दिल्ली में सड़क के किनारे चाय बनाने वाले, 24 किताबों के लेखक लक्ष्मण राव
आईटीओ पर हिंदी भवन के पास 25 वर्षों से चाय के खोखा चला रहे हैं लक्ष्मण राव...उनके लिखे उपन्यास ‘रामदास’ के लिए मिल चुका है इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती पुरस्कार....बच्चों को अपनी किताबों से रूबरू करवाने के लिये रोजाना 100 किलोमीटर साइकिल चलाते हैं लक्ष्मण...मजदूरी करते-करते 42 वर्ष की उम्र में पूरी की स्नातक की पढ़ाई...
ज़रूरी नहीं की जो आपका काम हो वही आपका आखिरी परिचय हो। संभव है दूसरा परिचय भी हो सकता है, जो आपके काम से एकदम मेल नहीं खाता है। कुछ ऐसा ही परिचय है लक्ष्मण रॉव का। पेट पालने के लिए काम है चाय बनाना और लोगों को पिलाना, लेकिन असली परिचय है लेखक के तौर पर। लक्ष्मण राव अबतक 24 पुस्तकों को लिख चुके हैं जिनमें से 12 तो प्रकाशित हो चुकी हैं और 6 पुर्नमुद्रण की प्रक्रिया में हैं। उनके लिखे हुए उपन्यास ‘रामदास’ के लिये उन्हें दिल्ली सरकार की तरफ से इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। जब भी समय मिलता है 62 वर्षीय लक्ष्मण राव अपनी कलम लेकर कुछ-न-कुछ लिखना शुरू कर देते हैं और लेखन युवावस्था से ही उनके जीवन का एक हिस्सा रहा है। उन्होंने वर्ष 1979 में अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित की थी। उनके सभी जानने वाले उन्हें ‘लेखकजी’ कहकर पुकारते हैं और यह संबोधन सुनकर लक्ष्मण राव की बांछे खिल जाती हैं।
उनका एक दूसरा परिचय भी है। अधिकतर लोगों की नजरों में लक्षमण अपनी टिन की केतली और कांच के कुछ गिलास के साथ दिल्ली के फुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले एक चायवाले से अधिक और कुछ भी नहीं हैं। लेखन का काम लक्ष्मण का जुनून तो हो सकता है लेकिन सिर्फ लेखनी के भरोसे वे अपना और अपने परिवार का पेट भरने में नाकाम रहते और ऐसे में अपना जीवन चलाने के लिये वे मात्र एक रुपये प्रति कप की अकल्पनीय कीमत पर चाय बनाकर बेच रहे हैं। और ऐसा करते समय उन्हें हर समय चैकन्नी निगाहों से अपने आस-पास ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं पहले की तरह एमसीडी की टीम आकर दोबारा उनका चाय का खोखा उजाड़ न जाए। वे बीते 25 वर्षों से चाय बेचने का काम कर रहे हैं ओर इस काम को करने से पहले वे एक बर्तन मांजने वाले, एक मजदूर और घरेलू नौकर के रूप में भी काम कर चुके हैं।
जीवन के इतने समय तक इन अपनी जीविका चलाने के लिए इन विभिन्न कामों को करने के दौरान भी लक्ष्मण ने कभी अपने भीतर के लिखने के जुनून को मरने नहीं दिया। वास्तव में उनका जीवन देश के कलाकारों की मार्मिक स्थिति का एक आईना भर है। राव की गरीबी और गुमनामी की स्थिति की कहानी हमारे देश में अंग्रेजी में लिखने वाले अमीर और प्रसिद्ध लेखकों और उनके जैसे हिंदी या अन्य भाषाओं में लिखने वालों के बीच की गहरी खाई को भी रेखांकित करते हुए लेखन के क्षेत्र में फैली असामनताओं को दुनिया के सामने लाती है।
गौर करने वाली बात यह है कि लक्ष्मण राव को किसी से कोई शिकायत नहीं है और वे एक सच्चे लेखक की निशानी के तौर पर लोगों को अपनी लेखनी पढ़ते देखकर ही खुश हो जाते हैं। पाठकों तक अपनी लिखी किताबों को पहुंचाने की ललक में वे रोजाना अपनी साइकिल से दिल्ली के एक छोर से दूसरे पर स्थित शैक्षिक संस्थानों ओर पुस्तकालयों तक का सफर बिना नागा तय करते हैं। उनसे किताबें खरीदने वाले अधिकतर लोगों को शायद ही कभी अहसास होता हो कि वे ही न किताबों के लेखक हैं।
लक्ष्मण कहते हैं, ‘‘मुझे देखकर कोई भी यह नहीं कह सकता कि मैं किताबें लिखता हूँ। मेरी खस्ताहाल साइकिल और पसीने और धूल से लथपथ मेरे फटेहाल कपड़ों को देखकर वे मुझे भी अन्य किताबों की फेरी लगाने वाला समझते हैं। जबतक कोई मुझसे किताब के लेखक के बारे में नहीं पूछता है मैं किसी को नहीं बताता कि यह मेरी ही लिखी हुई पुस्तकें हैं।’’
जब उन्हें किसी जिज्ञासु पाठक या उपभोक्ता के सामने अपनी पहचान के बारे में बताना पड़ता है तो सामने वाला भौचक्का रह जाता है और वह उन्हें कुर्सी ओर चाय के पूछना नहीं भूलता।
अपने लिखे हुए को किताब के रूप में प्रकाशित करने के लिये राव को एक झटके की आवश्यकता थी। जब एक प्रकाशक ने उनकी लिखी हुई एक पांडुलिपी को बिना सरसरी सी नजर डाले ही उसे खारिज कर दिया और उन्हें अपमानित करते हुए अपने दफ्तर से बाहर निकाल दिया तो उन्हें बहुत धक्का लगा। लक्ष्मण ने उसी क्षण यह फैसला कर लिया कि वे अब अपने दम पर किताब प्रकाशित करके उसे बढ़ावा देंगे। वे अपनी लिखी एक किताब की 1000 प्रतियों के प्रकाशन के लिये 25 हजार रुपये के आसपास का खर्चा करते हैं। वे कहते हैं, ‘‘मैं अपनी एक किताब की बिक्री से जो फायदा कमाता हूँ उसे अगली किताब के प्रकाशन में खर्च कर देता हूँ।’’ लेकिन लक्ष्मण प्रकाशन के काम को लेकर काफी गंभीर हैं और आने वाले वर्षों में वे अपनी बची हुई 13 किताबों को प्रकाशित करने का पक्का इरादा रखते हैं। इसके अलावा उन्होंने आईएसबीएन नंबर प्राप्त करने के अलावा ‘भारतीय साहित्य कला प्रकाशन’ के नाम से एक प्रकाशनगृह भी पंजीकृत करवा रखा है।
प्रकाशकों के अलावा लक्ष्मण अपनी लिखी हुई किताबें लेकर साहित्य के समाज के कई कथित ठेकेदारों के दरवाजों के चक्कर लगाते रहे लेकिन किसी ने भी इनके काम पर नजर डालने की जहमत नहीं उठाई ओर अधिकतर इन्हें दुत्कार का ही सामना करना पड़ा। उनकी नजरों में वे कैसे दिखते हैं और उनका पहनावा उनके काम को नापने का पैमाना था। लक्ष्मण ने समाज में स्वीकार्यता पाने की दिशा में स्नातक में दाखिला भी लिया। वे दिन में निमार्णाधीन मकानों में मजदूरी का काम करते और रात में सड़क की रोशनी में पत्राचार से चल रही अपनी स्नातक की पढ़ाई का अध्ययन करते।
आखिरकार 42 वर्ष की उम्र में वे स्नातक की डिग्री पाने में सफल रहे लेकिन लोगों को उनके बी.ए. के प्रमाणपत्र में कोई दिलचस्पी नहीं थी। ‘‘कोई भी यह विश्वास करने को तैयार नहीं था की सड़क के किनारे चाय बेचकर अपने परिवार का पेट पालने वाला एक गरीब आदमी किताबें लिख और पढ़ भी सकता है। उनका कहना होता था कि अगर आप एक लेखक हैं तो आप सड़क के किनारे फुटपाथ पर क्या कर रहे हैं।’’ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हिंदी भाषा में 20 किताबों के लेखक लक्ष्मण राव भारत में हिंदी साहित्य के सबसे बड़े भंडार हिंदी भवन के बाहर सड़क के किनारे चाय बेच रहे हैं। वे एक लगभग अछूत से लेखक हैं और हिंदी भवन का एक विशिष्ट वर्ग के लिये आरक्षित माहौल उन्हें अपनाने को तेयार नहीं है और न ही वे उस माहौल का हिस्सा बनना चाहते हैं।
लक्षमण आईटीओ के पास स्थित विष्णु दिगंबर मार्ग के अपने छोटे से खोखे से दिल्ली के लगभग दूसरे छोर पर स्थित रोहिणी ओर वसंत कुंज के स्कूलों तक अपनी साइकिल से ही चक्कर लगाते हैं। उनका अस्थायी खोखा खुले आसमान के नीचे स्थित है और उसमें चाय तैयार करके बेचने के लिये जरूरी थोड़ा सा सामान जैसे एक पुराना जंग लगा मिट्टी के तेल का स्टोव, कुछ चाय के बर्तन, एक प्लास्टिक का जग और चाय के कुछ कप आसानी से देखे और पहचाने जा सकते हैं। इसके अलावा वे अपने खोखे में बड़े गर्व के साथ अपनी प्रकाशित पांच पुस्तकों को भी प्रकाशित करते हैं। बारिश की कुछ बूंदे पड़ते ही लक्ष्मण को अपने इस अस्थायी ठिकाने को छोड़कर अपने पीछे स्थित दीवार का रुख करना पड़ता है और खुद को और अपनी किताबों को पानी से बचाने के लिये दीवार और अपनी साइकिल के बीच एक पन्नी से अस्थायी छत का निर्माण करना पड़ता है।
वे रोजाना सुबह-सवेरे ही साइकिल से अपने इस खोखे पर आकर अपने दोनों बेटों में से किसी एक को वहीं की जिम्मेदारी सौंपकर एक झोला भरकर किताबें उठाते हैं और उस दिन के लिये निर्धारित स्कूलों की तरफ साइकिल से ही रुख कर देते हैं। वे दोपहर बाद तक ही वापस आते हैं और अपने बेटे से दुकान की जिम्मेदारी वापस अपने ऊपर ले लेते हैं। उनकी सूची में 800 से अधिक छोटे और बड़े स्कूल हैं जिनका वे अबतक दौरा कर चुके हैं। इनमें से 400 से कुछ अधिक स्कूलों ने इनकी लिखी किताबों में रुचि दिखाई और उन्हें खरीदकर अपने पुस्तकालय में रखने की सहमति दी और दूसरे चार सौ ने इन्हें सिरे से खारिज कर दिया। वे कहते हैं, ‘‘कभी अगर कोई शिक्षक मुझे बाहर जाने के लिये कहता है तो मैं उसपर नाराज नहीं होता और मैं उस दिन को अपना एक बुरा दिन मानकर कुछ दिन बाद दोबारा उनसे मिलने जाता हूँ। मैं तबतक अपनी कोशिशें जारी रखता हूँ जबतक वे कम से कम मेरी किताबों पर एक नजर डालने के लिये तैयार नहीं हो जाते हैं।’’
लक्ष्मण ने दिल्ली के कुचलने को तैयार ट्रैफिक और चिलचिलाती धूप में भी अपनी इस कष्टकारी यात्रा को साइकिल से ही करने का फैसला लिया है क्योंकि वे अपनी सूची में शामिल स्कूलों तक पहुंचने के लिये बस या रिक्शा के खर्च को वहन नहीं कर सकते हैं। किताबों को लिखना और फिर उन्हें बेचने के लिये जीतोड़ मेहनत करना वास्तव में उन्हें समय और संसाधनों से खाली करता जा रहा है, लेकिन लक्ष्मण की सोच इस बारे में बिल्कुल जुदा है।
वे कहते हैं, ‘‘पैसा बनाने और कमाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। मैं एक ऐसे अमीर आदमी जो किताबों से बिल्कुल प्यार नहीं करता होने के मुकाबले एक गरीब लेखक के रूप में जीवन गुजारकर भी खुश हूँ।’’
लक्ष्मण किराये के एक कमरे के मकान में अपनी पत्नी रेखा और दो बेटों हितेश और परेश के साथ रहते हैं और यहीं पर वे रात में लिखने का काम करते हैं। राव अपने दोनों बेटों को अधिक से अधिक शिक्षा दिलवाना चाहते हैं। शादी के बाद के प्रारंभिक वर्षों में रेखा अपने पति ले लिखने और पढ़ने के जुनून को लेकर काफी उलझन में रहीं लेकिन इस काम के प्रति उनका समप्रण जल्द ही उनकी समझ में आ गया। वे कहते हैं, ‘‘बहुत से लोगों की नजरों में मैं एक पागल इंसान हूँ। ऐसा समझने वाले अब भी काफी हैं, हालांकि अब उनकी संख्या पहले के मुकाबले काफी कम है।’’ विष्णु दिगंबर मार्ग पर अन्य दुकानदारों और चायवालों की नजरों में अब भी लक्ष्मण को लेकर काफी शंका रहती है। वे कहते हैं, ‘‘मेरे प्रति उनका रवैया बेहद सतर्क और बेचैनी भरा होता है। उन्हें मालूम है कि मैं न तो उनकी तरह एक सामान्य चायवाला हूँ और न ही मैं प्रसिद्धी और भाग्य से धनी एक प्रसिद्ध लेखक हूँ।’’
महाराष्ट्र के अमरावती के रहने वाले लक्ष्मण के तीन अन्य भाई जो अब भी वहीं रहते हैं उनके मुकाबले वर्तमान में खासे अच्छे आर्थिक हालात में अपना जीवन बिता रहे हैं। उनमें से एक कालेज में लेकचरर है तो दूसरा एक एकाउंटेंट है और तीसरा परिवार की पुश्तैनी खेती को संभाल रहा है। वे कहते हैं, ‘‘मैं अपनी जेब में सिर्फ 40 रुपये लेकर घर से भाग आया था। मैं दुनिया देखना चाहता था, सीखना चाहता था और सबसे बड़ी बात मैं किताबें पढ़ना और लिखना चाहता था।’’
घर से भागने के बाद लक्ष्मण सबसे पहले भोपाल पहुंचे और उन्होंने एक घरेलू नौकर के रूप में काम करना शुरू किया जहां उन्हें घर की सफाई से लेकर बर्तन साफ करने तक के काम करने पड़ते थे। इसके बदले में उन्हें तीन समय के भोजन ओर सिर छिपाने के लिये छत मिलने के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण चीज मिली वह थी शिक्षा। वे कहते हैं, ‘‘उन्होंने मुझे स्कूल जाने की आजादी दी और वहां काम करते-करते ही मैंने अपनी मैट्रिक की परीक्षा पास की।’’
लक्ष्मण 1975 में दिल्ली आए और अपना पेट पालने के लिये जो भी काम मिलता वह करते गए। कई वर्षों तक उन्होंने निर्माणाधीन साइटों पर दैनिक मजदूर के रूप में और सड़क किनारे के ढाबों में बर्तन मांजने का काम किया। 1980 में उन्होंने चाय बेचने का काम शुरू किया जिसे वे आजतक सफलतापूर्वक कर रहे हैं लेकिन उनकी दुनिया अब भी किताबों के चारों तरफ ही घूमती है। वे कहते हैं, ‘‘मैं अपना पूरा रविवार दरियागंज की गलियों में पढ़ने के लिये किताबें तलाशने में ही व्यतीत कर देता था।’’ पढ़ने के इस शौक ने उन्हें भारतीय लेखकों के अलावा शेक्सपीयर, और बर्नार्ड शा जैसे अंतर्राष्ट्रीय लेखकों से भी रूबरू करवाया।
कई ऐसे लोग हैं जो सिर्फ लक्ष्मण के साथ चाय की चुस्कियों के बीच बातचीत करने के लिये ही उनके पास आते हैं और ये वे लोग हैं जिन्होंने उनकी लिखी किताबों को पढ़ा है। विष्णु दिगंबर मार्ग पर स्थित दफ्तरों में काम करने वाले कई लोगों को विष्णु के लेखक होने के बारे में पता है और वे समय मिलते ही या काम से पहले या बाद में उनके साथ चाय के साथ बातचीत करने के लिये चले आते हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ विष्णु दिगंबर मार्ग पर काम करने वाले ही उनसे मिलने आते हैं। सुशील शर्मा जैसे लोगों के पास अपने कार्यालय के काम से फारिग होने के बाद उनसे मिलने आने के लिये और भी कई संकेत हैं।
एक कार्यलय में प्रबंधक के पद पर कार्यरत संजीव शर्मा कहते हैं, ‘‘मेरा कार्यालय सफदरजंग एंक्लेव में है और मैं विशेष रूप से अपना स्कूटर चलाकर यहां इनकी दुकान पर आता हूँ। मेरा इरादा यहां आकर सिर्फ चाय पीना नही है बल्कि मैं किसी के साथ उच्च गुणवत्ता का समय बिताने के क्रम में यहां आता हूँ। मैं यहां आकर लक्ष्मण के साथ अपने समाचार, विचार और विभिन्न मुद्दों पर राय का उनके साथ आदान-प्रदान करता हूँ और जब मैं वापस अपने घर जाता हूँ तो मेरी झोली ज्ञान से भरी होती है।’’
शिक्षित अभिजात्य वर्ग के अलावा विष्णु दिगंबर मार्ग पर छोटे-मोटे काम करके अपनी आजीविका चलाने वाले कई अन्य लोग भी लक्ष्मण की इस पढ़ने की बीमारी के शिकार हो गए हैं। एक इमारत की सुरक्षा में तैनात शिव कुमार चंद्र को तो उनकी किताबों से प्रेम हो गया है। शिव कुमार का कहते हैं, ‘‘मुझे उनकी लिखी किताबें पढ़ने में आनंद आता है विशेषकर उनके लिखे दो उपन्यास नर्मदा और रामदास तो लातवाब हैं। मैंने ये दोनों उपन्यास अपने पिता को भी पढ़ने के लिये दिये और ये उन्हें भी बेहद पसंद आए।’’ शिव कुमार बताते हैं कि उन्हें इलाके के ही एक अन्य सुरक्षाकर्मी ने लक्ष्मण की लिखी किताबों से रूबरू करवाया था।
लक्ष्मण की अधिकतर पुस्तकें एक ही व्यक्ति पर आधारित हैं और वे लगभग एक ही संघर्ष के इर्दगिर्द लिखी गई हैं। जी नहीं यह उस वित्तीय संघर्ष को कहीं इंगित नहीं करतीं जिससे लक्ष्मण रोज दो-चार होते हैं। उनके अधिकतर पात्र अमीर हैं और वे विलासिता की सभी वस्तुओं से लैस हैं हालांकि उनका संघर्ष लाक्षणिक है। वे अपने जीवन में प्रेम, कलात्मक योग्यता और महानता जैसी बड़ी चीजों को हासिल करने के लिये संघर्षरत हैं। अंत में वे कहते हैं, ‘‘मेरी लिखी पुस्तकें मेरे जीवन पर आधारित नहीं हैं लेकिन मुझे लगता है कि मेरी किताबें यथार्थवादी हैं। मैं अपने चारों ओर जो कुछ देखता और पाता हूँ ये उसका एक आईना हैं।’’