'वाई सेंटर', एक युवा भारतीय एंटरप्रन्योर के 'धैर्य' और कड़ी मेहनत का नतीजा
- मात्र 25 साल की उम्र में धैर्य पुजारा ने रखी वाई सेंटर की नींव- 19 साल की उम्र में मुबई में शुरू की थी किताबों की एक ऑनलाइन शॉप- चार अमेरिकी यूनिवर्सिटी के छात्र वाईसेंटर के कार्यक्रम के तहत अफ्रीकी महाद्वीप के मोज़ाम्बिक में कार्य कर रहे हैं।
मेहनत और लगन ये दो ऐसे शब्द हैं जो किसी भी व्यक्ति को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति में लगन है और वह मेहनती है तो वह हर बाधा को पार कर के आगे बढ़ सकता है, कोई भी चीज उसकी राह में अड़चन नहीं पैदा कर सकती। हौंसले और लगन से लबरेज एक ऐसे ही व्यक्ति हैं 25 वर्षीय धैर्य पुजारा जो इतनी कम उम्र में अपनी मेहनत, लगन और जज्बे के बूते एक एक सफल एंटरप्रन्योर बन चुके हैं। अमेरिका में एक बेहतरीन नौकरी को छोड़कर धैर्य ने अपने सपने को पूरा करने के लिए जी जान लगा दी और उसे अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लिया।
मुंबई में जन्में धैर्य ने अपने कॉलेज के दिनों में ही जब वे केवल 19 साल के थे एक ई-कॉमर्स कंपनी की शुरूआत कर दी थी ये कंपनी पुरानी किताबों को बेचा करती थी। इकोनॉमिक्स टाइम्स ने 2009 में पॉवर ऑफ आईडियाज के नाम से कार्यक्रम शुरू किया था जिसका उद्देश्य नए एटरप्रन्योर्स को प्रमोट करना था। धैर्य पुजारा की कंपनी को इस कार्यक्रम में सलेक्ट भी कर लिया गया था। एक 19 साल के युवा एंटरप्रन्योर के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन बाकी साथियों के विदेश में जाने की वजह से कंपनी को बंद करना पड़ा।
धैर्य मानते हैं कि उस कंपनी का तजुर्बा उन्हें बाद में काफी काम आया क्योंकि पिछले तजुर्बे से वे ये जान चुके थे कि उन्हें क्या नहीं करना है। धैर्य को ये बहुत पहले ही समझ आ चुका था कि वे 9-5 की नौकरी करने के लिए नहीं बने और वह उस तरह की नौकरी नहीं कर पाएंगे, इसी कारण वे हमेशा से कुछ नया करना चाहते थे वे चाहते थे कि उनके द्वारा किए गये काम का समाज में भी सकारात्मक प्रभाव पड़े और लोग उनके कार्य से प्रेरणा ले सकें। बचपने में भी धैर्य हमेशा अपने पिता से कहा करते थे कि वे नौकरी नहीं करना चाहते बल्कि दूसरों को नौकरी देना चाहते हैं।
2010 में धैर्य अमेरिका में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने गये उन्होंने बॉयोमेडिकल इंजीनियरिंग विषय को चुना।पढ़ाई के बाद जब उन्हें नौकरी मिली तो उनके परिवार वाले और मित्र सब काफी खुश थे लेकिन धैर्य के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था और पहले ही दिन उन्होंने अपने दफ्तर से आकर निर्णय लिया कि वे कल से नौकरी पर नहीं जाएंगे। ये निर्णय काफी बड़ा था जिसका उनके कैरियर पर काफी प्रभाव पड़ सकता था। पहली नौकरी को पहले ही दिन छोड़ना बहुत बड़ा फैसला था लेकिन धैर्य ने मन बना लिया था और उन्होंने रिजाइन कर दिया। उसके बाद उन्होंने अपनी युनिवर्सिटी के डीन की मदद से एक कार्यक्रम शुरू करने का निर्णय लिया। वह एक अंतराष्ट्रीय कार्यक्रम छात्रों के लिए शुरू करने का सोच रहे थे। उन्होंने डीन को कहा की वे उन पर भरोसा रखें और वे खुद शुरूआत में उस कार्य के लिए पैसा भी नहीं लेंगे बस काम करेंगें । इसी दौरान वे कई इंवेस्टर्स से मिले अपने कार्यक्रम के बारे में उन्हें बताया। एक ऐसी ही मीटिंग के दौरान एक इंवेस्टर ने उन्हे कहा कि तुम मात्र 24 साल के हो और तुम प्राईवेट कॉलेजों के लिए एक अंतराष्ट्रीय कार्यक्रम चलाने की सोच रहे हो जबकि न तो तुम्हें कोई तजुर्बा है न ही तुम अफ्रीका के देशों में गए हो जहां को फोकस करके तुमने ये कार्यक्रम बनाया है। इस प्रश्न मे धैर्य को सोचने पर मजबूर कर दिया और इस बात का उनके पास कोई सही उत्तर भी नहीं था। उसके बाद धैर्य ने अफ्रीका में मोज़ाम्बिक जाने का निर्णय किया वे खुद वहां जाकर पहले काम करना चाहते थे। तब तक वे कार्यक्रम को शुरुआत कर चुके थे।
मोज़ाम्बिक पहुंचने पर वे वहां लगभग 6 महीने रहे। इन 6 महीनों में उन्होंने काफी सीखा मोज़ाम्बिक में लोगों को अंग्रेजी बोलनी भी नहीं आती थी इसलिए उन्हें काफी दिक्कत भी हुई । अफ्रीकी महाद्वीप में लोगों की जिंदगी उतनी सरल नहीं थी। वहां गरीबी थी, साक्षरत कम थी लोगों को तकनीक की भी ज्यादा जानकारी नहीं थी। उन्होने वहां की भाषा सीखी ताकि वे वहां के लोगों के साथ घुल मिल कर रह सकें शुरूआत के 5 महीने उन्होंने एक ग्रामीण अस्पताल में बायो मेडिकल इंजीनियर के तौर पर काम किया।
वहां के लोग मेडिकल इक्विपमेंंट्स का प्रयोग नहीं कर रहे थे, धैर्य ने लोगों को उन इक्विपमेंंट्स का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे वहां पर लोग उन्हें जानने लगे और दूर दराज में ये बात फैलने लगी कि एक भारतीय युवा जो कि अमेरिका से है वो यहां के लोगों की मदद कर रहा है।
उसके बाद लोग उन्हें फोन करते और अपने घर में मौजूद इलेक्ट्रानिक्स के उपकरण सही करने को कहते वे बहुत जल्दी ही वे उस माहौल में घुल मिल गए।
धैर्य ने अपने काम को यहीं नहीं रोका उन्होंने मोज़ाम्बीक में पहला टेड एक्स कॉन्फ्रेंस आयोजित किया। इसका मकसद इंवेस्टर्स और रिसर्चर्स को एक साथ लाना था।
जब तक धैर्य वापस अमेरिका आए तब तक यूनिवर्सिटी ने उस कार्यक्रम को बंद भी कर दिया था और यहीं से शुरूआत हुई वाईसेंटर की और धैर्य के बतौर एंटरप्रन्योर कैरियर की। धैर्य ने सबसे पहले ये सुनिष्चित किया की क्रार्यक्रम किताबी कार्यक्रम न होकर जमीनी स्तर पर कार्य करे और सबकी जिम्मेदारी तय हो। वाई सेंटर छात्रों को विभिन्न देशों में ले जाता और वहां पर उन्हें सामाजिक कार्य करवाए जाते जिससे वहां रहने वाले लोकल लोगों को फायदा पहुंचता। तथा छात्रों को सीखने को मिलता।
एक छोटी टीम के साथ धैर्य ने वर्ष 2014 में वाई सेंटर को फिलाडेल्फिया, अमेरिका में रजिस्टर करवाया और अब यह एक अमेरिक कंपनी है। पीएचडी या इस तरह की कोई डिग्री न होने के कारण उन्हें काफी दिक्कत भी आती थी कोई कॉलेज व युनिवर्सिटी शुरूआत में उनकी बात तक नहीं सुनने को तैयार होती थी, लेकिन धीरे-धीरे वे आगे बढ़े और अपने साथ एक अच्छी टीम को खड़ा किया। उनकी टीम में फाउंडिंग डायरेक्टर के रूप में प्रोफेसर माईकल ग्रेलसर हैं, अादित्य ब्हमभट्ट बतौर प्रोग्राम डायरेक्टर के रूप में काम करते हैं।
एक शुरूआत दूसरी बड़ी चीज की नींव रखती है और यही हुआ धैर्य के साथ वे युनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया और ड्रेक्सिल के बोर्ड में शामिल हो गए और उनके कार्यक्रम को फिली डोगूर्ड अवार्ड से नवाजा गया जिससे उन्हें 30 हजार डॉलर की धनराशि ईनाम के रूप में मिली।
वाईसेंटर खोलने के बाद धैर्य जानते थे कि उन्हें वापस मोज़ाम्बीक जाना है और वहां पर मलेरिया के विरुद्ध एक जंग लडनी है। उन्होंने वहां मरीजों के लिए एक मोबाइल एस एम एस ऐप बनाई। अंतराष्ट्रीय अनुदान के कारण मरीजों को मुफ्त में इलाज तो मिल रहा था लेकिन मरीजों को अस्पताल तक लाना मुश्किल होता था क्योंकि कई स्वास्थ्य केन्द्र काफी दूर थे तो कई बार शिक्षा की कमी होने के कारण मरीज घर में ही अपना इलाज करना बेहतर समझते थे, जिससे कई बार ये बीमारियां भयंकर रूप ले लेती थीं। धैर्य चाहते थे कि जो चीज लोगों के लिए पहले से उपलब्ध है वे बस लोगों की उसके प्रयोग में उनकी मदद करें। किसी ने धैर्य को बताया कि मोज़ाम्बीक में लोगों के पास मोबाइल फोन, कोका कोला का कैन हमेशा रहता है इसके अलावा वहां के लोग ईश्वर में बहुत आस्था रखते हैं। क्योंकि लोगों के पास फोन था तो धैर्य ने एक ऐप बनाई उसके द्वारा लोग तबीयत खराब होने पर एक मैसेज भेज देते थे वो मैसेज पास के अस्पतालों और मेडिकल केंद्रों में फ्लैश हो जाता था और वे लोग अपनी टीम को उस मरीज तक भेज देते थे। मोज़ाम्बीक में एचआईवी का खतरा भी काफी था जो कि माताओं से उनके जन्म लेने वाले बच्चों में फैल जाता था। इस एप की मदद से औरते बिना किसी को पता चले सीधा डॉक्टर्स से संपर्क कर सकती थीं और सही समय पर अपना इलाज करवा सकतीं थीं।
आज वाईसेंटर मोज़ाम्बीक की सरकार के साथ मिलकर काम कर रहा है और चार अमेरिकी युनिवर्सिटी के छात्र इनके कार्यक्रम के तहत मोज़ाम्बीक में क्रार्य कर रहे हैं। धैर्य को उनकी इस सफलता के लिए विभिन्न मंचों पर बुलाया जा रहा है और लोग उनसे एक सफल सामाजिक एंटरप्रन्योर बनने के गुर सीख रहे हैं।