वर्कप्लेस पर भेदभाव के खिलाफ वो कोर्ट पहुंची और अपना मुकदमा खुद लड़ा, अब कंपनी देगी 57 लाख रु. जुर्माना
डॉना पीटरसन का आरोप था कि मैटरनिटी लीव से काम पर लौटने के बाद काम पर उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया गया.
38 साल की डॉना पीटरसन भेदभाव के खिलाफ अपने इंप्लॉयर को कोर्ट में लेकर गईं, खुद ही अपना मुकदमा लड़ा, भरी अदालत में जिरह की और अंत में मुकदमा जीत गईं. अब इंप्लॉयर को डॉना को 60 हजार पाउंड यानी 57 लाख रुपए जुर्माना देना पड़ेगा.
इंग्लैंड के वेस्ट यॉर्कशायर में रहने वाली डॉना पीटरसन का आरोप था कि मैटरनिटी लीव से काम पर लौटने के बाद काम पर उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जा रहा था. डॉना इंग्लैंड की एक जानी-मानी सुपरमार्केट चेन मॉरिसंस (Morrisons) में काम करती हैं, जहां उन्हें अपने दूसरे बच्चे के जन्म के बाद भेदभाव का सामना करना पड़ा.
डॉना ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में विस्तार से उन घटनाओं का जिक्र किया है, जिसके चलते उन्हें यह कदम उठाना पड़ा. शुरू में तो उन्होंने कंपनी में अपनी शिकायत दर्ज करके न्याय पाना चाहा, लेकिन बजाय इसके कंपनी ने उन्हें ही नोटिस थमा दिया.
हुआ ये था कि जब वह दूसरे बच्चे के जन्म के समय मैटरनिटी लीव पर गईं तो उनके डिपार्टमेंट को रीस्ट्रक्चर किया गया. मॉरिसंस के साथ उनका कॉन्ट्रैक्ट में पार्ट टाइम जॉब का था, लेकिन छह महीने के बच्चे को घर पर छोड़कर काम पर आने वाली डॉना से फुल टाइम काम करने की डिमांड की गई. उन्हें बार-बार यह कहकर हैरेस किया गया कि वो काम पर ध्यान नहीं दे रही हैं. उनका काम वक्त पर पूरा नहीं हो रहा है, जबकि यह तथ्य नहीं था. कोर्ट में वो सारे रिकॉर्ड उनके पक्ष में काम आए.
इंप्लॉयर और अपने ऊपर काम कर रहे सहकर्मियों के व्यवहार से परेशान होकर डॉना ने आंतरिक शिकायत कमेटी का दरवाजा खटखटाया और अपने साथ हो रहे भेदभाव और हैरेसमेंट के बारे में उन्हें जानकारी दी. डॉना को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उसकी शिकायत को गंभीरता से लेने और मामले की पूरी जांच करने की बजाय कमेटी ने मामले को रफा-दफा कर डॉना को ही नोटिस थमा दिया.
डॉना को अब समझ में आ गया था कि यह सारी चालाकियां सिर्फ उसे नौकरी से निकालने के लिए की जा रही थीं. चूंकि कानूनन डॉना को जॉब से निकालना संभव नहीं था, लेकिन मैनेजमेंट ऐसी कोशिशें कर रहा था कि वह परेशान होकर खुद ही नौकरी छोड़ दे.
लेकिन नौकरी छोड़ने के बजाय डॉना ने कोर्ट (Employment Tribunal) जाना उचित समझा. लेकिन वहां जाकर उन्हें पता चला कि एक मामूली से वकील की फीस भी कम से कम 300 (तकरीबन 28,000 रुपए) पाउंड प्रति घंटा है. डॉना के पास इतने पैसे नहीं थे, सो उन्होंने अपना केस खुद लड़ने का फैसला किया.
इंप्लॉयमेंट ट्रिब्यूनल में मॉरिसंस का प्रतिनिधित्व महंगे वकील कर रहे थे और डॉना खुद अपना प्रतिनिधित्व कर रही थीं. डॉना, जिन्होंने वकालत नहीं पढ़ी थी और जिन्हें कानून का एबीसीडी भी नहीं आता था.
बीबीसी को दिए अपने इंटरव्यू में डॉना ने कहा था कि यह बहुत ही मुश्किल और थकाने वाला अनुभव था. अपने केस की तैयारी में मुझे रोज काफी मेहनत करनी पड़ती थी. देर रात तक सैकड़ों डॉक्यूमेंट पढ़ने पड़ते, अपनी दलीलें तैयार करनी पड़तीं. ये सबकुछ मेरे लिए बहुत नया था. कोर्ट से देर शाम घर लौटने पर मैं थककर चूर हो चुकी होती. लेकिन हर रात जब मैं सोने अपने बिस्तर पर जाती तो मेरे मन में एक ही ख्याल रहता था, “अच्छा हुआ कि मैंने ये लड़ाई लड़ने का फैसला किया.”
डॉना ने उस इंटरव्यू में कहा, “अंत में मुझे ये मलाल तो नहीं होगा कि मैंने कोशिश ही नहीं की. मुझे पता नहीं था कि इस लड़ाई में मेरी जीत होगी या हार. बस इतना पता था कि मैं सही हूं और अपना सच साबित करने के लिए मैंने जान लगा दी है.”
कोर्टरूम में डॉना को आठ गवाहों को क्रॉस एग्जामिन करना पड़ा. उनमें से कुछ ऐसे थे, जिन्होंने डॉना के साथ काम किया था .
सारे गवाहों, सबूतों और दलीलों के बाद न्यायालय ने ये माना कि मॉरिसंस ने डॉना के साथ बहुत सिस्टमैटिक तरीके से भेदभाव किया है. जज ने कहा कि डॉना को मैटरनिटी लीव पर जाने के कारण इस भेदभाव का सामना करना पड़ा, जो स्त्रीद्वेषी और सेक्सिस्ट व्यवहार है. जज ने डॉना के पक्ष में फैसला सुनाते हुए मॉरिसंस को 60 हजार पाउंड यानी 57 लाख रुपए जुर्माना देने का फैसला सुनाया.
सुपरमार्केट चेन ने इंप्लॉयमेंट ट्रिब्यूनल के इस फैसले के खिलाफ आगे अपील करने की बात कही है.
फिलहाल न सिर्फ इंग्लैंड, बल्कि दुनिया भर में डॉना पीटरसन के इस साहस, विवेक और हिम्मत की सराहना हो रही है. महिलाएं सोशल मीडिया पर लिख रही हैं कि मैंने भी मैटरनिटी लीव के बाद वर्कप्लेस पर डॉना की तरह की भेदभाव महसूस किया था, लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि मुझमें डॉना की तरह साहस नहीं था. इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी.
बहुत सारी महिलाएं कह रही हैं कि डॉना का अनुभव कुछ नया नहीं है. महिलाओं को हर रोज काम की जगह पर यौन भेदभाव से लेकर यौन उत्पीड़न तक का सामना करना पड़ता है, लेकिन हममें से बहुत कम स्त्रियां ही उसे न्यायालय तक लेकर जाने का साहस कर पाती हैं. लेकिन जो करती हैं, वो अन्य औरतों के लिए मिसाल बन जाती हैं.
डॉना के लिए भी यह लड़ाई आसान नहीं थी. बीबीसी को दिए इंटरव्यू में डॉना कहती हैं कि कोर्ट में लोगों को क्रॉस एग्जामिन करना आसान नहीं था. कुछ लोग थे, जिन के रवैए से मैं शुरू से परेशान और नाखुश थी. उन्हें तो फिर भी क्रॉस एग्जामिन करके सच सामने लाना आसान था, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें मैं सालों से जानती थी और जिनके साथ काफी नजदीकी रही थी.
जाहिरन अपनी नौकरी बचाने की खातिर वे कंपनी की तरफ से गवाही दे रहे थे. एक कपल था, जिसके साथ मेरा बहुत करीबी और आत्मीय रिश्ता था. उन्होंने मुझे सबकुछ सिखाया, बताया, मेरा मार्गदर्शन किया. मैं इस जॉब और इंडस्ट्री के बारे में आज जो कुछ भी जानती हूं, वो उनकी वजह से ही है. कोर्ट में उन्हें क्रॉस एग्जामिन करना मेरे लिए बहुत मुश्किल अनुभव था.
दुनिया के 80 फीसदी सभ्य देशों में वर्कप्लेस पर भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ सख्त कानून बन चुके हैं, लेकिन उन कानूनों का लाभ उठाने के लिए भी सबसे पहले जरूरत है डॉना जैसे साहस की. जब तक औरतें आवाज नहीं उठाएंगी और न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाएंगी, तब तक कानून की भी उनकी कोई मदद नहीं कर पाएंगे.
Edited by Manisha Pandey