महाराष्ट्र की किसान विधवाएं कठिन हालात से निकलकर पेश कर रही हैं मिसाल
विद्या उन तमाम विधवाओं में से एक हैं जिनके किसान पतियों ने खराब फसल और सूखे के चलते मौत को गले लगा लिया। वह कहती हैं कि किसानों की विधवाओं के लिए जिंदगी जीना आसान नहीं है।
हादसे के बाद उन्होंने हार नहीं मानी और कड़ी मेहनत की बदौलत अपनी जिंदगी को बदला। उन्होंने न केवल अपनी खेती का कर्ज चुकाया बल्कि आज वह लोगों के लिए प्रेरणा बन गई।
विद्या ने पहले खेतों में जाकर काम किया उसके बाद खुद से खेती सीखी। वह दिन में खेतों में मेहनत करती थीं और रात में सिलाई का काम करती हैं ताकि कुछ और पैसे कमाकर बच्चों के स्कूल की फीस भरी जा सके।
महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र किसानों की आत्महत्या के लिए कुख्यात है। हर साल इस इलाके में हजारों किसान फसल अच्छी न होने या कर्ज में डूब जाने पर खुदकुशी कर लेते हैं। लेकिन उसी क्षेत्र की विद्या मोरे किसानों के लिए मिसाल बन गई हैं। आज से ठीक दस साल पहले की बात है, विद्या के पति सहदेव फसल अच्छी न होने की वजह से कर्जे में चल रहे थे। बारिश के आसार नहीं होते थे और लगातार सूखे की वजह से खेती करने वाली जमीन बंजर होती चली जा रही थी। इन्हीं सब निराशाजनक हालात से तंग आकर उनके पति ने एक दिन अपनी झोपड़ी में मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली थी। उस वक्त विद्या और उनके बच्चे झोपड़ी में सो रहे थे। आग की लपटें देखकर विद्या किसी तरह झोपड़ी से बाहर निकलीं और अपने बच्चों को भी किसी तरह बाहर निकाल फेंका। लेकिन उनके पति उसी झोपड़ी में जल गए।
इसके बाद विद्या के जीवन में मुश्किलों का पहाड़ आ खड़ा हुआ। हादसे में वह काफी झुलस गई थीं, लेकिन आग की राख पर आंसू बहाने के बजाय उन्होंने खुद को बदलने की ठान ली। इस हादसे के बाद उन्होंने हार नहीं मानी और कड़ी मेहनत की बदौलत अपनी जिंदगी को बदला। उन्होंने न केवल अपनी खेती का कर्ज चुकाया बल्कि आज वह लोगों के लिए प्रेरणा बन गई। आज उनके बच्चे गणेश और वैष्णवी स्कूल में अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं। बेटा ग्यारहवीं कक्षा में है तो वहीं बेटी नवीं कक्षा की टॉपर है। गणेश आर्मी में जाकर देश की सेवा करने का सपना देखता है। दोनों बच्चे मां की मेहनत को साकार करने के लिए पूरी लगन से पढ़ाई कर रहे हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक विद्या कोई दूसरा काम नहीं बल्कि खेती ही कर रही हैं और उससे होने वाली आय से अपने पति का कर्ज चुकता कर रही हैं। वह कहती हैं कि बेटे को आर्मी में जाना है और बेटी पुलिस बनना चाहती है। इन बच्चों की इच्छा पूरी करना ही अब मकसद है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2014 से लेकर 2016 तक 3,880 किसानों ने आत्महत्या की। विद्या उन तमाम विधवाओं में से एक हैं जिन्होंने खराब फसल और सूखे के चलते मौत को गले लगा लिया। वह कहती हैं कि किसानों की विधवाओं के लिए जिंदगी जीना आसान नहीं है।
उन्होंने बताया कि इतनी बुरी हालत हो जाने के बावजूद उन्हें परिवार की ओर से कोई सहायता नहीं मिली। विद्या के पति ने केवल 30 हजार रुपए के लिए 2 एकड़ जमीन बैंक में गिरवी रख दी थी। वह खेती के काम को अच्छे से नहीं जानती थीं, लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे सीखा और जानकारी इकट्टा कर किसान बन गईं। विद्या ने कहा, 'मैंने अपने आसपास ऐसी बहुत सी महिलाएं देखी हैं जो पति के जाने के बाद ठोकरें खाती हैं। उनमें से कुछ ने खुद की जिंदगी को मेरी तरह चलाना शुरू कर दिया है। मनीषा भी उन्हीं में से एक है, जिसके पति ने आत्महत्या कर ली फिर बाद में उसने आंगनबाड़ी में नौकरी करके अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।'
पढ़ाई-लिखाई से वंचित रहीं विद्या बताती हैं कि गांव के मर्दों को लगा कि एक औरत कैसे खेती कर रही है, इसलिए कई बार मेरे खेत तक आने वाले पानी की सप्लाइ को काट दिया गया। मगर मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैंने एक पुरुष की तरह जैसे हिम्मत को कायम रखा। आज मैं अपने बच्चों के लिए मां और पिता दोनों हूं। उन्होंने बताया, 'आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। मैंने अपने पति को काफी समझाया था कि कठिन परिश्रम करें, लेकिन उन्होंने शायद हार मान ली थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे बच्चे आग में जलकर जिंदा मरें। आखिर उनकी गलती ही क्या है, उन्हें क्यों सजा मिलती?'
विद्या ने पहले खेतों में जाकर काम किया उसके बाद खुद से खेती सीखी। वह दिन में खेतों में मेहनत करती थीं और रात में सिलाई का काम करती हैं ताकि कुछ और पैसे कमाकर बच्चों के स्कूल की फीस भरी जा सके। खेरडा गांव में ऐसे ही किसानों की कई सारी कहानियां हैं। यहां धोंडाबाई निंबुले ने भी अपने परिवार को गलत साबित करने के लिए कठिन परिश्रम किया। 1999 में अपने पति बाबूराव की आत्महत्या के बाद उनके ससुराल वालों ने उन्हें घर से निकालकर बाहर कर दिया। अपनी नवजात बेटी को लेकर वह अपने मायके चली आईं। उस वक्त सब यही सोचते थे कि वह भी अपने पति की तरह अपनी जिंदगी खत्म कर लेंगी, लेकिन वह अपनी बेटी को पालने के लिए प्रतिबद्ध थीं।
वह कहती हैं, 'अपने माता-पिता के घर आकर मैंने आंगनबाड़ी में सहायिका के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था। अब मैं सिलाई भी कर लेती हूं। मेरी बेटी साइंस कॉलेज में पढ़ रही है। मेरी जिंदगी तो बुरे हालात में गुजरी लेकिन उसकी जिंदगी शायद बेहतर हो जाए।' ढोंडाबाई की पड़ोसी मनीषा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उनके पति ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया था जिसके बाद वे अपने मायके चली आईं। वह भी आंगनाबाड़ी में ही काम करती हैं। ससुराल से अपने मायके आ जाने पर उन पर न जाने कितने ताने कसे गए, लेकिन वह कहती हैं कि अपने बच्चों को पालने के लिए काम करना गलत है क्या?
इन सब महिलाओं के भले के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सुनंदा कहती हैं कि इन महिलाओं ने हमें सिखाया है कि कठिन परिस्थितियों में भी जिंदगी कैसे जी जाती है। सुनंदा की संस्था किसानों की विधवाओं के लिए काम करती हैं। उनको सलाह देने के साथ ही बैंक से लोन लेने और खेती में किस तरह से खुद को स्थापित करें इसमें मदद करती है। वे निराश्रित विधवा महिलाओं का सर्वे कर उनकी मदद करती है। सुनंदा ने बताया कि 25 से 35 साल की ऐसी महिलाओं का एक समूह उनके सामने हैं जो अपने अपने पति का कर्ज उनके जाने के बाद चुका रही हैं। इसके लिए वह कड़ी मेहनत करती हैं। कलंब और वासी में ऐसी अधिकतर महिलाएं रहती हैं। यह महिलाएं अपने पति के आत्महत्या के बाद वह सब कुछ कर रही हैं जो उनके पति नहीं कर पा रहे थे। बच्चों की शिक्षा से लेकर बैंक का कर्ज चुकाने काम आसानी से कर रहे हैं। विद्या भी उन्हीं में से एक है।
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