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चुनावी आहट से छत्तीसगढ़ में वायदों और दावों की बौछार

चुनावी आहट से छत्तीसगढ़ में वायदों और दावों की बौछार

Thursday October 18, 2018 , 7 min Read

चुनाव की आहट ने छत्तीसगढ़ के खास तौर से ग्रामीण इलाकों के कान खड़े कर दिए हैं। एक दावे के मुताबिक राज्य के करीब 40 लाख किसानों की प्रदेश की राजनीति में मजबूत पहल रहती है। इसे ही ध्यान में रखते हुए शासक दल और विपक्ष, दोनो किसानों से लोक लुभावन वायदे और दावे करने लगे हैं।

सांकेतिक तस्वीर

सांकेतिक तस्वीर


कृषि प्रधान प्रदेश छत्तीसगढ़ में जहां तक अन्नदाता की सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न है, कृषि पर दबाव बढ़ने से यह अब यहां के लिए लाभकारी व्यवसाय नहीं रहा है। कृषि को घाटे का सौदा होने की हकीकत को बदलने के लिए ठोस प्रयासों का अभाव दिखता है।

छत्तीसगढ़ में राजनीतिक दल किसानों पर रंग-ढंग फोकस करने लगे हैं। छत्तीसगढ़ किसान प्रधान राज्य है। करीब चालीस लाख किसान प्रदेश की राजनीति में अपनी मजबूत दखल रखते हैं। इसे ही ध्यान में रखते हुए भाजपा और कांग्रेस किसानों से लोक लुभावन दावे और वायदे करने लगी हैं। ये दोनो प्रमुख पार्टियां राजधानी रायपुर में अपने मिशन 2019 में जुट चुकी हैं। भाजपा किसान मोर्चा के अध्यक्ष पूनम चंद्राकर का कहना है कि इसमें ज्यादा से ज्यादा किसानों को मोर्चा से जोड़ा जा रहा है। जब सरकार की योजना के तहत किसानों को बोनस दिया जा रहा है, तो उसका लाभ तो मिलना चाहिए। किसान कांग्रेस के अध्यक्ष चंद्रशेखर शुक्ला कहते हैं कि भाजपा मतदाताओं को गुमराह कर रही है। वोटों का ध्रुवीकरण करना भाजपा की परंपरा है।

भाजपा हो या कांग्रेस, जहां तक राज्य के किसानों की प्रगति को लेकर आंकड़ों के दावे का प्रश्न है, एक कहावत ज्यादा मुफीद लगती है कि आंकड़े बिकिनी की तरह होते हैं, जो दिलचस्प चीजों को उघाड़ देते हैं, सच को छिपा लेते हैं। बेंजामिन डिजरायली आंकड़ों को 'झूठ, घिनौने झूठ' से भी ज्यादा बुरा बताते हैं। भारतीय राजनीति सबसे पहले किसान से ताल्लुक रखती है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश के जीडीपी में उसका योगदान आज 15 फीसदी से नीचे का है या सिर्फ 15 फीसदी है। जहां तक छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हैसियत का सवाल है, सिफर के पास पहुंच चुकी पार्टी चुनाव के मद्देनजर अचानक ताजादम दिखने लगी है और भाजपा भी आखिर आर्थिक संकेतकों की नाफरमानी कैसे कर सकती है?

इसका जवाब प्रदेश की खेती से जुड़े इस सच में है कि यहां की सियासत अब भी खेती ही तय करती है। राज्य का 49 फीसदी से ज्यादा कार्यबल खेतीबाड़ी में लगा है। जीडीपी में कृषि का हिस्सा भले ही 15 फीसदी से नीचे हो सकता है लेकिन जीडीपी के समतुल्य चुनाव और राजनीति में उसकी हिस्सेदारी करीब 60 फीसदी है। मजेदार बात यह है कि राहुल गांधी और मोदी, दोनों को ही यह बात समझ में आ चुकी है। यही कारण है कि राहुल का समूचा अभियान ग्रामीण संकट पर केंद्रित है। सबसे तेज सियासी शख्सियत के तौर पर मोदी भी पटरी बदल चुके हैं। उनकी बातें ज्यादातर ग्रामीण भारत, गरीबों और किसानों पर केंद्रित हो रही हैं।

चुनाव के मद्देनजर छत्तीसगढ़ में कृषि क्षेत्र के संकट को लेकर भाजपा और विपक्षी दलों में टकराव अब आमने-सामने दिखने लगा है। आने वाले दिनो में यह घमासान और तेज हो सकता है। विपक्षी दल किसानों और श्रमिकों को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। भाजपा अपने समर्थकों के साथ वर्कशॉप कर रही है ताकि नरेंद्र मोदी की कृषि क्षेत्र के लिए अनुकूल नीतियों का संदेश दिया जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए 1.21 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया जबकि उनकी सरकार के कार्यकाल में 2.12 लाख करोड़ रुपये का आवंटन हुआ है। पूर्ववर्ती सरकार की तरह हमारी योजनाएं फाइलों तक सीमित नहीं हैं।

केंद्रीय मंत्रिमंडल 2019 के लोकसभा चुनावों और आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर एमएसपी में उत्पादन लागत का 1.5 गुना की बढ़ोतरी कर सकता है। छत्तीसगढ़ में धान की उपज सियासत के लिए भी एक निर्णायक फसल है। केंद्र ने यहां धान की खरीद बढ़ाई है और पिछले खरीफ सीजन में राज्य सरकार ने सामान्य ग्रेड वाले धान पर 300 रुपये प्रति क्विंटल बोनस की घोषणा की लेकिन केंद्र ने इससे कहीं अधिक 1,550 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी तय कर दी। तिलहन और दालों की खेती मुख्यतौर पर खरीफ सीजन में छत्तीसगढ़ में होती है। भाजपा किसान मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शैलेंद्र सेंगर कहते हैं कि हम देश में किसानों का आंदोलन आयोजित करने की कांग्रेस की कोशिश को नाकाम करना चाहते हैं। नेताओं से कहा गया है कि वे सरकार की उपलब्धियों को ब्लॉक स्तर पर दिखाएं।

कृषि प्रधान प्रदेश छत्तीसगढ़ में जहां तक अन्नदाता की सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न है, कृषि पर दबाव बढ़ने से यह अब यहां के लिए लाभकारी व्यवसाय नहीं रहा है।कृषि को घाटे का सौदा होने की हकीकत को बदलने के लिए ठोस प्रयासों का अभाव दिखता है। आज चारो ओर किसान आंदेालनों का शोर हो रहा है लेकिन वास्तविक ठोस उपायों पर विचार करने का या तो राजनेताओं के पास समय नहीं है अथवा वे सिर्फ अपनी किसान परस्ती बनाये रखने के लिए आतुर दिख रहे हैं। किसानों की आत्महत्या पर गंभीर चिंतन करने के बजाय एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ने का कर्म कांड जोर-शोर से सुनाई दे रहा है। किसानों की बदहाली राजनेताओं के लिए जुमला बन गई है।

आजादी के बाद से ही किसान कर्ज के लिए बैंकों का मोहताज बना दिया गया। उससे अठारह प्रतिशत तक ब्याज वसूला गया क्योंकि उसकी सत्ता के गलियारे में पुकार अनसुनी रही है, वहीं उद्योग और वाणिज्य की लॉबी सशक्त रहती है। उन्होंने बैंकों की तरलता को सोख लिया जबकि किसान कर्ज के बोझ से दबता जा रहा है। आज भी उसकी साहूकारों पर निर्भरता खाज में कोढ़ बनी हुई है। विपक्षी आंदोलनों का मतलब भी सिर्फ सरकार के सामने कानून व्यवस्था की समस्या पैदा करना, अराजक तत्वों को संरक्षण देकर जन सुविधा छीनकर परेशानी पेश करना रह गया है।

सच तो ये है कि जिस तरह कृषि के सामाजिक दर्शन और अर्थशास्त्र को संवारने के प्रयास हुए हैं, उनकी अनदेखी करना निरा राजनैतिक अवसरवाद लगता है। किसान कल्याण की दिशा में किये गये कार्यों पर आज गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। फिलहाल, छत्तीसगढ़ में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का 56 प्रतिशत क्षेत्र तक विस्तार, प्राकृतिक आपदा में किसानों के लिए 18 हजार रुपए प्रति हेक्टर देय को बढ़ाकर 30 हजार रुपए कर देने, सूखा प्रभावित जिलों में विशेष सहयोग राशि, मूल्य स्थिरीकरण की दिशा में राज्य सरकार की सराहनीय भूमिका शासक दल के पक्ष में जाती है। सरकार ने डिफाल्टर किसानों को भी नियमित करने के लिए मुख्यमंत्री समाधान ऋण योजना ईजाद की है।

समाज शास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि छत्तीसगढ़ के गांवों में उद्यम लगाकर सहायक रोजगार के सृजन के साथ कृषि उपज का प्रसंस्करण कर अधिक मूल्य प्राप्त किया जा सकता है। राज्य में कृषि उत्पादों के गिरते मूल्यों के स्थिरीकरण के लिए पृथक कोष बनाया गया है। बेहतरी के लिए सरकार की नीतियों का विरोध लोकतंत्र का धर्म है। लेकिन लोक जीवन को पंगु बनाना न तो हितकर होता है और न समाज और कानून इसकी इजाजत देता है। किसान आंदोलनों का इतिहास बताता है कि इनकी विफलता का कारण मुकम्मल कृषि दृष्टि न होकर सियासत और व्यवस्था परिवर्तन होता है। इस सबके बावजूद यह वाकया गौरतलब है कि सरकार स्वयं विधानसभा में बता चुकी है कि 'वर्ष 2016-17 में प्रदेश के 111 किसान (बलौदाबाजार में 51, कबीरधाम में 22, दुर्ग में 13, बेमेतरा में 09, राजनांदगांव में 06) आत्महत्याएं कर चुके हैं', तो आखिर क्यों? सरकार का दावा है कि पारिवारिक विवाद, अत्यधिक शराब पीने, बीमारी से त्रस्त होकर और अज्ञात कारणों से उन किसानों ने आत्महत्या की है।

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