उनमें शब्द-शब्द लालित्य
वैष्णव-शाक्त सम्मीश्रित पारिवारिक पृष्ठभूमि के राय के जीवन का हर दिन काया और मन, व्यवहार और लेखन के नितांत संयमित अनुशासन से गुजरता था। उनके स्वभाव की तरह उनके निबंधों से भी शब्द-शब्द लालित्य बरसता था।
वैष्णव-शाक्त सम्मीश्रित पारिवारिक पृष्ठभूमि के यशस्वी ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय के जीवन का हर दिन काया और मन, व्यवहार और लेखन के नितांत संयमित अनुशासन से गुजरता था। उनके स्वभाव की तरह उनके निबंधों से भी शब्द-शब्द लालित्य बरसता था। 'हेमंत की संध्या' से देहावसान तक उनकी लेखनी ने किंचित विश्राम नहीं किया। साठ के दशक में जब वह सुव्यस्थित लेखन की ओर मुड़े तो एक वाकया गुजरा, जिससे पहली बार उन्हें देशव्यापी ख्याति मिली।

वैष्णव-शाक्त सम्मीश्रित पारिवारिक पृष्ठभूमि के राय के जीवन का हर दिन काया और मन, व्यवहार और लेखन के नितांत संयमित अनुशासन से गुजरता था। उनके स्वभाव की तरह उनके निबंधों से भी शब्द-शब्द लालित्य बरसता था। 'हेमंत की संध्या' के प्रकाशन से लेकर देहावसान (5 जून 1996) तक उन्होंने लगभग बीस संकलनों में संग्रहीत सैकड़ों ललित निबन्ध लिखे।
हिंदी के य़शस्वी ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय, जिनकी आज पुण्यतिथि है, मानो वह जन्मना सृजनधर्मी थे। आठवीं कक्षा से ही लब्धप्रतिष्ठ 'विशाल भारत', 'माधुरी' के पन्नों पर आने लगे थे। क्विंस कालेज पहुंचे तो वहां की 'साइंस मैग्जीन' का सम्पादन करने लगे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पत्रिका 'प्रज्ञा' में लिखने लगे। मार्च 1964 में 'प्रिया नीलकंठी' में संकलित उनका पहला ललित निबन्ध 'हेमन्त की संध्या' का 'धर्मयुग' में प्रकाशन हुआ। साठ के दशक में जब वह सुव्यस्थित लेखन की ओर मुड़े तो एक वाकया गुजरा, जिसने उन्हें देशव्यापी ख्याति दे दी। वर्ष 1962 में संसद में केंद्रीय शिक्षामंत्री प्रो. हुमायूं कबीर का भारत के इतिहास लेखन पर एक वक्तव्य प्रसारित हुआ।
कुबेरनाथ राय ने उसके प्रतिवाद में 'इतिहास और शुक-सारिका कथा' शीर्षक से अपना एक निबन्ध प्रकाशनार्थ 'सरस्वती' में भेजा। उस समय 'सरस्वती' के सम्पादक थे निराला जी जैसे साहित्यकारों के संश्रयदाता श्रीनारायण चतुर्वेदी। उन्होंने राय की पीठ थपथपाई। राय लिखते हैं - 'प्रोफेसर हुमायूं कबीर की इतिहास सम्बन्धी ऊल-जलूल मान्यताओं पर मेरे तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबन्ध को पढ़कर पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझे घसीटकर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष-बाण पकड़ा दिया। अब मैं अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग।'
वैष्णव-शाक्त सम्मीश्रित पारिवारिक पृष्ठभूमि के राय के जीवन का हर दिन काया और मन, व्यवहार और लेखन के नितांत संयमित अनुशासन से गुजरता था। उनके स्वभाव की तरह उनके निबंधों से भी शब्द-शब्द लालित्य बरसता था। 'हेमंत की संध्या' के प्रकाशन से लेकर देहावसान (5 जून 1996) तक उन्होंने लगभग बीस संकलनों में संग्रहीत सैकड़ों ललित निबन्ध लिखे। उनमें प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद बाँसुर, विषादयोग, पर्णमुकुट, महाकवि की तर्जनी, किरात नदी में चन्द्रमधु, पत्र: मणिपुतुल के नाम, मनपवन की नौका, दृष्टि-अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु, मराल, उत्तरकुरू, चिन्मय भारत, अन्धकार में अग्नि शिखा, आगम की नाव, वाणी का क्षीर सागर और रामायण महातीर्थम् आदि सुपठनीय एवं सुचर्चित रहे।
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एक दुर्लभ पांडुलिपि का अंतर्ध्यान
बंगाली परिवार में शादीशुदा होने के पहले से ही ब्रह्मपुत्र और बंगाल की माटी से उनका मुद्दत तक गहरा नाता रहा था। ‘शील गंधो अनुत्तरो’ उनकी एक आत्मीय सूक्ति थी। मर्यादा की पौध पर ही शील के सुदर्शन फूल खिलते हैं। शील की गंध ने बुद्ध को भी खींचा था। 'धम्म पद' में कहा गया है कि चंदनम् तगरम् वापि उप्पलम् अथ वास्सिझी, एतेसम् गंध जातानम् सील गंधो अनुत्तरो। चंदन, तगर, उत्पल या बेला, चमेली सुगंधित हैं, लेकिन इनकी गंध से बढ़कर शील गंध है। ग्रामीण परिवेश और उसके सिवान-मथार के वर्णन के बहाने आधुनिकता और आधुनिक मनुष्य की स्थिति पर केंद्रित 'संपाती के बेटे' भी उनका बहुचर्चित निबंध है। बताते हैं कि उस निबन्ध के सार्वजिनक होने के बाद उनसे मानो प्रश्न किए जाने लगे थे कि कौन हो तुम, जो आसाम के घने जंगलों में बैठकर अपने गाँव की खिड़की में बैठे मेरे उदास मन को झकझोर जाने की क्षमता रखते हो, तुम कोई भी हो, हमारे मन का असीम प्यार स्वीकारो।
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अपनी तरह के विरल सृजनधर्मी 'गंगा प्रसाद विमल'
'कुब्जा-सुन्दरी' सुंदरी को पढ़ते हुए जब ऐसे सरस भाषा-प्रवाह से गुजरना होता है, लगता ही नहीं कि कुबेरनाथ राय आज हमारे बीच नहीं हैं - 'हमारे दरवाज़े की बगल में त्रिभंग-मुद्रा में एक टेढ़ी नीम खड़ी है, जिसे राह चलते एक वैष्णव बाबा जी ने नाम दे दिया था, 'कुब्जा-सुंदरी'। बाबा जी ने तो मौज में आकर इसे एक नाम दे दिया था, रात भर हमारे अतिथि रहे, फिर 'रमता योगी बहता पानी'! बाद में कभी भेंट नहीं हुई। परन्तु तभी से यह नीम मेरे लिये श्रीमद्भागवत् का एक पन्ना बन गई।'