डॉक्यूमेंटरी के ज़रिए जीवन के कड़वे सच से रूबरू कराता ‘काॅमन थ्रेड’
पूर्व में ब्लूमबर्ग टीवी के साथ वृत्तचित्र निर्माण का काम कर चुकी रितु भरद्वाज की सोच का परिणाम है ‘काॅमन थ्रेड’वर्ष 2010 में 7 अन्य मित्रों और पूर्व सहयोगियों को मिलाकर फिल्म निर्माताओं के इस समूह का किया निर्माणभारतीय भूगोल पर बीबीसी के लिये एक वृत्तचित्र के निर्माण के लिये लंदन के एक प्रोडक्शन हाउस से मिलाया है हाथविभिन्न सामाजिक मुद्दों को आधार बनाकर स्वतंत्र रूप से वृत्तचित्रों का करते हैं निर्माण
रितु भारद्वाज ‘काॅमन थ्रेड’ की संस्थापक हैं जो ऐसे स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं का समूह है जो पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित फिल्में बनाते हैं। रितु के दादा-दादी वर्ष 1947 में हुए बंटवारे का दंश झेलकर पाकिस्तान से दिल्ली आ गए थे और यहां आने के बाद उन्होंनेे रिफ्यूजी कैंपों को अपना ठिकाना बनाया था।
चूंकि उनके माता-पिता बहुत सीमित संसाधनों के साथ बड़े हुए थे इसलिये जीवन के अनुभवों के आधार पर उन्हें शिक्षा के महत्व के बारे में पता था। ऐसे में जब रितु बड़ी हुईं तो उनका दाखिला सबसे अच्छे स्कूलों में करवाया गया और उन्हें अपनी पसंद के विषय पढ़ने की आजादी भी मिली।
रितु कहती हैं, ‘‘मैं बहुत कम उम्र से जानती थी कि मैं पत्रकारिता की पढ़ाई करना चाहती हूँ।’’ इस बारे में विस्तार से बताते हुए वे कहती हैं कि कुछ भी उन्हें उसकी इस इच्छा को पूरी करने से रोक नहीं पाया। वे आगे कहती हैं, ‘‘जब मैं छोटी थी तो वीडियो मुझे किसी अन्य माध्यम के मुकाबले सबसे अधिक प्रेरित और प्रभावित करता था। इसलिये मैंने फिल्म निर्माण की शिक्षा पूरी करने के बाद ब्लूमबर्ग टीवी के साथ नौकरी करनी शुरू कर दी। वहां पर मैं छोटे व्यवसायों, पर्यावरणीय मुद्दों, कृषि, सामाजिक मुद्दों आदि से संबंधित लघु वृत्तचित्र बनाने का काम करती थी। रितु के लिये ये प्रारंभिक मुकाबले कुछ नया खोजने की तरह थे जिन्होंने उन्हें इस क्षेत्र में और अधिक करने के लिये प्रेरित किया। ‘‘एक बड़े टीवी चैनल के साथ करने का दूसरा पहलू यह है कि वहां पर घटनाक्रम बहुत तेजी के साथ बदलता है और खबरों को बहुत तेजी के साथ बाहर आना होता है जिसकी वजह से हम जिन समाचारों की शूटिंग कर रहे होते हैं उनके बारे में विस्तार से जानने का समय ही नहीं होता है।’’ इसी वजह से उन्होंने वर्ष 2010 में इस नौकरी को छोड़ दिया और स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर दिया।
रितु बताती हैं, ‘‘उस समय मैंने अपना ध्यान यात्राओं में लगाया। मैं सुदूर इलाकों में स्थित गांवों में रहने के लिये जाती जहां न तो बिजली होती और पीनी भी सीमित होता। इसके अलावा मैं वहां पर कम से कम सुविधाओं के साथ रहने का प्रयास करती। मैं इस काम के फलस्वरूप अपने भीतर बहुत अच्छे प्रभाव और बदलाव देख पा रही थी क्योंकि अब मैं अपने पास मौजूद सीमित संसाधनों की सराहना करना सीख रही थी। मैं इन गांवों में रहने वाले लोगों से मिलकर खुद को बेहद गर्वांवित महसूस करती थी क्योंकि जिसे हम जीवन की कठिनाई मानते थे यह इन लोगों के लिये एक सामान्य विचार था।’’
जब वे पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाके की महिला किसानों से मिलीं तो उन्हें महसूस हुआ कि उनके बनाए हुए वृत्तचित्र सिर्फ सूचना देने का माध्यम न होकर ओर भी बहुत कुछ साबित हो सकते हैं। ‘‘अपने दैनिक जीवन के दौरान उनके द्वारा दिखाये गये विनम्रता और शक्ति के संयोजन को देखते हुए मुझे लगा कि मैं जो कर रही हूं उसका प्रभाव कहीं अधिक गहरा हो सकता है। वह उनके जीवन के बारे में था। ओर मुझे बर इसी परिपेक्ष्य और दिशा की तो आवश्यकता थी।’’
वर्ष 2010 में रितु ने फिल्म निर्माताओं के एक समूह को बनाने के कारे में विचार किया और अपने 7 अन्य मित्रों और पूर्व सहोगियों को अपने साथ मिलाकर ‘काॅमन थ्रेड्स’ की स्थापना की। ‘‘हम सबमें से कोई छायांकन का विशेषज्ञ था तो कोई पटकथा लेखन का, फोटोग्राफी किसी की विशेषता था तो किसी की शूटिंग। लेकिन हम सभी स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के रूप में एक समान संघर्ष और असुरक्षा की भावना से गुजर रहे थे इसीलिये यह नाम ‘काॅमन थ्रेड्स’ अपनाया।’’ अपने संचालन के दूसरे ही वर्ष में ये अपने कारोबार में पांच गुना की वृद्धि करने में सफल रहे हैं और इनका लक्ष्य अगले वर्ष तक इसे दोगुना करना है। इसके अलावा ये वर्ष 2014 की अखिल भारतीय पर्यावरण पत्रकारिता प्रतियोगिता भी अपने नाम कर चुके हैं।
‘काॅमन थ्रेड्स’ अबतक भारत में हाशिये पर रहने वाले समुदायों तक कानून की पहुंच, बच्चों की पुस्तकों के लेखक, पंचायतों की दुनिया, जयपुर ओर दिल्ली क निवासियों के खानपान की आदतों पर प्रभाव डालता शहरीकरण और उत्तराखंड में बीज संरक्षण जैसे विभिन्न विषयों को केंद्र में रखकर वृत्तचित्र का निर्माण कर चुके हैं। इसके अलावा इन्होंने बीबीसी के लिये भारतीय भूगोल पर एक वृत्तचित्र तैयार करने के लिये लंदन आधारित एक प्रोडक्शन हाउस के साथ हाथ मिलाया है। साथ ही ये लंदन के एक मुक्त विश्वविद्यालय के साथ शिक्षणशास्त्र पर आधारित वृत्तचित्र का भी निर्माण कर रहे हैं। यह मुक्त विश्वविद्यालय लंदन में वर्ष 2015 के बाँड इन्नोवेशन अवार्ड का विजेता रहा है।
रितु कहती हैं, ‘‘मुझे अपने काम से सबसे अच्छा यह लगता है कि इसमें निरंतर होने वाली नई खोजें मुझे संपूर्णता की भावना से भर देती हैं। यह मेरे लोगों तक पहुंचने और उनके साथ जुड़ने से शुरू होती है और जब गांवों में मेरा स्वागत किया जाता है या में उनकी रोजमर्रा की जिंदगी से रूबरू होती हूँ तो यह भावना जारी रहती है। यह एक सतत सीखने में प्रक्रिया है जो उनके साथ साझा किये हर अनुभव के साथ निरंतर आगे बढ़ती है और वृत्तचित्र चाहे किसी भी विषय पर तैयार हो रहा हो सबकुछ बहुत ही भावनातमक होता है। कई बार तो मैं शूटिंग के दौरान सामने आए तथ्यों के चलते या फिर ग्रामीणों से मिले प्रेम और सद्भाव की वजह से भावनातमक रूप से खुद को बड़ी कमजोर स्थिति में पाती हूँ। यह प्रक्रिया रुकती नहीं है और मुझे निरंतर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करती है क्योंकि यह एक न रुकने वाली प्रक्रिया है।’’
वे आगे कहती हैं, ‘‘मेरे ख्याल से वृत्तचित्र मेरे लिये खोज से कहीं अधिक हैं। प्रारंभ में मैं उनपर काम नहीं करना चाहती थी। में सिर्फ फिल्मों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहती थी लेकिन ब्लूमबर्ग के साथ हुआ अनुभव कि मैं वृत्तचित्र के क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकती हूँ। मुझे महसूस हुआ कि बात करने के लिये और भी कई महतवपूर्ण विषय हैं और ऐसे प्रश्नों जिनसे मैं या मेरे मिलने वाले रूबरू होते हैं उनका समाधान और जवाब खोजने की दिशा में वृत्तचित्र एक बेहद सशक्त माध्यम हैं।’’
रितु अनकहे रहस्यों को सामने लाने के लिये वृत्तचित्रों का निर्माण नहीं करती हें बल्कि वे ऐसी कहानियों को विभिन्न तरीकों से कहने का माध्यम तलाशती हैं जिनसे लोग पहले से ही वाकिफ हैं। ‘‘मेरे विचार से पर्यावरण को लेकर सक्रियता से काम की जरूरत को समझने वाले लोग एक बड़ी संख्या में मौजूद हैं और कई लोग इस विषय पर कुछ सकारात्मक करने का इरादा लेकर सामने आ रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इसके अलावा जलवायु परिवर्तन जैसे अन्य महत्वपूर्ण विषयों को लेकर भी जनभावना जागृत होनी चाहिये। हमें मिलकर एक व्यापक संदेश का प्रसार करने की आवश्यकता है ताकि लोग इन चीजों के अनकहे पक्षों को लेकर जागरुक हो सकें।’’
मुद्दे को और साफ करते हुए रितु कहती हैं, ‘‘वयक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि यह ‘प्रचार’ किया गया है कि पर्यावरण का समर्थन करने वाले विकास के विरोधी हैं। लेकिन इन बहस में हम विकास की असल परिभाषा और अवधारणा को कहीं पीछे छोड़ते जा रहे हैं।
हम इस मानसिता को बदलकर एक नयी मानसिकता का निर्माण कर सकते हैं बशर्ते हम सकारात्मक खबरें दिखाएं, आशा की भावना का संचार करें, युवाओं को अपने साथ जोड़ें और लोगों तक पहुंचकर उन्हें समझाएं के ऐसा करना बहुत हद तक संभव है। मैं आपको एक उदाहरण देती हूँ। हाल ही में उत्तर भारतीय राज्यों में आए भयंकर तूफान ने कई फसलों को नष्ट कर दिया था और उत्तराखंड भी उन राज्यों में से एक था लेकिन उसके कई किसान ने अन्य राज्यों के किसानों के मुकाबले कम नुकसान भुगता था। इसकी एक प्रमुख वजह यह रही कि यहां के किसानों ने प्राचीन तरीकों से बीजों का संरक्षण करते हुए मिट्टी के संरक्षण की तकनीक का इस्तेमाल किया। यह वास्तविकता में हुआ लेकिन तूफान से संबंधित 99 प्रतिशत खबरें उसके विनशकारी प्रभाव को लेकर ही आईं।’’
कितनी बार ऐसा होता है कि हम चुनौती देने का इरादा किये बिना ही मुख्यधारा के दृष्टिकोण से इन सवालों के जवसब को तलाशते हैं? चिमामंदा गोज़ी अदीची ने एक प्रसिद्ध टेडटाॅल्क में कहा कि कुछ भी एक अकेली कहानी के बारे में नहीं है लेकिन कई अलग-अलग कहानियों के बारे में मैं जो अपनी विविधता के बावजूद एक दूसरे का विरोध किये बिना साथ होती हैं। ‘काॅमन थ्रेड’ कालीन के नीचे से बह जाने वाली कहानियों को दुनिया के सामने लाने का प्रयास करती है। इनके वृत्तचित्र आगे बढ़कर यह सवाल उठाने का प्रयास करते हैं कि कहीं हम इस कथित ‘विकास’ की अंधी दौड़ में पीछे बहुत कुछ छोड़ते तो नहीं चले जा रहे हैं।