अगरबत्ती बेचने वाले एक पिता ने बेटियों की पढ़ाई के लिए बेच दिया अपना घर
ऐसे वक्त में जब तमाम प्रयासों के बावजूद लैंगिक असामनता उफान मार रही है, लड़कियां अभी भी कोख में मार डाली जा रही हैं, स्कूलोंं में लड़कियों की उपस्थिति घट रही हैं, वैसे में बैद्यनाथ प्रसाद शाह एक मिसाल हैं...
बैद्यनाथ बिहार के मोतिहारी के रहने वाले हैं और अगरबत्ती बेचा करते थे। महीने में पंद्रह हजार ही कमा पाते थे जिसमें बच्चियों की शिक्षा पूरी कराना संभव नहीं था।
अपनी तीन बच्चियों को पढ़ाने के लिए उन्होंने अपना घर बेच दिया। उस वक्त उनकी सबसे बड़ी बेटी रूपा राज 14 वर्ष की थीं। आज रूपा राज जज हैं।
ऐसे वक्त में जब तमाम प्रयासों के बावजूद लैंगिक असामनता उफान मार रही है, लड़कियां अभी भी कोख में मार डाली जा रही हैं, स्कूलोंं में लड़कियों की उपस्थिति घट रही हैं, वैसे में बैद्यनाथ प्रसाद शाह एक मिसाल हैं। बैद्यनाथ बिहार के मोतिहारी के रहने वाले हैं और अगरबत्ती बेचा करते थे। अपनी तीन बच्चियों को पढ़ाने के लिए उन्होंने अपना घर बेच दिया। उस वक्त उनकी सबसे बड़ी बेटी रूपा राज 14 वर्ष की थीं।
आज रूपा राज जज हैं। रूपा ने राज्य की लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 173 वां रैंक हासिल किया। रूपा ने पुणे से अपने स्नातकोत्तर उपाधि पूरी की थी। हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में राज्य के लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित 29 वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगी परीक्षा में सफल उम्मीदवारों में से एक लड़की यह थी। न केवल रूपा, शाह की अन्य दो बेटियां रूचि और लक्ष्मी ने भी अपने पिता का सिर हमेशा गर्व से ऊंचा किया है। शाह की दूसरी बेटी रुचि 2014 में चीन में डॉक्टर बन गईं। जबकि उनकी तीसरी बेटी लक्ष्मी नई दिल्ली में बिहार भवन में काम करती हैं और हाल ही में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षण के बाद एक व्याख्याता के रूप में नौकरी के लिए पात्र हैं।
रूपा ने एचटी से बातचीत में बताया, 'मैं बहुत ही भाग्यशाली हूं कि हमें ऐसे सहायक पिता मिले जिन्होंने अपनी बेटियों के लिए अपनी संपत्ति बेच दिया। उन्होंने जो कुछ हमारे लिए किया है वह मैं कभी नहीं भूल सकती। अब हमारी लिए कुछ करने की हमारी बारी है।' बैद्यनाथ प्रसाद शाह अपने व्यवसाय के माध्यम से एक महीने में 15,000 रुपये कमाते थे। शाह ने 2014 तक दिल्ली में अगरबत्ती बनाने और बेचने के अपने व्यवसाय को जारी रखा था।
देश के कई हिस्सों में बच्चियों को जन्म के तुरंत बाद मार दिया जाता था। भारतीय समाज में, बच्चियों को सामाजिक और आर्थिक बोझ के रुप में माना जाता है इसलिये वो समझते हैं कि उन्हें जन्म से पहले ही मार देना बेहतर होगा। यदि हाल यही रहा तो बीस साल बाद हमारे देश में स्थिति ना केवल और चिंताजनक होगी, बल्कि भयावह भी हो सकती है।
बैद्यनाथ के इस त्याग और पिता के दायित्वों के निर्वहन की कहानी देश के उन लाखों लोगों के लिए एक मिसाल है जो ये मानते हैं कि लड़कियां बोझ होती हैं। महिला लिंग अनुपात पुरुषों की तुलना में बड़े स्तर पर गिरा है, भविष्य में इसके नकारात्मक पहलू को अब भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। ऐसे में बैद्यनाथ जैसे लोगों की कहानियां कुछ उम्मीद जरूर जगाती हैं।
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