Delhi Crime : क्या महिला पुलिस मर्द पुलिस के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील और दयालु होती है?
अगर ताकत की कमान महिला के हाथ में हो तो क्या कहानी बदल जाती है? क्या होता है, जब शक्ति की, सत्ता की, ताकत की डोर एक स्त्री के हाथों में हो?
एक इंसान की जिंदगी में तीन चीजें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. पहली चीज है दयालु होना और करुणा रखना. दूसरी चीज है दयालु होना और करुणा रखना और तीसरी चीज है चीज है दयालु होना और करुणा रखना.
– हेनरी जेम्स
“दिल्ली की एक तिहाई आबादी अवैध स्लम्स में रहती है और यहां के एलीट (अमीर) लोगों के लिए काम करती है. एलीट, जिनके पास देश में सबसे ज्यादा पर कैपिटा इनकम है. ऐसे शहर की निगरानी करना पेचीदा काम है, वो भी एक अनस्टाफ्ड फोर्स के साथ. आखिरकार हम अमीरों की लाइफ स्टाइल और वंचितों के अरमानों की निगरानी नहीं कर सकते. इसी कश्मकश में कभी-कभी ऐसे गुनाहों और गुनहगारों को चेहरा दिख जाता है, जो हमारी समझ के बाहर होता है.”
शेफाली शाह की आवाज में ये लाइनें बैकग्राउंड में चल रही हैं और स्क्रीन पर दिखाई दे रही है देश की राजधानी दिल्ली. शानो-शौकत, अमीरी, ताकत से चमचमाता और अभाव, गरीबी और क्राइम से बजबजाता एक शहर. ये नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज हुई सीरीज ‘डेल्ही क्राइम’ का दूसरा सीजन है. पिछली कहानी निर्भया की थी. इस बार अकेले रह रहे समृद्ध अमीर सीनियर सिटिजंस की है, जिनकी शहर में हत्याएं हो रही हैं. 90 के दशक में आखिरी बार देखे गए चड्ढा-बनियान गैंग की तर्ज पर, जो एक खास तरीके से बहुत क्रूरता के साथ बुजुर्गों की हत्या करता था.
सच्ची घटनाओं पर आधारित यह सीरीज दिल्ली पुलिस के पूर्व अधिकारी नीरज कुमार की किताब ‘खाकी फाइल्स’ के एक चैप्टर ‘मून गेज’ पर आधारित है. कहानी की शुरुआत होती है एक बुजुर्ग दंपती की हत्या से. साउथ दिल्ली में रह रहे एम्स के रिटायर्ड डॉक्टर राकेश और रोमिला अरोरा और उनके बुजुर्ग दोस्त मि. एंड मिसेज मेनन की हथौड़े से मारकर बेरहमी से हत्या कर दी गई है. इससे पहले की पुलिस को कुछ ठोस सुबूत मिले, इसी तर्ज पर एक और बुजुर्ग दंपती की हत्या हो जाती है.
पुलिस की जो टीम अपराधी को पकड़ने की कोशिश कर रही है, उसकी कमान एक महिला पुलिस ऑफीसर के हाथ में है. साउथ डिस्ट्रिक्ट की डीसीपी वर्तिका चतुर्वेदी और उनकी टीम.
‘डेल्ही क्राइम’ के साथ नेटफ्लिक्स पर एक और फिल्म रिलीज हुई, राजकुमार राव की ‘हिट’ (HIT). दोनों की विषयवस्तु, कहानी सबकुछ अलग है, लेकिन दोनों में एक साम्य है. दोनों के केंद्र में एक पुलिस ऑफीसर है. डेल्ही क्राइम में डीसीपी चतुर्वेदी (शेफाली शाह) और हिट में इंस्पेक्टर विक्रम जयसिंह (राजकुमार राव). दोनों तकरीबन एक ही समय में, एक तरह की दुनिया और समाज में, एक जैसी परिस्थिति में समाज से क्राइम को कम करने, अपराधियों को पकड़ने और दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं. दोनों के इरादे नेक हैं,
लेकिन क्या फिर भी दोनों में फर्क है.
अगर ताकत की कमान महिला के हाथ में हो तो क्या कहानी बदल जाती है; व्यवहार, सोच और रवैया बदल जाता है; काम करने का तरीका बदल जाता है; देखने का ढंग बदल जाता है. क्या होता है, जब शक्ति की, सत्ता की, ताकत की डोर एक स्त्री के हाथों में हो? क्या स्त्रियां पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा दयालु होती हैं?
जब डीसीपी चतुर्वेदी को मारे गए बुजुर्ग दंपती की बेटी को यह खबर देनी होती है तो सबसे पहले वो उसके छोटे बच्चे को देखती हैं. बच्चे को सुरक्षित जगह पर पहुंचाने के बाद खुद डीसीपी के लिए भी आसान नहीं है, सीधे यह कह देना कि आपके माता-पिता की बड़ी बेरहमी से, हथौड़ा मारकर हत्या की गई है. वो जिस तरह ये खबर देती हैं, खुद उनके लिए भी ये मानना और बताना बहुत तकलीफदेह जान पड़ता है. एंबुलेंस में उनकी बेटी को साथ जाने की परमिशन देते हुए वह इतना ही कहती हैं, “अगर हो सके तो अपने पैरेंट्स का चेहरा मत देखिएगा. ये वो आखिरी स्मृति नहीं है जो आप हमेशा अपने साथ रखना चाहेंगी.”
जब तमाम सख्त हिदायतों के बावजूद सीसीटीवी की फुटेज मीडिया में लीक हो जाती है तो जांच का आदेश देते हुए वो किसी को गलती की संभावना से बरी नहीं करतीं. खुद को भी नहीं. कहती हैं कि सबके फोन कॉल्स की डीटेल निकालो, मेरी भी. वो जानती हैं कि खुद अपनी टीम के लोगों की जांच का आदेश देकर वो ये मैसेज भी दे रही हैं कि हर कोई शक के दायरे में है. इसलिए इससे पहले की टीम को पता चले, वो सबको एक वॉइस नोट भेजकर कहती हैं, “ये जो सीसीटीवी फुटेज लीक हुआ है, ये बहुत सीरियस मैटर है. मुझे लगता है कि कोई इनसाइडर ही है. मैं ये नहीं कह रही कि आप लोगों में से किसी ने ये किया है. मैं आप सब पर भरोसा करती हूं, लेकिन अगर गलती से भी, गैरइरादतन ही आपने किसी से ये बात शेयर की है और वहां से लीक हुआ है तो इसकी तह तक जाना जरूरी है.”
सिनेमा और जिंदगी में हम पुलिस के जिस व्यवहार, रवैए और काम करने के तरीके को जानते रहे हैं, उसमें ताकत की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति में एक-दूसरे की निजता और आत्मसम्मान को लेकर आदर कम ही देखने को मिलता है. लेकिन ताकत की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठी डीसीपी उस ताकत के नशे में नहीं है.
सीरीज अपने पहले ही दृश्य से जिस सामाजिक गैरबराबरी, अमीर और गरीब की खाई की ओर इशारा करती है, वो फर्क पूरी कहानी में साथ चलता है. लेकिन फर्क इस बात से पड़ता है कि इस खाई को, इस अन्याय को एक महिला और एक पुरुष पुलिस अधिकारी कैसे देखता है. जहां एसएचओ चड्ढा के लिए एक खास ट्राइब से आने वाले सारे लोग बॉर्न क्रिमिनल हैं, वहीं डीसीपी उसे तुरंत टोककर कहती है, “कोई भी बॉर्न क्रिमिनल नहीं होता.”
शुरुआती शक की सूई डीएनटी (डीनोटिफाइड) समुदाय पर जाने पर जहां बहुसंख्यक लोग अपने पूर्वाग्रह से राय बनाते और व्यवहार करते हैं, डीसीपी चतुर्वेदी ऐसे किसी भी सामान्यीकरण से बचना चाहती है. हालांकि उस पर दबाव बहुत है. मंत्री से लेकर कमिश्नर तक सब तुरंत किसी को सलाखों के पीछे बंद करके ये साबित कर देना चाहते हैं कि वो अपना काम पूरी मुस्तैदी से कर रहे हैं. डीसीपी पर भी दबाव है कि वो आजाद और जुगनू पारदी को अपराधी साबित कर तुरंत सफलता का मेडल ले ले, जबकि सारे सुबूत ये कह रहे हैं कि ये हत्या उन दोनों ने नहीं की.
इस द्वंद्व में उलझी डीसीपी को एक साइड चुनना है. आखिर में वो सही का साथ देती है और भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहती है, “दिल्ली पुलिस के पास पर्याप्त सुबूत है कि ये दो लोग न ही कच्छा बनियान गैंग के हैं और न ही इन लोगों ने ये क्राइम किए हैं.” डीसीपी के इस बयान से कमिश्नर से लेकर पुलिस डिपार्टमेंट तक सकते में है, लेकिन वो सच और सही का साथ देती है. जब खुद कमिश्नर से सामना होता है तो कहती है,
- “आय एम सॉरी, लेकिन मुझे एक पक्ष चुनना था.
- “और तुमने क्रिमिनल का पक्ष चुना.”
- “नहीं मैंने सही का पक्ष चुना.”
डीसीपी चतुर्वेदी जानती हैं कि अपने आलाकमान की ऐसी नाफरमानी की पुलिस डिपार्टमेंट में माफी नहीं मिलती. वो सजा के लिए तैयार है, लेकिन उससे पहले किसी भी तरह सच की तह तक पहुंचना चाहती है, असल अपराधियों को पकड़ना चाहती है.
जितना टेढ़ा और पेचीदा काम पुलिस डिपार्टमेंट का है, उसमें हर वक्त और हर जगह दया दिखाना, इंसानियत बरतना आसान भी नहीं होात. ऐसा नहीं कि एक महिला पुलिस अधिकारी में कोई कमी नहीं है. वह गालियां भी देती है, थप्पड़ भी मारती है, बेरहम भी हो जाती है, लेकिन उस तरह नहीं, जिस तरह कोई मर्द होता है.
टीम के सदस्यों के प्रति भी महिला डीसीपी का व्यवहार किसी पुरुष के मुकाबले ज्यादा मानवीय है. वो उन्हें भागती हुई मशीनों की तरह नहीं, इंसान की तरह बरतती है, जिसका एक निजी जीवन भी है, सुख है, दुख है, चुनौतियां और परेशानियां हैं.
कठिन से कठिन हालात में, बड़े से बड़े अपराधी के साथ भी उसके भीतर मनुष्यता का एक मामूली सा तार हमेशा बचा रहता है. वो नजर बची रहती है, जो नफरत नहीं करती, क्रूर नहीं होती. इंसान को उसकी तमाम जटिलताओं के साथ देख पाती है.
डेल्ही क्राइम के पहले सीजन में डीसीपी वर्तिका चतुर्वेदी का कैरेक्टर महिला पुलिस आईपीएस छाया शर्मा की असल जिंदगी पर आधारित था, जिन्होंने अपनी 40 लोगों की टीम के साथ 6 दिन के अंदर पांचों अपराधियों को पकड़ लिया था. छाया शर्मा ने एक इंटरव्यू में कहा था, “बात सिर्फ एक क्राइम की नहीं थी. मुझे निजी तौर पर उस घटना से बहुत सदमा लगा था. अपराधियों को पकड़ना मेरे लिए एक पर्सनल मिशन की तरह था.”
नेटफ्लिक्स पर एक सीरीज है ‘अनबिलीवेबल,’ जो सच्ची घटना पर आधारित है. उस सीरीज में भी दो महिला पुलिस ऑफीसर एक सीरियल रेपिस्ट को पकड़ने के लिए किसी भी हद तक जाती हैं. जिन केसेज को पुरुष पुलिस अधिकारियों ने खातापूर्ति करके छोड़ दिया था, दो औरतें दिन-रात एक करके उसकी तह तक पहुंचती हैं और सच सामने लेकर आती हैं.
कहने का आशय ये नहीं कि महिलाएं ज्यादा कर्मठ, ज्यादा काबिल, ज्यादा सच्ची होती हैं. कहने का आशय सिर्फ ये है कि दुख को, तकलीफ को वो थोड़ा ज्यादा महसूस कर पाती हैं. थोड़ा ज्यादा जुड़ती हैं, थोड़ा ज्यादा मानवीय होती हैं. उनके लिए ये सिर्फ एक नौकरी भर नहीं है. किसी के साथ रेप हुआ, किसी को बेरहमी से मार दिया गया और किसी ने ये अपराध किया, हर पक्ष को वो ज्यादा संवेदना के साथ देख पाती हैं.
2013 में एक बार दलाई लामा ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा, “इस वक्त दुनिया को ऐसे लीडर्स की जरूरत है, जो दयालु और करुणामय हों. जिनके हृदय में थोड़ी ममता हो. इस नजर से देखें तो महिलाओं में ज्यादा दया-करुणा होती है. वो दूसरे मनुष्यों के प्रति पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील होती हैं.”
दलाई लामा की इस बात पर बड़ा विवाद भी हुआ. येल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर एम्मा सेप्ला ने एक आर्टिकल लिखा, “Are Women More Compassionate than Men?” (क्या महिलाएं पुरुषों से ज्यादा करुणामय होती हैं?) एम्मा सेप्ला अपने उस आर्टिकल में तमाम वैज्ञानिक शोधों के हवाले से ये कहती हैं कि स्त्री के शरीर में ऐसा कोई एक्स्ट्रा हॉर्मोन या डिजाइन नहीं होता, जो उसे ज्यादा संवेदनशील बनाता हो. हां, एक नए जीवन को अपने शरीर में धारण करने और जन्म देने की अतिरिक्त सलाहियत के कारण औरतों में कुछ प्रोटेक्टिव हॉर्मोन ज्यादा होते हैं. लेकिन वो सभी मादा मैमेल्स में होते हैं.
एम्मा सेप्ला दलाई लामा के इस कथन को खारिज नहीं करतीं. वो इसे सच मानते हुए इसकी तह में जाने की कोशिश करती हैं और कई सामाजिक और वैज्ञानिक अध्ययनों के हवाले से ये बताती हैं कि स्त्रियों का पुरुषों के मुकाबले अधिक करुण और उदार होना दरअसल एक सोशल कंस्ट्रक्ट ज्यादा और बायलॉजिकल कंस्ट्रक्ट कम है.
ठीक वैसे ही, जैसे डेल्ही क्राइम में एक खास ट्राइब के सारे लोगों को क्रिमिनल मानना और उनके साथ वैसा ही सुलूक करना एक सोशल कंस्ट्रक्ट है. जैसे सारे मुसलमानों को आतंकी कहना एक सोशल कंस्ट्रक्ट है. जैसे औरतों को अबला और कुलटा समझना एक सोशल कंस्ट्रक्ट है.
सोशल कंस्ट्रक्ट और गैरबराबरी और ताकत के इस सीढ़ीनुमा समाज में चूंकि औरतें खुद निचले पायदान पर हैं, चूंकि वो खुद उस पूर्वाग्रह की कीमत चुकाती रही हैं, इसलिए वो थोड़ी ज्यादा संवेदनशील होती हैं. इसलिए क्योंकि उनके जीवन के कठिन और कमजोर हालात ने उन्हें ऐसा बनाया है.
सिमोन द बोवुआर अपनी कल्ट किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ में लिखती हैं, “प्रेम, करुणा, दया, उदारता जैसे गुण महिलाओं को उनके सोशल जेंडर निर्माण की प्रक्रिया में मिले हैं. लेकिन उस जेंडर कंस्ट्रक्ट को तोड़ने के बाद भी उनमें ये गुण बचे रहने चाहिए. पुरुषों को ये गुण हासिल करने की कोशिश करनी होगी.”
ये मर्दवादी समाज और इस समाज के पुरुष सारा ठीकरा प्रकृति के सिर फोड़ बरी नहीं हो सकते. उन्हें वो होने की कोशिश करनी होगी, जो अभी अधिकांश औरतें हैं और बहुत कम मर्द- ज्यादा दयालु, ज्यादा मानवीय, ज्यादा संवेदनशील.