इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ
ग़ालिब को अपनी बात कहने के लिए दो मिसरों की दरकार होती थी और फिर बरसों बाद गुलज़ार ने भी अपने दिल के हाल को कुछ इसी तरह बयां किया 'दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन! बैठे रहें तसव्वुरे-जानां-किए हुए...' कुलांचे भरता वक्त कई दहाईयां लांघ चुका है और इस वक्फे में हिन्दी के बयां-औ-लिबास काफी बदल चुके हैं। लेकिन एक शख़्स हैं, जिन्होंने गालिब और गुलज़ार के उस अंदाजे बयां को अब तक बरकरार रखा है और वे है पीयूष मिश्रा... पीयूष जी को यदि मल्टीटैलेंटिड मैन कहा जाये तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वे जितने मशहूर अपनी बेहतरीन कविताओं, अभिनय और गायकी के लिए हैं, उतने ही मशहूर अपने सहज स्वभाव के लिए भी है। एक ऐसा व्यक्तित्व, बनावटीपन जिन्हें छू भर न गया हो। बैंगलोर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान योर स्टोरी ने की पीयूष जी से एक खास और इत्मीनान भरी मुलाकात। प्रस्तुत हैं उस प्यारी मुलाकात के कुछ अंश....
कमरे का दरवाजा खुलता है, "अरे! आओ रंजना आ जाओ... दरवाज़ा थोड़ा खुला छोड़ देना, वरना लॉक हो जायेगा।"
पहचान गये सर? "बिल्कुल पहचान गया, कहो कैसी हो?" मैं इकदम बढ़ियां, आप कहें! "मैं भी बस वैसा ही जैसा पिछली दफा..."
किसी से मुलाकात की शुरुआत जब इतनी सहज और सरल हो, तो सामने बैठा व्यक्ति बातचीत शुरू होने से पहले आपको उस कंफर्ट ज़ोन में पहुंचा देता है, जहां बैठकर आप उससे उसके दिल के सारे हाल जानने का साहस जुटा पाते हैं। पीयूष मिश्रा इसी सहजता और सरलता का दूसरा नाम हैं। यह सच है, कि उनके चेहरे पर एक गंभीरता लगातार बनी रहती है, जिसे उनके प्रशंसक और साथ रहने वाले उनकी रुखाई समझने की गलती कर बैठते हैं, लेकिन ऐसा कुछ है नहीं। असल में पीयूष जी बेहद ही नरम दिल, सहज और सरल इंसान हैं, एकदम अपने शब्दों और कविताओं की तरह।

गैंग्स अॉफ वासेपुर, मकबूल, गुलाल और पिंक जैसी फिल्मों से सुर्खियां बटोरने वाले पीयूष मिश्रा के गीतों में मिलन की महक भी है और जुदाई की कसक भी। फिल्में तो पीयूष जी ने ढेर सारी की हैं, लेकिन जिन्होंने इनकी शॉर्ट मूवीज़ नहीं देखीं, उन्होंने इन्हें अबतक पूरी तरह से जाना नहीं है। मुश्किल होता है खुद की उम्र से आगे बढ़कर कोई रोल करना और उस रोल में जान फूंक देना, लेकिन यह काबिलियत पीयूष जी में है। राजकुमार संतोषी की फिल्म लीजेंड अॉफ भगत सिंह तो आप सबको याद ही होगी, इस फिल्म से भी पीयूष जी का गहरा नाता है, असल में इस फिल्म में इन्होंने बतौर पटकथाकार काम किया था।
मैंने अपनी ज़िंदगी के कुछ सिद्धांत बना रखें और उन्हीं सिद्धातों पर चलते हुए अपना काम करना चाहता हूं: पीयूष मिश्रा
हिन्दी फिल्मों और अपने काम के बारे में पीयूष जी कहते हैं,
आजकल जो फिल्में बन रही हैं, उन पर निर्माता निर्देशक खासा मेहनत कर रहे हैं। एक से एक अच्छी फिल्में आ रही हैं। मैं जितना हो पाता है फिल्में करता हूं। कोशिश करता हूं, कि अपने ऊपर काम का बहुत दबाव न पड़ने दूं। मैंने अपनी ज़िंदगी के कुछ सिद्धांत बना रखें और उन्हीं सिद्धातों पर चलते हुए अपना काम करना चाहता हूं।
आजकल लेखक और शायर बनना पहले की अपेक्षा काफी आसान हो गया है, लेकिन आगे तो वही बढ़ेगा न जिसमें काबिलियत होगी: पीयूष मिश्रा
आजकल के साहित्य और हर किसी के साहित्यकार बन जाने पर पीयूष जी का कहना है,
मेरा मानना है, कि ज़िंदगी में सबसे ज़रूरी है अपने ऊपर ध्यान देना। खुद को बचाकर रखाना। हम क्या हैं, यह जानना पहले ज़रूरी है। दूसरे क्या कर रहे हैं, इस बात से कोई फरक नहीं पड़ना चाहिए। जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकारें। किसी को बदलने की कोशिश न करें और न ही किसी के लिए खुद को बदलें। आज कल जो लिखा जा रहा है, वो भी अच्छा है और जो लिखा गया वो भी अच्छा था। हां, यह सच है कि आजकल लेखक और शायर बनना पहले की अपेक्षा काफी आसान हो गया है, लेकिन आगे तो वही बड़ेगा न जिसमें काबिलियत होगी।
हिन्दी अपनेआप में बेहद सक्षम और संपूर्ण भाषा है। वह अपना पालन-पोषण स्वयं कर सकती है: पीयूष मिश्रा
और, जब बात हिन्दी/हिंग्लिश पर छिड़ी तो पीयूष जी ने कहा,
मेरा मानना है हिन्दी को बहुत ज्यादा प्रोटेक्ट करने की आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि हिन्दी पर किसी एक का अधिकार नहीं बल्कि हिन्दी सबकी है। कोई भी भाषा हो, यदि वह लोगों से नहीं जुड़ेगी तो धीरे-धीरे लुप्त हो जायेगी। भाषा को एक खास स्वरूप में बांधना गलत होगा, क्योंकि कैद में रहते हुए किसी का जीवित रहना मुश्किल है। लोगों की जीवन शैली में बदलाव के साथ भाषा में भी बदलाव ज़रूरी है। हिन्दी अपनेआप में बेहद सक्षम और संपूर्ण भाषा है। वह अपना पालन-पोषण स्वयं कर सकती है। वह खुद का ख़याल रख सकती है। उसके लिए किसी को खड़े होने और लड़ने की ज़रूरत नहीं है। दुनिया जब तक रहेगी, हिन्दी तब तक रहेगी। हिन्दी जब एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंतती है, तो उसे वह अपने आप बदल जाती है। सभी अपनी ज़बान और अपनी समझ से उसका प्रयोग करते हैं। ये खूबसूरती तो हिन्दी को ही हासिल है, कि वह जिस तक पहुंची उसके जैसी हो गयी। लोग उसे तोड़ते हैं, मरोड़ते हैं और उसके बाद उसका इस्तेमाल अपनी सुविधानुसार करते हैं। आज की हिन्दी का मतलब यह नहीं, कि हिन्दी खतम हो रही है या फिर नकली हो रही , बल्कि आज की हिन्दी पहले की अपेक्षा और अधिक रचनात्मक हो गई है। लोगों को यह आज़ादी मिलनी बेहद ज़रूरी है, कि वे उसका अपने स्टाईल में प्रयोग करें। मुझे आज के लेखन से कोई आपत्ति नहीं, बल्कि मैं इस रचनात्मकता को एप्रीशिएट करता हूं।
अंग्रेजी भाषा पर पीयूष जी कहते हैं, कि
अंग्रेजी क्यों इतनी समृद्ध हो गई? अंग्रेजी इसलिए इतनी समृद्ध हो गई क्योंकि उसे दूसरी भाषाओं से शब्द लेने में कभी कोई परहेज नहीं हुआ। बंगला को बंगलो कर दिया और कई हिन्दी शब्दों को अंग्रेजी ने बड़ी सहजता से अपनी डिक्शनरी में जगह दे दी। और यही बात हिन्दी पर भी लागू होती है, इसलिए जो हिन्दी के साथ प्रयोग कर रहे उन्हें नकारने और उनकी हंसी उड़ाने की बजाय उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए, क्योंकि ये ही वे लोग हैं, जो हिन्दी को लंबे समय तक बचाये रख पायेंगे।

कोई कैमरा नहीं कोई रिटेक नहीं। मंच पर सीधी-साधी जीवंत प्रस्तुति के लिए पीयूष मिश्रा काफी प्रसिद्ध हैं। ये सच है, कि फिल्मों में एक्टिंग करने से ज्यादा मुश्किल है, रंगकर्मी का रोल प्ले करना। प्रेक्षकों से सीधा संवाद करते हुए जोखिमों और चुनौतियों से लबरेज रंगकर्म से जुड़कर इन्होंने अपनी ज़िंदगी का लंबा समय गुज़ारा है।
आने वाले समय में हिन्दी रंगमंच फिर पुराने दिनों की तरह जवान हो उठेगा: पीयूष मिश्रा
रंगमंच के मौजूदा हालात और उनकी चुनौतियों पर पीयूष जी कहते हैं,
कौन कहता है, कि रंगमंच के दर्शक अब कम हो गये हैं? और एक बार को मान भी लेते हैं, कि रंगमंच के दर्शक कम हो गये हों, लेकिन इस काम को मिशन मानने वाले लोग आज भी उम्मीद की लौ जलाये हुए हैं और उन्हें यकीन है कि आने वाले समय में हिन्दी रंगमंच फिर पुराने दिनों की तरह जवान हो उठेगा। सालों पहले हिन्दी-पारसी रंगमंच हुआ करते थे। उनके नाटक इतने प्रसिद्ध थे कि टिकिट नहीं मिला करते थे। मैंने भी ऐसे कई शो किये हैं, जिनमें हॉल खचाखच भर जाते हैं। लोगों के पास खड़े होने की जगह नहीं होती।

गुलज़ार और जावेद साहब के अलावा बहुत कम गीतकार हुए, जो गीतों में कविता को बचा पाये, लेकिन पीयूष मिश्रा के बाद कविता प्रेमियों को इस चिंता से मुक्त हो जाना चाहिए। क्योंकि आज के समय में पीयूष मिश्रा उन चंद गीतकारों में से हैं, जिनके गीतों में कविता की सोंधी खुशबू भी है और कविता में गीतों की झमाझम बरसात भी। बात चाहे ओ हुस्ना... की हो या फिर हो री दुनिया... की, सभी में पीयूष जी ने अपने कवि मन को खोलकर रख दिया।
गीत,
आरंभ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो !!!
में पीयूष जी वीर रस कवियों की याद दिलाते हैं। फिल्मी गीतों में कविता को जीवित रख पाना आज के समय में पीछे छूट रहा है, लेकिन पीयूष जी ने अब तक उस जीवंत स्टाईल को पकड़कर रखा है और इनके चाहने वालों की तेजी से बढ़ने वाली संख्या में इस जीवंत स्टाईल का भरपूर योगदान है।
किसी भी चीज़ की लत बुरी होती, फिर वो लत चाहे इश्क़ की हो या फिर शराब की: पीयूष मिश्रा
अलकोहल पर बात करते हुए पीयूष जी कहते हैं,
शराब पीना गलत नहीं है, लेकिन इसे कभी अपनी आदत मत बनने दो। किसी भी चीज़ की लत बुरी होती, फिर वो लत चाहे इश्क़ की हो या फिर शराब की। मैं भी एक समय में इस स्तर तक पीता था, कि मुझे रोक पाना और संभाल पाना मुश्किल होता था। अपनी इस आदत के चलते मैंने अपना बहुत कुछ खोया है। इसलिए मैं हर पीने वाले से सिर्फ यही कहना चाहता हूं, कि पीयो, लेकिन इतना ध्यान रहे की उठने वाला कदम पड़ कहां रहा है। नीचे ज़मीन है या नहीं... ज़मीन नहीं हुई तो पैर सीधे पाताल में ही पड़ेगा और वहां पहुंचने के बाद संभल पाना मुश्किल होगा। मैं खुशकिस्मत था कि मैं खुद को काफी हद तक रोक पाया। असल में शराब पीने वाली व्यक्ति बुरा नहीं होता। लोग कहते हैं, कि शराब छोड़ी जा सकती है, कैसे लोग इसको अपनी आदत बना लेते हैं... लेकिन जो अल्कोहलिक होते हैं, उन्हें बहुत तकलीफ होती है। वे चाह कर भ खुद को रोक नहीं पाते और हर बार कुछ न कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। हमें शराबियों पर गुस्सा करने की बजाय उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए। (हल्की सी मुस्कुराहट के साथ...) शराब बुरी होती तो देश-विदेशों में लोग क्यों पीते? शराब बुरी नहीं शराबियत बुरी होती है आदत लग जाए और जरूरत से ज्यादा पीकर कदम लड़खड़ाने लगें ये गलत है। मैं बहुत बड़ा अल्कोहलिक था, लेकिन इंसान अगर सोच ले कि नहीं पीना है, तो वह एेसा कर सकता है, सिर्फ ज़रूरत है, तो विल पावर की।
मैं काबिल हूं या नहीं, ये तो मेरे प्रशंसक तय करेंगे: पीयूष मिश्रा
अपने बारे में कुछ भी कहने से पीयूष जी संकोच करते हैं, फिर भी न कहते हुए कहते हैं,
मैं बिल्कुल सीधा-सादा इंसान हूं। मैं खुद को नकली बना ही नहीं पाता। जैसे दिल करता है वैसे रहता हूं। जैसा तुम्हारे सामने बैठा हूं ऐसा ही परिवार के साथ घर में भी रहता हूं और ऐसा ही बड़े-बड़े समारोहों और शोज़ में रहता हूं। जो भी कमाया है अपनी मेहनत की बदौलत कमाया है। मैं काबिल हूं या नहीं, ये तो मेरे प्रशंसक तय करेंगे। जो अपने आसपास देखा, हमेशा उसी हिसाब से जीने की कोशिश की और और अपने जीने की कोशिश को ही अपने लेखन में उतारा। दुनिया जैसी देखी है उसी के आधार पर लिखता रहा। लेखन मेरा जुनून है तो थियेटर मेरा नशा है। मैं इन दोनों के बगैर खुद को सोच भी नहीं सकता।
जो बात पीयूष जी में सबसे ख़ास है, वो ये है कि वे हर उम्र के दिल में एक ही तरह से धड़कते हैं। इन्हें गीतकार, संगीतकार, कलाकार, कहानीकार या कवि अलग-अलग से कहना अजीब है, क्योंकि वे इनमें से सबकुछ हैं। पीयूष जी अपने गीतों से जनता को झूमने पर मजबूर भी करते हैं और अपने अभिनय से आंखों को नम भी करते हैं... ये दिल में उतर जाने वाले स्वर भी लगाते हैं और अपनी कहानियों से दर्शकों के मस्तिष्क पर कई तरह के क्वेश्चन मार्क भी छोड़ जाते हैं। इन दिनों पीयूष जी फिल्मों के साथ-साथ अपने बैंड "बल्लीमारान" पर भी काम कर रहे हैं। इस बैंड ने गुड़गांव में एक सफल परफॉरमेंस दी। दर्शकों की भीड़ इतनी ज्यादा थी, कि वहां खड़े होने की जगह नहीं थी। पीयूष जी अपने इस बैंड को अलग अलग शहरों में लेकर जाने की योजना बना रहे हैं। इस बैंड के ज़रिये वे अपनी कविताओं और गीतों के साथ कई नये प्रयोग भी कर रहे हैं।
"रंजना, जाते हुए दरवाज़ा पूरा बंद मत करना, लॉक हो जायेगा" औऱ वो हारमोनियम को सोफे पर रखते हुए वहीं सोफे पर बैठ गये...