जन विरोधी लामबंदी से उम्रभर लड़ते रहे अदम गोंडवी
वह अंधेरा आज और सघन होता जा रहा है, जिस पर लोकप्रिय शायर अदम गोंडवी जिंदगी भर करारे प्रहार करते रहे। सियासी दरिंदगी, गरीबी, जांत-पांत और साम्प्रदायिकता के खिलाफ जंग लड़ते रहे अदम का आज जन्मदिन है।
'मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको', जैसी लम्बी कविता न केवल उस 'सरजू पार की मोनालिसा' के साथ बलात्कार, बल्कि प्रतिरोध की संभावना को सूंघकर ठाकुरों द्वारा पुलिस के साथ मिलकर दलित बस्ती पर हमले की भयानकता की कथा कहती है।
अदम गोंडवी हिंदी साहित्य की वह अमिट शख्सियत, जिनके शब्दों में ऐसी ऊंची लपटों का जुनून होता था कि मंचों पर कविता पाठ करते समय मानो वह समाज विरोधी शक्तियों का सर्वस्व नाश कर देना चाहते हों। अदम का घर का नाम रामनाथ सिंह था। गोंडा (उ.प्र.) के गांव आटा में भारत बंटवारे के वक्त 22 अक्टूबर, 1947 को जन्मे अदम ने 18 नवम्बर,2011 को लखनऊ के पीजीआई हॉस्पिटल में अंतिम साँसें ली थीं। अपनी ग़ज़लों को जन-प्रतिरोध का माध्यम बनाने वाले अदम गोंडवी ने इस मिथक को अपने कवि-कर्म से ध्वस्त किया कि यदि समाज में बड़े जन-आन्दोलन नहीं हो रहे तो कविता में प्रतिरोध की ऊर्जा नहीं आ सकती। सच तो यह है कि उनकी ग़ज़लों ने बेहद अँधेरे समय में तब भी बदलाव और प्रतिरोध की ललकार को अभिव्यक्त किया, जब संगठित प्रतिरोध की पहलकदमी समाज में बहुत क्षीण रही।
अदम गोंडवी आजीविका के लिए मुख्यतः खेती-किसानी करते थे। उनकी शायरी को इंकलाबी तेवर निश्चय ही उनकी संघर्षशील पक्षधरता से प्राप्त हुए। दिल्ली की चकाचौंध से सैकड़ों कोस दूर, गोंडा के आटा-परसपुर गाँव में खेती करके जीवन गुजारने वाले इस 'जनता के आदमी' की ग़ज़लें और नज़्में समकालीन हिन्दी साहित्य और निज़ाम के सामने एक चुनौती की तरह दरपेश हैं। यहाँ उनके कलाम में देखें फिरकापरस्ती और मतलबी सियासत का चेहरा -
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए।
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िए।
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए।
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए।
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए।
हमारे देश में जब-जब राजनीति की मुख्यधारा ने जनता से दगा किया, अदम ने अपने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल साबित किया। हिंदी कविता में जब कुछ बड़े कवियों की धूम मची थी, अदम गोंडवी अपने स्रोताओं और पाठकों को गांवों की उन तंग गलियों में ले गए जहां जीवन उत्पीड़न का शिकार हो रहा था। उन्होंने समय और समाज की कठोर सच्चाइयों, खासकर गरीबी, फिरकापरस्ती, जात-पांत पर करारे तंज कसे। 'मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको', जैसी लम्बी कविता न केवल उस 'सरजू पार की मोनालिसा' के साथ बलात्कार, बल्कि प्रतिरोध की संभावना को सूंघकर ठाकुरों द्वारा पुलिस के साथ मिलकर दलित बस्ती पर हमले की भयानकता की कथा कहती है।
ग़ज़ल की भूमि को सीधे-सीधे राजनीतिक आलोचना और प्रतिरोध के काबिल बनाना उनकी विशिष्टता रही। बिवाई पड़े पांवों में चमरौंधा जूता, मैली-सी धोती और मैला ही कुरता, हल की मूठ थाम-थाम सख्त और खुरदुरे पड़ चुके हाथ और कंधे पर अंगोछा, यह खाका ठेठ हिन्दुस्तानी का नहीं, जनकवि अदम गोंडवी का भी है, जो पेशे से किसान थे। जांत-पांत की भारतीय विभीषिका पर करारे प्रहार करते हुए अदम समाज को कुछ इस तरह आईना दिखाते हुए 'चमारों की गली' तक ले जाते हैं। अदम बताते हैं कि किस तरह सरयू नदी के कछार के निकट बसे किसी गांव में एक दलित किशोरी के साथ बलात्कार किया गया और पूरा समाज केवल मूकदर्शक बना रहा -
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को।
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है।
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया।
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से।
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो।
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही।
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था।
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर।
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे।
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"।
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
देश की जनता ही है जिसने गोरखनाथ, चंडीदास, कबीर, जायसी, तुलसी, घनानंद, सुब्रमण्यम भारती, रबींद्रनाथ टैगोर, निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन की रचनाओं को बहुत प्यार से सहेज कर रखा है। वह अपने सुख-दुख में इनकी कविताएं गाती है। अदम गोंडवी भी ऐसे ही कवि थे। उन्होंने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, कोई काव्य नायक सृजित नहीं किया बल्कि अपनी ग़ज़लों में इस देश की जनता के दुख-दर्द और उसकी टूटी-फूटी हसरतों को काव्यबद्ध कर उसे वापस कर दिया। आज़ादी के बाद के भारत का जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अनुभव है, वह अदम की कविता में बिना किसी लाग-लपेट के चला आता है। भारत के आम आदमी को साम्प्रदायिकता से आगाह करने की जैसी शक्ति अदम की ग़ज़लों में है, मोटे-मोटे ग्रंथों में भी नहीं। वह अपने धारदार शब्दों से खुद को सेक्युलर कहने, मानने वाले बुद्धिजीवियों की भी आखें विस्मित कर देते हैं। वह इसलिए कि, उन्होंने सेकुलरवाद किसी विश्विद्यालय या राजनीति की पाठशाला में नहीं पढ़ा था, बल्कि ज़िंदगी और समाज की गंगा-जमुनी तहजीब से वह पारंगत हुए। वह कहते हैं -
वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं।
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें।
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में,
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें।
इस जनकवि ने अपने कहन के लिए एक सरल भाषा चुनी, इतनी सरल कि कुछ ही दिनों में उत्तर भारत में किसी भी कवि सम्मेलन की शोभा उनके बिना अधूरी होती। उन्होंने लय, तुक और शब्दों की कारस्तानी से हटकर जनता के जीवन को उसके कच्चे रूप में ही सबके सामने रख दिया। वे जनता के दुख-दर्द को गाने लगे। अदम कहते थे कि 'जुल्फ-अंगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब, भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब, पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी, इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब, इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब।' अदम ने भुखमरी, गरीबी, सामंती और पुलिसिया दमन के साथ-साथ उत्तर भारत में राजनीति के माफियाकरण पर सबसे तीक्ष्ण शब्द दिए -
जो 'डलहौजी' न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे।
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।
सुरा औ' सुन्दरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर,
ये दिल्ली को रँगीलेशाह का हम्माम कर देंगे।
ये वन्देमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर,
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे।
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे,
ये अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।
नाज़ुक मौकों पर अदम की कविता ऐतिहासिक और रोज़मर्रा के सवालों को उठाती है। वह न केवल सवाल उठाती है बल्कि सवाल पर ध्यान केंद्रित किए रहती है। अदम गांव के किसी सहज ज्ञानी की तरह जानते थे कि अगर सवाल बदल दिया जाएगा तो जवाब भी बदल जाएगा। दानिशमंदी और अदबी दुनिया के हर एक बाशिंदे की तरह अदम का भी सपना था कि एक समतापूर्ण समाज बने, इस सपने को पाने के लिए हो रही गोलबंदी को ख़त्म करके भारत की जनता के सामने कुछ ऐसे मुद्दे ले आए गए, जिनके लिए लोग आपस लड़ मर रहे हैं। इस समाज विरोधी लामबंदी से अदम उम्र के आखिरी पड़ाव तक लड़ते-भिड़ते रहे।
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