थैलेसीमिया के दर्द को भुलाकर जगाती हैं दूसरों की ज़िंदगी में उम्मीद की ‘ज्योति’
बीमारी के चलते स्कूल न जा सकीं तो पत्राचार से डबल एमए करने के अलावा यूके से क्रिएटिव राईटिंग में किया कोर्स...अबतक दो उपन्यास लिखने के अलावा मोबाइल और अन्य प्रौद्योगिकी की समीक्षा करती हैं अपने ब्लाॅग पर....थैलेसीमिया की बीमारी के चलते समय-समय पर ब्लड ट्रांस्फ्यूज़न और दर्दनाक इंजेक्शनों का करना पड़ता है सामना...
मंजिल उन्हीं को मिलती है जिनके सपनों में जान होती है,
पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है।।
आज हम आपको रूबरू करवा रहे हैं एक ऐसी शख्सियत से जिन्होंने थैलेसीमिया मेजर जैसी बीमारी को कभी अपनी सफलता के रास्ते का रोड़ा नहीं बनने दिया और इस शेर को वास्तविकता का रूप देने में सफलता पाई। वह एक उपन्यासकार हैं, उन्हें किताबों से बेहद प्यार है, इसके अलावा वह एक ब्लाॅगर हैं, तकनीक के क्षेत्र की अच्छी जानकार हैं और उन्हें अपने महिला होने पर गर्व है। गाजियाबाद की रहने वाली ज्योती अरोड़ा ने इस जानलेवा बीमारी के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि अपने सपनों को सच बनाने के लिये इसे एक हथियार की तरह प्रयोग किया और आज वे एक ऐसे मुकाम पर खड़ी हैं जहां पहुंचना किसी के लिये भी एक सपने सरीखा हो सकता है।
एनटीपीसी में अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त पिता और एक गृहिणी माता की तीन संतानों में से एक ज्योति के जन्म के तीन माह बाद इनके माता-पिता को इनकी इस जानलेवा बीमारी के बारे में मालूम हुआ। ज्याति के पिता बताते हैं कि बेटी की बीमारी के बारे में जानकर उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा लेकिन उन्होंने हार न मानने का जज्बा दिखाते हुए ज्योति को सामान्य बच्चों की ही तरह पालने-पोसने का फैसला किया। हालांकि ज्योति इस बीमारी के चलते अधिक समय तक स्कूल नहीं जा सकीं और सातवीं कक्षा के बाद उन्हें स्कूल को अलविदा कहना पड़ा।
इसके बाद भी ज्योति ने हार नहीं मानी और उन्होंने पत्राचार के माध्यम से अपनी पढ़ाई जारी रखी। बीते कई वर्षों से उन्हें हर 15 से बीस दिनों के अंतराल में ब्लड ट्रास्फ्यूज़न से गुजरना पड़ता है। लगातार होने वाली इस क्रिया के फलस्वरूप उनके शरीर में जमा होने वाले अत्याधिक लौहतत्व से छुटकारा पाने के लिये उन्हें सप्ताह में 4 से पांच बार एक इंजेक्शन को रातभर अपने शरीर में लगाना पड़ता है जो एक काफी दर्दनाक प्रक्रिया है। हालांकि ज्योति सामने आई इन चुनौतियों से विचलित नहीं हुई और उन्होंने अपनी इच्छाशक्ति के बल पर पत्राचार के माध्यम से अंग्रेजी साहित्य (English Literature) और मनोविज्ञान (Psychology) में एमए किया। इसके अलावा इन्होंने यूके से क्रियेटिव राईटिंग का एक कोर्स भी सफलतापूर्वक पूरा किया।
ज्योति ने इसके बाद बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना शुरू किया और इसके अलावा वे कुछ पत्रिकाओं के लिये लेख भी लिखने लगीं। ज्योति बताती हैं, ‘‘बच्चों को कुछ समय तक पढ़ाने के बाद मैंने कुछ वर्षों तक एक फ्रीलांस लेखक और कंटेंट डेवलपर के रूप में काम किया। उस दौरान मैंने छोटे बच्चों के लिये बिल्कुल प्रारंभिक स्तर की पुस्तकों को लिखने से लेकर बाॅलीवुड और आध्यम आधारित नाॅन-फिक्शन पुस्तकों का पुर्नलेखन किया। इसी दौरान मैं पुराने उत्कृष्ट अंग्रेजी साहित्य के संपेक्षण के काम में भी लगी हुई थी। इस दौरान मैं 30 से भी अधिक किताबों का संक्षिप्तीकरण करने में सफल रही।’’
ज्योति को प्रारंभ से ही किताबों से प्यार था और उन्हें किताबें पढ़ना बेहद अच्छा लगता था। उनका सपना था कि वे भी एक दिन एक किताब लिखेंगी और दूसरे उनकी इन किताबों का आनंद लेंगे। थोड़े समय तक बच्चों को पढ़ाने के बाद उन्होंने अमरीका स्थित एक रिक्रूटमेंट कंपनी के साथ काम करना प्रारंभ कर दिया। हालांकि थैलेसीमिया के साथ उनका संघर्ष चलता रहा लेकिन उन्होंने अपने भीतर के लेखक को जिंदा रखा और आखिरकार वर्ष 2011 आते-आते वे अपना पहला अंग्रेजी उपन्यास Dream’s Sake (ड्रीम्स सेक) पाठकों के सामने लाने में सफल रहीं। उनका यह उपन्यास विभिन्न शारीरिक विकलांगताओं से जूझ रहे लोगों के जीवन में आने वाली असुरक्षा की भावनाओं और उनके कटु अनुभवों पर आधारित है।
इसके कुछ वर्षों के बाद दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड ने उन्हें भीतर तक झझकोर दिया और उन्हें दूसरा उपन्यास लिखने की प्रेरणा मिली। ज्योति बताती हैं, ‘‘मैं दिल्ली गैंगरेप के बारे में सुनकर भीतर तक हिल गई थी और मैं दिल्ली में हो रहे विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा बनना चाहती थी, लेकिन अपने स्वास्थ्य को देखते हुए मेरे लिये ऐसा करना संभव नहीं था। ऐसे में मैंने एक बलात्कार पीडि़ता की दुर्दशा और उसके जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव पर केंद्रित अपने दूसरे उपन्यास Leamon Girl (लेमन गर्ल) को लिखा और स्वयं ही प्रकाशित किया।’’
उनके इन दोनों ही उपन्यासों को पाठकों और आलोचकों दोनों से ही काफी प्रशंसा मिली है। लेमन गर्ल के बारे में बात करते हुए ज्योति कहती हैं, ‘‘इस उपन्यास का प्रमुख चरित्र यौन उत्पीड़न से ग्रस्त होने के बाद अपनी मूल पहचान खो देती है। हालांकि इस घटना के बाद उसका एक पुरुष मित्र इस हादसे से उबरने में उसका पूरा साथ देता है लेकिन फिर भी वह अपने साथ हुई घटना को भुलाने में असफल रहती है। यह उपन्यास दर्शाता है कि कैसे यौन उत्पीड़न की शिकार अपनी स्थितियों-परिस्थितियों से उबरकर एक बार फिर से अपने मूल चरित्र को पाने में सफल होती है।’’ इस उपन्यास के बारे में और विस्तार के बताते हुए ज्योति कहती हैं, ‘‘इस उपन्यास में वर्णित प्रत्येक चरित्र मेरे दिमाग की उपज है और मनोविज्ञान के मेरे अध्ययन ने मुझे इन चरित्रों को वास्तविक रूप देने में काफी मदद की है।’’
हालांकि किताबें पढ़ना और लेखन करना उनके जीवन का पहला प्यार है लेकिन वह तकनीक और प्रौद्योगिकी के प्रति भी उतनी ही मुग्ध होती हैं। उनका अपना www.technotreats.com के नाम से ब्लाॅग है जिसमें वे विभिन्न मोबाइल फोन और अन्य तकनीकी उपकरणों के बारे में अपनी समीक्षा लिखने के अलावा कई वेबसाइटों की भी समीक्षा करती हैं। इन बीते वर्षों के दौरान वे स्वयं को मानसिक रूप से इतना मजबूत बना चुकी हैं कि अब उन्हें अपने सामने आने वाली चुनौतियां और जटिलताएं काफी मामूली लगती हैं।
वर्ष 2011 में ज्योति को अपने इस ब्लाॅग पर लिखी गई समीक्षा के चलते सैमसंग मोबाइलर आॅफ द ईयर चुना गया। इस पुरस्कार के लिये उन्हें देशभर से चुने गए 20 ब्लागरों में से चुना गया। वे इस ब्लाॅगिंग प्रतियोगिता में भाग लेने वाली इकलौती महिला प्रतियोगी थीं। इसके अलावा सिर्फ वही एक ऐसी प्रतियोगी थीं जिसने विज्ञान की पढ़ाई न करते हुए साहित्य में डिग्री हासिल की थी। ज्योति बताती हैं, ‘‘इसके अलावा मुझे अपनी रिक्रूटमेंट कंपनी की ओर से वर्ष 2014 के सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी के पुरस्कार से भी नवाजा गया है। साथ ही मुझे कुछ समय पूर्व दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी मेरे काम को काफी सराहा और उन्होंने मुझे पुरस्कृत भी किया।’’
ज्योति का कभी हार न मानने का जज्बा और गजब का धैर्य उन्हें उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। हाल ही में उन्हें विश्व थैलेसीमिया दिवस पर एक वक्ता के रूप में अपने विचार रखने के लिये भी आमंत्रित किया गया था। संयोग से यही दिन उनका जन्मदिन भी होता है। ज्योति ने इस मंच का प्रयोग इस बीमारी के बारे में जागरुकता फैलाने और इसे लेकर फैली हुई भ्रंतियों को दूर करने के लिये किया। वर्तमान में वे अपनी लेखनी के अलावा विभिन्न माध्यमों से थैलेसीमिया के बारे में जागरुकता फैलाने का काम कर रही हैं। इसके अलावा ज्योति वर्ष 2012 में थैलेसेमिक्स इंडिया एचीवर्स ट्राॅफी भी अपने नाम कर चुकी हैं।
ज्योति की बीमारी और उनके जज्बे के बारे में बात करते हुए उनके पिता ओमप्रकाश अरोड़ा कहते हैं, ‘‘उनकी बढ़ी हुई उम्र के चलते अब उनका कोई इलाज नहीं किया जा सकता है। यहां तक कि इस बीमारी के एकमात्र इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट का विकल्प भी सामने आई कई जटिलताओं की वजह से डाॅक्टरों द्वारा नकार दिया गया है। यह सिर्फ ज्योति की दृढ़ इच्छाशक्ति ही है जो उसे इतने वर्षों से आगे बढ़ने के लिये प्रेरित कर रही है।’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘माता-पिता के रूप में हमारे लिये अपनी बेटी का ब्लड ट्रास्फ्यूज़न होते देखना और उसका लगातार इंजेक्शन लेना काफी दर्दनाक अनुभव रहता है। उसे सप्ताह में कम से कम 5 बार 12 घंटों के लिये अपने शरीर में इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं ताकि वह अपने शरीर में तेजी से बढ़ रहे लौह तत्वों से छुटकारा पा सके। इन सब परेशानियों से हार मानने के बजाय उसने अपनी सारी ऊर्जा और ध्यान पहले तो पढ़ने-लिखने में लगाया और अब वह उपन्यास लिखने और ब्लाॅगिंग करके इस हालात से पार पा रही है।’’
आप ज्योति से उनकी वेबसाइट www.jyotiarora.com पर संपर्क कर सकते हैं।