आज 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। मातृभाषा यानी मां की भाषा, जिसे सबसे पहले बच्चा सीखता है। मातृभाषा हमारी सामाजिक एवं भाषाई पहचान का पहला माध्यम होती है। मातृभाषा के इस शब्दार्थ को पर्याप्त नहीं माना जाता है। शब्द और भाषा के जानकार प्रश्न करते हैं कि बच्चे की भाषा को सिर्फ मां की ही भाषा कैसे माना जा सकता है? यदि पिता गैर भाषाभाषी है तो बच्चे की बोलचाल निश्चित ही पिता के संस्कारों से असम्पृक्त नहीं हो सकती है।
यदि स्वराज्य अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों को और उन्हीं के लिए होने वाला हो तो नि:संदेह अंग्रेजी ही राष्ट्रभाषा होगी लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षरों, निरक्षर बहनों और पिछड़ों व अत्यंजों का हो और इन सबके लिए होने वाला हो, तो हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है।
यूनेस्को से वर्ष 1999 में 17 नवंबर को 'मातृभाषा' दिवस को स्वीकृति मिली। मातृभाषा को दिवस के रूप में मनाने का उद्देश्य है भाषाई विविधता में एकता की स्थापना का प्रयास। निजी जीवन में मातृभाषा संस्कृति और संस्कार की संवाहिका होती है। मातृभाषा के पतन से संस्कृति और संस्कारों का पतन होता है। मातृभाषा की समुन्नति पूरे समाज के मूल्य बदल देती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते थे कि यदि विज्ञान को जन-सुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए।
भाषा के प्रश्न को लेकर जब मैकाले ने कहा था कि 'अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान की कुंजी है। यह पश्चिम की भाषाओं में भी सर्वोपरि है। यह भारत में शासकों द्वारा बोली जाने वाली तथा समुद्री व्यापार की भी भाषा है। यह भारत में वैसे ही पुनर्जागरण लाएगी, जैसे इंग्लैण्ड में ग्रीक अथवा लैटिन ले आई थी और जैसे पश्चिम यूरोप की भाषाओं ने रूस को सुसभ्य बनाया था। फिलहाल हमें एक ऐसे वर्ग के निर्माण का भरसक प्रयास करना चाहिए जो हमारे और हमारे लाखों शासितों के बीच एक दुभाषिय का काम कर सके। ऐसे मनुष्यों का वर्ग, जो रक्त और वर्ण से भारतीय हों लेकिन रुचि, सोच, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज हो।'
उस पर महात्मा गांधी ने करारा प्रहार करते हुए कहा था कि विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है। उन्हें रट्टू बनाया है। वह सृजन के लायक नहीं रहे। विदेशी भाषा ने देशी भाषाओं के विकास को बाधित किया है। यदि स्वराज्य अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों को और उन्हीं के लिए होने वाला हो तो नि:संदेह अंग्रेजी ही राष्ट्रभाषा होगी लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षरों, निरक्षर बहनों और पिछड़ों व अत्यंजों का हो और इन सबके लिए होने वाला हो, तो हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है। हिंदी में अनेक मातृभाषाएं (उपबोलियां) हैं – मारवाड़ी, मेवाती, मेवाड़ी, जयपुरी, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, खड़ीबोली, ब्रज, बुन्देली, कन्नौजी, मैथिलि, मगही, भोजपुरी, कुमायूंनी, गढ़वाली, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगाली, तमिल, तेलगु, कन्नड़, उर्दू आदि। भाषा के प्रश्न परवभारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं - अंग्रेजी पढ़ी के जदपि सब गुण होत प्रवीन। पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन।
शब्द-साधक पत्रकार अजित वाडनेकर के मतानुसार, 'मातृभाषा' शब्द को लेकर दुनियाभर में ज्यादातर लोग भ्रांति पालते हैं। अक्सर मातृभाषा शब्द का अभिप्राय उस भाषा से लगाया जाता है, जिसे मां बोलती है। मैं इस दृष्टिकोण को नहीं मानता, बल्कि परिवेश में जननि भाव देखते हुए, परिवेश की भाषा को ही मातृभाषा मानता हूं। इस संदर्भ में मेरा अपना नज़रिया है। सिर्फ मातृ शब्द की वजह से मातृभाषा का सही अर्थ और भाव समझने में हमेशा से दिक्कत होती है। मातृभाषा बहुत पुराना शब्द नहीं है, मगर इसकी व्याख्या करते हुए लोग अक्सर इसे बहुत प्राचीन मान लेते हैं। हिन्दी का मातृभाषा शब्द दरअसल अंग्रेजी के मदरटंग मुहावरे का शाब्दिक अनुवाद है। बच्चे का शैशव जहां बीतता है, उस माहौल में ही जननि भाव है। जिस परिवेश में वह गढ़ा जा रहा है, जिस भाषा के माध्यम से वह अन्य भाषाएं सीख रहा है, जहां विकसित-पल्लवित हो रहा है, वही महत्वपूर्ण है।'
अंग्रेजी राज में जिस कालखंड को पुनर्जागरणकाल कहा जाता है उसका उत्स बंगाल भूमि से ही है। राजा राममोहनराय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे उदार राष्ट्रवादियों का सहयोग अंग्रेजों ने शिक्षा प्रसार हेतु लिया। पूरी दुनिया में बह रही नवजागरण की बयार को भारतीय जन भी महसूस करें इसके लिए भारतीयों को पारंपरिक अरबी-फारसी की शिक्षा की बजाय अंग्रेजी सीखने की ज़रूरत मैकाले ने महसूस की। हम उसकी शिक्षा पद्धति की बहस में न पड़ें। सिर्फ भाषा की बात करें। हर काल में शासक वर्ग की भाषा ही शिक्षा और राजकाज का माध्यम रही है। मुस्लिम दौर में अरबी-फारसी शिक्षा का माध्यम थी।
यह अलग बात है कि अरबी-फारसी में शिक्षा ग्रहण करना आम भारतीय के लिए राजकाज और प्रशासनिक परिवेश को जानने में तो मदद करता था मगर इन दोनों भाषाओं में ज्ञानार्जन करने से आम हिन्दुस्तानी के वैश्विक दृष्टिकोण में, संकुचित सोच में कोई बदलाव नहीं आया क्योंकि अरबी फारसी का दायरा सीमित था। अरबी-फारसी के जरिये पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी प्राचीन भारत, फारस और अरब आदि की ज्ञान-परंपरा से तो जुड़ रहे थे मगर सुदूर पश्चिम में जो वैचारिक क्रांति हो रही थी उसे हिन्दुस्तान में लाने में अरबी-फारसी भाषाएं सहायक नहीं हो रही थीं।
'भारतीयों को अंग्रेजी भाषा भी सीखनी चाहिए, यह सोच महत्वपूर्ण थी। इसी मुकाम पर यह बात भी सामने आई कि विशिष्ट ज्ञान के लिए तो अंग्रेजी माध्यम बने मगर आम हिन्दुस्तानी को आधुनिक शिक्षा उनकी अपनी ज़बान में मिले। उसी वक्त मदर टंग जैसे शब्द का अनुवाद मातृभाषा सामने आया। यह बांग्ला शब्द है और इसका अभिप्राय भी बांग्ला से ही था। तत्कालीन समाज सुधारक चाहते थे कि आम आदमी के लिए मातृभाषा में (बांग्ला भाषा) में आधुनिक शिक्षा दी जाए। मातृभाषा शब्द की पुरातनता स्थापित करनेवाले ऋग्वेदकालीन एक सुभाषित का अक्सर हवाला दिया जाता है- मातृभाषा, मातृ संस्कृति और मातृभूमि।
वैदिक सूक्त में कहीं भी मातृभाषा शब्द का उल्लेख नहीं है। इला और महि शब्दों का अनुवाद जहां संस्कृति, मातृभूमि किया है वहीं सरस्वती का अनुवाद मातृभाषा किया गया है। मातृभाषा का जो वैश्विक भाव है उसके तहत तो यह सही है मगर मातृभाषा का रिश्ता जन्मदायिनी माता के स्थूल रूप से जो़ड़ने के आग्रही यह साबित नहीं कर पाएंगे कि सरस्वती का अर्थ मातृभाषा कैसे हो सकता है? यहां सरस्वती शब्द से अभिप्राय सिर्फ वाक् शक्ति से है, भाषा से है।
'वैदिकी भाषा, जिसमें वेद लिखे गए, अपने समय की प्रमुख भाषा थी। सुविधा के लिए उसे संस्कृत कह सकते हैं, मगर वह संस्कृत नहीं थी। वैदिकी अथवा छांदस सामान्य सम्पर्क भाषा कभी नहीं रही। विद्वानों का मानना है कि वेदकालीन भारत में निश्चित ही कई तरह की प्राकृतें प्रचलित थीं जो अलग अलग “जन” (जनपदीय व्यवस्था) में प्रचलित थीं। आज की बांग्ला, मराठी, मैथिली, अवधी जैसी बोलियां इन्हीं प्राकृतों से विकसित हुई। तात्पर्य यही कि ये विभिन्न प्राकृतें ही अपने अपने परिवेश में मातृभाषा का दर्जा रखती होंगी और विभिन्न जनसमूहों में बोली जाने वाली इन्ही भाषाओं के बारे में उक्त सूक्त में सरस्वती शब्द का उल्लेख आया है।
मेरा स्पष्ट मत है कि मातृभाषा में मातृशब्द से अभिप्राय उस परिवेश, स्थान, समूह में बोली जाने वाली भाषा से है, जिसमें रहकर कोई भी व्यक्ति अपने बाल्यकाल में दुनिया के सम्पर्क में आता है। जाहिर है कि मातृभाषा से तात्पर्य उस भाषा से कतई नहीं है जिसे जन्मदायिनी मां बोलती रही है। अकेली मां बच्चे के परिवेश के लिए उत्तरदायी नहीं है और न ही जन्म के लिए। सिर्फ मां की भाषा को मातृभाषा से जोड़ना एक किस्म की ज्यादती है, सामाजिक व्यवस्था के साथ भी। भारत समेत ज्यादातर सभ्यताओं में भी, कोई स्त्री, विवाहोपरांत ही बच्चे को जन्म देती है। बच्चे की भाषा के लिए अगर सिर्फ मां ही उत्तरदायी मान ली जाए, तब अलग-अलग भाषिक पृष्टभूमि वाले दम्पतियों में बच्चे की भाषा मातृपरिवार की होगी और बच्चे को वह भाषा सीखने के लिए माता का परिवेश ही मिलना भी चाहिए।
मातृसत्तात्मक व्यवस्थाओं में यह संभव है, मगर पितृसत्ताक व्यवस्था में यह कैसे संभव होगा? यह मानना कि प्रत्येक को अपनी मातृभाषा सिर्फ मां से ही मिलती है, मातृभाषा शब्द का आसान मगर कमजोर निष्कर्ष है और वैश्विक संदर्भ इसे अमान्य करते हैं। एक बच्चा मां की कोख से जन्म जरूर लेता है, मगर मातृकुल के भाषायी परिवेश में नहीं, बल्कि मां ने जिस समूह में उसे जन्म दिया है. उसी परिवेश की भाषा से उसका रिश्ता होता है। इस मामले में नारी मुक्ति या पुरुष प्रधानता वाली भावुकता भी बेमानी है। मातृसत्ता और पितृसत्ता के दायरे से बाहर आकर देखें तो भी बच्चे का शैशव जहां बीतता है, उस माहौल में ही जननि भाव है। जिस परिवेश में वह गढ़ा जा रहा है, जिस भाषा के माध्यम से वह अन्य भाषाएं सीख रहा है, जहां विकसित-पल्लवित हो रहा है, वही महत्वपूर्ण है। यही उसका मातृ-परिवेश कहलाएगा। माँ के स्थूल अर्थ या रूप से इसकी रिश्तेदारी खोजना फिजूल होगा।
भाषा का प्रश्न मातृभाषा से राजभाषा, राष्ट्रभाषा तक जाता है। और तब भाषा हमारे एक बड़े सामाजिक संदर्भों का बुनियादी माध्यम और संवाद का विषय बन जाती है। हिंदी-उर्दू भाषाओं का अंतर्द्वंद्व आज इसी माध्यमिक बुनियाद से जुड़ा है। भाषा का यही सवाल शासन और साम्राज्यवादी नीतियों, कुनीतियों तक हमें ले जाता है। भाषाई साम्राज्यवाद उस स्थिति को कहते हैं जिसमें किसी सबल राष्ट्र की भाषा किसी निर्बल राष्ट्र की शिक्षा और शासन आदि विविध क्षेत्रों से देशी भाषाओं का लोप कर देती है। इसके लिये घोषित या अघोषित रूप से एक ऐसी व्यवस्था उत्पन्न करके जड़ जमाने दी जाती है जिसमें उस विदेशी भाषा को न बोलने और जानने वाले लोग दूसरे दर्जे के नागरिक के समान होने को विवश हो जाते हैं।
जब हमारे देश में अंग्रेजों का शासन था, हिंदी-उर्दू शासन प्रणाली में दोयम दर्जे की होकर रह गई थीं। भाषाई-साम्राज्यवाद फैलाने का सबसे सशक्त और ऐतिहासिक उपकरण राजनैतिक साम्राज्य है। दक्षिण एशिया में अंग्रेज़ी भाषा का साम्राज्य तथा अफ़्रीका के अनेक देशों में फ़्रांसीसी का साम्राज्य राजनैतिक साम्राज्य में निहित शक्तियों के दुरुपयोग का ही परिणाम है किन्तु इसके साथ-साथ भाषाई-साम्राज्य को बनाए रखने और सतत प्रसार को सुनिश्चित करने के लिये मिथ्या प्रचार का सहारा लिया जाता है। बुनियादी तौर पर प्रत्येक संस्कृति का सार तत्व उसकी भाषा में अभिव्यक्ति पाता है। भाषा न केवल संस्कृति का अविभाज्य अंग है अपितु उसकी कुंजी भी है।
भाषा के बिना यदि संस्कृति पंगु है तो संस्कृति के अभाव में भाषा अंधी। यदि भाषा पर कही से कोई प्रभाव पड़ता है तो संस्कृति भी अप्रभावित नहीं रह सकती। किसी देश की संस्कृति आशय मुख्यतया वहां के निवासियों के आचार विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज और जीवन-प्रणाली से है। नृविज्ञान में संस्कृति का अर्थ समस्त “सीखा हुआ व्यवहार” होता है अर्थात् वे सब बातें जो हम किसी समाज के सदस्य होने के नाते सीखते है। इस प्रकार किसी जाति अथवा समाज के सम्यक संस्कार ही उसकी संस्कृति है। संस्कृति हमारी चिंतन का प्रतिफल होता है और वह चिंतन बिना भाषा के सम्भव नहीं है।
हमारा समस्त चिंतन-मनन, सोच-विचार भाषा के माध्यम से ही होता है। बिना भाषा के हम कुछ भी सोच-विचार नहीं कर सकते। स्पष्ट है हमारी समस्त चिंतन-प्रक्रिया भाषा द्वारा ही संचालित होती है। भाषा शब्दों का समूह मात्र नहीं है और न ही वह व्याकरणिक नियमों का संग्रह। भाषा तो मानवीय चेतना का मूर्त रूप है, जिस से उसकी संस्कृति की आत्मा भौतिक विश्व में व्यक्त होती है। ऐसी स्थिति में संस्कृति के निर्माण में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और वही हमारे संस्कारों की भी जननी होती है।
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