सड़क किनारे चाय बेचने वाले लक्ष्मण राव लिख चुके हैं इंदिरा गांधी पर किताब
ढाबे में जूठे बर्तन साफ करने वाला ये शख्स लिख चुका है इंदिरा गांधी पर किताब...
वह भी एक दिन थे जब लक्ष्मण राव भोपाल में बेलदारी किया करते थे, दिल्ली पहुंचकर ढाबों पर जूठे बर्तन मांजने लगे, और एक वक्त आज का है, जब वह दो दर्जन किताबों के लेखक बन चुके हैं, राष्ट्रपति सम्मानित हो चुके हैं, इंदिरा गांधी से मिलकर उन पर किताब लिख चुके हैं। सच कहा है कि हिम्मत करने वालो की कभी हार नहीं होती।
एक जमाने में उन्हें स्कूली शिक्षा का भी इसी तरह का नशा रहा। अपना घरेलू काम-काज संभालते हुए ही उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए और इग्नू से स्नात्कोत्तर की पढ़ाई पूरी कर ली।
अमरावती (महाराष्ट्र) के लक्ष्मण राव अपनी तरह के एक अलग ही शख्सियत हैं। राजधानी दिल्ली में हिंदी भवन के सामने देखने वाले तो एक चायवाले के रूप में उन्हें जानते हैं, लेकिन दुकान के साथ बगल में बिछी जब उनकी किताबों पर निगाहें जाती हैं, तब पता चलता है कि ये दर्जन भर पुस्तकें तो सब उन्हीं की रची हुई हैं और अभी लगभग इतनी ही प्रकाशनाधीन हैं। उनकी लिखी पांच-छह किताबों के तो दूसरे संस्करण भी आ चुके हैं। ऐसा कम ही किताबों के साथ हो पाता है। उनकी कठिन और प्रेरक साधना का यह स्वर गूंजते पिछले तीन दशक से ज्यादा का वक्त बीत चुका है। उनकी पुस्तकें ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं।
किताबें लिखने की अभिरुचि तो उनमें गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ते हुए जनमी, लेकिन पहली कहानी एक घटना से जन्मी। जब उन्होंने अपनी पहली पुस्तक लिखकर तैयार कर ली तो प्रकाशक उसे छापने से ही मना कर देते थे, लेकिन उन्होंने उस वक्त भी हार नहीं मानी। आज भी वह लिखने ही नहीं, पढ़ने की भी साधना से पीछे नहीं हटे हैं। कहानी और उपन्यास ही नहीं, उन्होंने पत्रकारिता पर भी किताब लिखी है। प्रतिदिन आधा दर्जन समाचारपत्र मराठी का लोकसत्ता, अंग्रेजी का टाइम्स ऑफ इंडिया, इकॉनोमिक्स टाईम्स, हिंदी का वीर अर्जुन, दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, अमर उजाला, भास्कर आदि पढ़ने के साथ ही कभी दरियागंज के फुटपाथ से तो कभी इधर-उधर से किताबें उठा ले आते हैं।
एक जमाने में उन्हें स्कूली शिक्षा का भी इसी तरह का नशा रहा। अपना घरेलू काम-काज संभालते हुए ही उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए और इग्नू से स्नात्कोत्तर की पढ़ाई पूरी कर ली। जिस हाथ में चाय की केतली, उसी में कलम हर जानने-सुनने वाले को हैरान कर देती है। इस हैरानी का इनाम उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार के रूप में मिल चुका है। वह प्रतिभा पाटिल के हाथों सम्मानित हो चुके हैं। उनकी पुस्तकें किस स्तर की हैं, यह दूसरी तरह की बहस का विषय हो सकता है लेकिन शारीरिक और मानसिक श्रम दोनो को अंजाम तक पहुंचाए रखने का हौसला भी कुछ कम काबिलेतारीफ नहीं हैं।
लक्ष्मण राव दसवीं क्लास पास करने के बाद अपने गृहनगर से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली चले आए थे। उतनी पढ़ाई पर कहीं नौकरी नहीं मिली तो मेहनत मजदूरी करने लगे। उन्हें जूठे बर्तन तक धोने पड़े लेकिन कुछ कर दिखाने का जुनून लेशमात्र भी कम न हुआ। एक दिन जब उनका दोस्त रामदास नदी में डूबकर मर गया, उनके भीतर के शब्द पन्नों पर उतरने के लिए मचल उठे। उन्होंने अपना पहला उपन्यास लिखा- 'रामदास'। जब 1984 में वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से मिले तो उसके बाद नाटक लिखा- 'प्रधानमंत्री'। उसके बाद तो खुद ही किताबें लिखने और खुद ही उन्हें बेचने का जो सिलसिला चल पड़ा, वह आज तक थमा नहीं है।
वह अपनी किताबें चाय की दुकान के साथ ही स्कूलों और कॉलेजों में भी जाकर बेच आते हैं। वह अपने उपन्यास 'नर्मदा' के लिए भारतीय अनुवाद परिषद से भी सम्मानित हो चुके हैं। एक प्रकाशक ने तो उनकी एक किताब की दो हजार से अधिक प्रतियां छापीं, जिनमें से ज्यादातर बिक गईं। ये है उनकी बेमिसाल सफलता की बात।
लक्ष्मण राव अपनी रचना यात्रा के एक घटनात्मक प्रसंग का जिक्र करते हुए बताते हैं कि जब वह अपनी पहली पुस्तक की पांडुलिपि लेकर छपवाने के लिए प्रकाशक के पास पहुंचे तो उसने उन्हें बैरंग लौटा दिया। उसने उनसे कहा कि आप लिख तो रहे हैं लेकिन अच्छा लिखने के लिए खूब पढ़ना जरूरी है। वह अपना साहित्यिक गुरु गुलशन नंदा को मानते हैं। वह कहते हैं कि लेखक का तो जन्म ही पचास साल के बाद होता है, जो आजीवन साथ-साथ चलता रहता है। कहा जाता है न, कि हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती, सो लक्ष्मण राव ने इसी लाइन को अपने जीवन के संघर्षों से सिद्ध कर दिखाया है।
दिल्ली में आईटीओ के निकट विष्णु दिगम्बर मार्ग पर पेड़ के नीचे उनकी चाय की दुकान के साथ किताबों का स्टॉल भी सजा रहता है। वह प्रतिदिन अपराह्न एक बजे अपनी दुकान खोलते हैं और रात नौ-दस बजे तक चाय बेचते रहते हैं। रात का भोजन करने के बाद पढ़ाई और सुबह उठने के बाद आठ बजे से दोपहर तक लेखन कर्म करते हैं।
लक्ष्मण राव की जिंदगी के और भी कई ऊबड़-खाबड़ दौर रहे हैं। एक वक्त में उन्होंने पांच रुपए रोजाना पर भोपाल में बेलदारी की। वहां से दिल्ली पहुंचे तो ढाबे पर जूठे बर्तन मांजने लगे। देश में जब इमेरजेंसी लगी, उसी दौरान उनका अगला ठिकाना बना आईटीओ को विष्णु दिगम्बर मार्ग, जहां शुरू-शुरू में वह पान-बीड़ी-सिगरेट बेचते थे। तब से आज तक दिल्ली नगर निगम के हाथो कई बार उनकी दुकान उजड़ी और बार-बार आबाद होती रही है। वह अपनी घर-गृहस्थी की कमाई से ही कुछ पैसे किताबें छपवाने के लिए संग्रह करते रहते हैं।
अब तो उन्हें पूरा देश जानता है। मीडिया ने उन्हें लोकप्रिय और संघर्षशील लेखक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैला दी है। उनके बारे में हिंदी ही नहीं अंग्रेजी और मराठी के भी अखबार छाप चुके हैं, बीबीसी, एएनआई, एएफपी (फ्रांस) ईएफई (स्पेन), एएफपी (पेरिस), टीवीआई (सिंगापुर), न्यू यॉर्क, एशिया वीक (अमेरिका), एशिया वीक (हांग-कांग) आदि अखबारों में छपने के साथ ही चैनल से भी उनका यशोगान हो चुका है। आज उनके दोनो बेटे भी उनकी किताबें छपवाने और बेचने के काम में जुटे रहते हैं।
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