अनुभव के कोई मायने नहीं, 'दलित' के जवाब में 'दलित' होना ज्यादा जरूरी है...
अपने शहर में एक दरोगा जी हैं। हफ्ते में एक बार जरूर मौका निकालकर कप्तान साहब के मझले बेटे को (जो एसपी का सबसे मुंहलगा है) टॉफी-समोसा खिला आते हैं। अब वह बर्गर-पिज्जा की डिमांड करने लगा है। तब से दरोगा जी भी मोटी मछलियां नाधने लगे हैं।
खड़हर खड़ा अकेला....! तरह-तरह की सार्थक-निरर्थकताएं। कुछ लोग यूं ही जिए जा रहे हैं। कुछ लोग यूं ही लिखे जा रहे हैं। कुछ लोग बस यूं ही कुछ-न-कुछ पढ़ते रहते हैं। कुछ लोग यूं ही विश्व पुस्तक मेले तक में पहुंच जाएंगे और जो किताब दिख जाए, खरीद लेंगे। इन निठल्ली निरर्थकताओं में तो भी कुछ-न-कुछ सार्थकता झलकती है। होती भी है। मसलन, इन दिनों राष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर बहस हाजिर है, एक निठल्ले सवाल के साथ कि इनका दलित उम्दा की उनका दलित! वाह रे सियासत...
कुछ लोग ऐसे मिले, जिन्हें कोई रोग-व्याधि नहीं, बस यूं ही बाबा रामदेव को सराहने में जुटे हुए हैं रात दिन। जैसे चाटुकार और चापलूस अपनी पार्टियों के नेताओं को अनायास सराहते रहते हैं। कुछ लोगों को बेवजह ठिस्स-ठिस्स हंसने की आदत होती है और कइयों को इसी तरह मुस्कुराने की। जैसे कालेज के बड़े बाबू प्रिंसिपल साहब को देखकर दबे होंठ चपरासियों को हंसने के लिए उकसाते रहते हैं। एक जनाब पेशे से पत्रकार हैं, एकदम फ्री के लांसर। उन्हें ट्रैफिक पुलिस वालों के साथ चौराहे पर खड़े होकर वहां से गुजरने वालों की आंखों में आंखों घुसेड़ने की लत है। अपने शहर में एक दरोगा जी हैं। हफ्ते में एक बार जरूर मौका निकालकर कप्तान साहब के मझले बेटे को (जो एसपी का सबसे मुंहलगा है) टॉफी-समोसा खिला आते हैं। अब वह बर्गर-पिज्जा की डिमांड करने लगा है। तब से दरोगा जी भी मोटी मछलियां नाधने लगे हैं।
एक कविजी हैं। पोखर के किनारे उनकी जर्जर कोठी है। उसमें एक खिड़की है। बगल में तख्त डालकर वह पोखर की तरफ मुंह किए बैठे-बैठे वहीं से दिनरात कवियाते रहते हैं। माथे से टकलू हैं। खिड़की की जाली से ही पता चल जाता है कि कोई महाकाव्य मकान के उस सिरे पर दमक रहा है। जब चिंतन-मनन करते-करते थक जाते हैं, सामने मोहल्ले की सड़क पर निकल आते हैं। आने-जाने वालों को तंज भरे अंदाज में निहारते रहते हैं। नमस्कार करते-कराते रहते हैं। जब वहां से भी थक जाते हैं, आगे नुक्कड़ पर पहुंच जाते हैं। देखते ही जूठन चाय वाला समझ जाता है कि विषखोपड़ा ग्राहकों का भेजा फ्राइ करने आ रहा है।
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वाकया ही कुछ ऐसा है। चाय की यह दुकान किसी जमाने में पूरे शहर में मशहूर थी। कवि जी ने एक दिन अपने पिछलग्गू नवोदित कवि से कहा कि इस चाय वाले रुपई को कविता करना सिखाओ। लिखने लगा तो फिर यहां मुफ्त की चाय का जुगाड़ पक्का। सो, बात निशाने पर लगी, मिशन कामयाब रहा। वाकई चाय वाला कवि हो गया। दुकान पर ग्राहक झख मार रहे होते और वह हिसाब-किताब वाली कापी में कविताएं लिखता रहता। वहां रोजाना कविगोष्ठियां होने लगीं। एक दिन ऐसी नौबत आई, कि उसे दुकान बेंच कर भाग खड़ा होना पड़ा। तब से यह नया चायवाला दुकान थामे हुए है। कवि जी को देखते ही उसे पुराने दुकानदार रुपई के दुर्दिन याद आ जाते हैं।
जमाने के सताए हुए कुछ ऐसे लोग भी मिलते रहते हैं, जो आजकल सोशल मीडिया में हींक-छींक रहे हैं। जब देखा कि गुरू यहां तो मामला जोरदार चल निकला है, कलम-डायरी छोड़कर किसी के भी खेत में चरस-गांजा बो दे रहे हैं। पढ़ने वालों में जमा-जुबानी तुक्का-फजीहत चल निकलती है और वह 'रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देख दिनन के फेर' की मुद्रा में किनारे बैठे चुपचाप तालियां बजाते रहते हैं। निठल्ली सियासत में ऐसों की भरमार है।
आजकल बेहिसाब चखचख मचाए हुए हैं। और कुछ नहीं तो चलो, राष्ट्रपति चुनाव पर ही तालियां बजा लेते हैं। बहस हाजिर है। बहस चल रही है। दलित का जवाब, दलित से। इनका दलित उम्दा कि उनका! यानी राष्ट्रपति पद के लिए योग्यता और अनुभव के कोई मायने नहीं, 'दलित' के जवाब में 'दलित' होना ज्यादा जरूरी है! जैसे डॉक्टरी के एग्जाम में प्रतिभा नहीं, आरक्षण कोटा ज्यादा जरूरी, पास होकर भले वह पेट की बजाए पीठ का ऑपरेशन कर डाले!