नवजात बच्चों में बहरेपन का पता लगाएगा 'सोहम'
एक स्टार्टअप कंपनी ने बनाया ऐसा उपकरण जो नवजात बच्चों में पता लगायेगा बहरेपन का...
बच्चों के न सुनने की क्षमता जेनेटिक व नॉन जेनेटिक दोनों कारणों से हो सकती है। यदि इसका बच्चे के चार साल तक के होने पर पता चलता है तो इलाज की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है। शुरुआत में ही बीमारी का पता चल जाने से इसका इलाज भी आसान है, जो कि अब तक नामुमकिन था, लेकिन आ गया है एक ऐसा उपकरण जो नवजात शिशुओं में बहरेपन की कमी का आसानी से पता लगायेगा और ये मुमकिन हुआ है एक स्टार्टअप की वजह से...
दुनिया भर में हर साल आठ लाख बच्चे बहरेपन के साथ पैदा होते हैं जिनमें एक लाख भारत में होते हैं। नवजात बच्चों में जन्मजात बहरेपन का पता लगाने के लिए स्कूल ऑफ इंटरनेशनल बायोडिजाइन कार्यक्रम के तहत एक स्टार्टअप कंपनी ने नया उपकरण 'सोहम' बनाया है।
सोहम कम लागत वाला चिकित्सा उपकरण है। इसमें बच्चे के सिर में तीन इलेक्ट्रोड लगाये जाते हैं और आवज होने पर दिमाग में विद्युत धारा के प्रवाह को मापा जाता है। यदि आवाज पर दिमाग में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है तो पता चल जाता है कि बच्चा बहरेपन का शिकार है।
दुनिया भर में हर साल आठ लाख बच्चे बहरेपन के साथ पैदा होते हैं जिनमें एक लाख भारत में होते हैं। नवजात बच्चों में जन्मजात बहरेपन का पता लगाने के लिए स्कूल ऑफ इंटरनेशनल बायोडिजाइन कार्यक्रम के तहत एक स्टार्टअप कंपनी ने नया उपकरण 'सोहम' बनाया है। एसआईबी कार्यक्रम का लक्ष्य देश में उन बीमारियों के लिए किफायती चिकित्सा उपकरणों का विकास करना है जिनके लिए अब तक कोई उपकरण हैं ही नहीं या काफी महंगे हैं। इसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और आईआईटी दिल्ली द्वारा संयुक्त रूप से क्रियान्वित किया जा रहा है। अब तक आम तौर पर बच्चों में बहरेपन का पता देर से चलता था जिससे इलाज भी उतना ही मुश्किल हो जाता था। कम उम्र में बीमारी का पता चल जाने पर इलाज आसान हो जाएगा। इससे देश में हर साल पैदा होने वाले ढाई करोड़ से ज्यादा बच्चे लाभांवित होंगे
बच्चों के न सुनने की क्षमता जेनेटिक व नॉन जेनेटिक दोनों कारणों से हो सकती है। यदि इसका बच्चे के चार साल तक के होने पर पता चलता है तो इसके इलाज की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है। शुरुआत में ही बीमारी का पता चल जाने से इसका इलाज भी आसान होगा। खास बात यह है कि मौजूदा तकनीकों के विपरीत इसमें जांच के लिए बच्चों को बेहोश करने की जरूरत नहीं होती। सोहम कम लागत वाला चिकित्सा उपकरण है। इसमें बच्चे के सिर में तीन इलेक्ट्रोड लगाये जाते हैं और आवज होने पर दिमाग में विद्युत धारा के प्रवाह को मापा जाता है। यदि आवाज पर दिमाग में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है तो पता चल जाता है कि बच्चा बहरेपन का शिकार है। मौजूदा सभी तकनीकों में नवजात में बहरेपन का पता लगाने के लिए बच्चे को बेहोश करना पड़ता है, जिसमें जोखिम भी होता है।
ऐसे काम करता सोहम
पोर्टेबल सोहम टेस्टिंग टूल में लगे तीन इलेक्ट्रोड को बच्चे के माथे पर फिट करके ऑडिटरी ब्रेन वेव्स के जरिए बच्चे की सुनने की क्षमता का परीक्षण होता है। यह टूल कोई भी आवाज होने पर दिमाग के श्रवण तंत्र में पैदा हुई इलेक्ट्रिकल रिस्पॉन्स को पकड़ता है। अगर कोई रिस्पॉन्स नहीं हो रहा, इसका अर्थ है बच्चा सुन नहीं सकता। यह उपकरण बैटरी से चलता है, इसके लिए बच्चे को कोई सुई लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। इस उपकरण का अन्य परीक्षण प्रणालियों की अपेक्षा महत्वपूर्ण लाभ यह है कि यह पेटेंट और इन-बिल्ट एल्गोरिथम है, जो परीक्षण संकेत से परिवेश के शोर को बाहर निकालता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि स्वास्थ्य क्लीनिकों में बहुत भीड़भाड़ और शोर हो सकता हैं। इस उपकरण को पांच नैदानिक केंद्रों में स्थापित किया गया है जो वर्तमान में श्रवण स्क्रीनिंग कार्यक्रम चला रहे हैं। इसका उद्देश्य बड़े पैमाने पर उत्पादन बढ़ाने से पहले प्रथम वर्ष में अस्पताल में पैदा होने वाले दो प्रतिशत बच्चों की जांच करना है। फिलहाल, इस उपकरण को पांच क्लीनिक में लगाकर परीक्षण किया जा रहा है। बड़े पैमाने पर इस टूल को लाॅन्च करने के साथ ही पहले साल में अस्पताल में पैदा होने वाले 2 फीसदी बच्चों के परीक्षण का लक्ष्य रखा गया है।
क्यो होता है बच्चों में बहरापन
जन्म से ही सुनाई न देना, आनुवांशिक और गैर-आनुवांशिक दोनों ही वजहों से हो सकता है। इसका पता बच्चे की उम्र चार साल से अधिक होने पर पता चलता है, तब तक इसको दूर करने के लिए बहुत देर हो चुकी होती है। इससे कई बार बच्चे बोल पाने में भी असमर्थ होते हैं और मानसिक रूप से भी बीमार हो सकते हैं। इन सबका बच्चे पर गहरा कुप्रभाव पड़ता है तथा जन्म पर्यन्त खामियाजा भुगतना पड़ता है।
स्वदेशी तकनीक का 'सोहम'
ये चिकित्सा उपकरण, बायोटैक्नोलॉजी विभाग, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन विकसित किया गया है। एसआईबी डीबीटी का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जिसका लक्ष्य भारत की नैदानिक आवश्यकताओं के अनुसार अभिनव और सस्ते चिकित्सा उपकरणों को विकसित करना तथा भारत में चिकित्सा प्रौद्योगिकी आविष्कारकर्ताओं की अगली पीढ़ी को प्रशिक्षित करना है। यह सरकार के मेक इन इंडिया अभियान में एक महत्वपूर्ण योगदान है।
एम्स और आईआईटी दिल्ली ने अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के सहयोग से संयुक्त रूप से इस कार्यक्रम को लागू किया गया है। बायोटेक कंसोर्टियम इंडिया लिमिटेड इस कार्यक्रम की तकनीकी और कानूनी गतिविधियों का प्रबंधन करता है।