भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ!
बहुत पहले इलाहाबाद (उ.प्र.) के एक गांव में भूख मिटाने के लिए बच्चों के मिट्टी खाने की खबर प्रसारित हुई थी। बात झारखंड की हो, उत्तराखंड की अथवा उत्तर प्रदेश की, जब भी ऐसी जानकारियां सामने आती हैं, कई सवाल एक साथ कौंध जाते हैं।
IFPRI के रिसर्च के मुताबिक 84 देशों की सूची में भारत 67वें नंबर पर है। विकास की तेज रफ्तार ने भूखे लोगों की संख्या कम करने में कोई भूमिका नहीं निभाई है।
जब भूख सवाल खड़ा होता है, सियासत के चरित्र पर बातें होना कोई अजूबा नहीं, हर उस इंसान के लिए सबसे जरूरी है, जो अन्न खाता है। और इस बात पर जो चुप्पियां साध लेते हैं, तय मानिए, वह इंसानियत के दोस्त नहीं, दुश्मन माने जाएंगे।
सच बात है कि भूख तो मौत से बड़ी होती है, सुबह मिटाओ, शाम को फिर सिरहाने आ खड़ी होती है। देश का झारखंड राज्य इन दिनो भूख से हो रही मौतों को लेकर सुर्खियों में है। पहले सिमडेगा के जलडेगा प्रखंड स्थित कारीमाटी गांव में 11 साल की संतोषी की भूख से मौत हुई। इसके बाद खबर फैली की झरिया (धनबाद) में चासील साल के रिक्शा चालक बैजनाथ दास ने भूख से दम तोड़ दिया। आनन फानन में हाथ फुलाए शासन ने उसकी पत्नी को 20 हजार का चेक थमा दिया है। उधर, संतोषी का परिवार अपने ही घर में डरा-सहमा है। कुछ लोगों ने घर में घुस कर धमकी दी, गाली-गलौज करते हुए गांव से भाग जाने को कहा।
अगली सुबह परिवार ने गांव छोड़कर पड़ोस के गांव पतिअंबा में आजसू के प्रखंड अध्यक्ष संतोष साहू के घर में शरण ले ली। इससे प्रशासन में हड़कंप तो है लेकिन भूख से होने वाली मौतों का सवाल जहां का तहां बरकरार है। इसी तरह कुछ महीने पहले, जब उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में 17 साल की एक किशोरी की भूख से हुई मौत को लेकर सियासत शुरू हो गई थी। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने राज्य की बीजेपी सरकार पर निशाना साधा था। बाद में जिला प्रशासन ने भूख से मौत की बात को इनकार कर दिया था। जब भी भूख की बात होती है, हर आदमी के पेट भर खाने की बात चलती है, दुष्यंत का एक शेर स्वतः हवा में तैर जाता है-
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ। आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ।
बहुत पहले इलाहाबाद (उ.प्र.) के एक गांव में भूख मिटाने के लिए बच्चों के मिट्टी खाने की खबर प्रसारित हुई थी। बात झारखंड की हो, उत्तराखंड की अथवा उत्तर प्रदेश की, जब भी ऐसी जानकारियां सामने आती हैं, कई सवाल एक साथ कौंध जाते हैं। मसलन, कलेक्टर से यह पूछने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की गई कि वहां के कितने लोगों के पास बीपीएल कार्ड हैं, कितने मनरेगा के तहत जाब कार्ड हैं? अगर ये कार्ड उनके पास हैं तो वे भूख से मरने को मजबूर क्यों हैं? अगर नहीं हैं तो फिर सवाल यह है कि ये योजनाएं किसके लिए? ऐसे कौन लोग हैं, जो इन योजनाओं का नाजायज लाभ उठा रहे हैं? बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग भी तो है, वह भी तो कई कल्याणकारी योजनाएं चलाता है। क्या उससे यह पूछा जाना जरूरी नहीं कि उसकी लिस्ट में कौन-कौन लाभार्थी हैं? अगर योजनाओं की रोशनी उन तक नहीं पहुंची है तो इसके लिए हुकूमत क्या कर रही है। तो एक बार फिर दुष्यंत याद आते हैं -
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए, कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए.
यहाँ दरख़तों के साये में धूप पलती है, चलो, यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
बहुत पहले एक सर्वे रिपोर्ट में बताया गया था कि विश्व में हर सेकेंड भूख से एक व्यक्ति की मौत हो जाती है अर्थात हर घंटे 3,600 लोग भूख से मर जाते हैं। इस तरह हर साल 3,15,3600 लोगों की मौत भूख से होती है। बताया गया है कि विकास का डंका बजाते विश्व में 92.5 करोड़ लोग भूख और कुपोषण के शिकंजे में हैं। हर छह सेकेंड में कहीं न कहीं कोई बच्चा भूख से मर जा रहा है। भारत में भी भूखे-दूखे लोगों की संख्या कुछ कम नहीं है। IFPRI के रिसर्च के मुताबिक 84 देशों की सूची में भारत 67वें नंबर पर है। विकास की तेज रफ्तार ने भूखे लोगों की संख्या कम करने में कोई भूमिका नहीं निभाई है।
कैसी अजब दुनिया है, कोई भूख बढ़ाने के लिए घरेलू नुस्खे इस्तेमाल कर रहा है, रात का चांपा-खाया पचाने के लिए तड़के भोर से मॉर्निंग वॉक किए जा रहा है, सड़कों पर दौड़ लगा रहा है, सांड़-भैंसे की तरह हांफे जा रहा है और कोई उस महान देश में भूख से दम तोड़ रहा है, जिस देश में गंगा बहती है, राजधानी एक्सप्रेस फर्राटे मारती है, चौबीसो घंटे वायुयान दुनिया का कोना कोना छानते रहते हैं। है न शर्म की बात! सच यह भी है कि यह बात कोई नई नहीं। आजादी मिलने के बाद उम्मीद थी कि बाकी सवालों की तरह शायद पापी पेट का बुनियादी सवाल भी आसान हो जाएगा, कितना आसाना हुआ। तमाम लोग नेहरू का दमामा सुनाते हैं। वह देश इंदिरा को सौंप गए। इंदिरा राजीव को सौंप गईं। वाह, हुकूमत हांकने का भी क्या खूब खानदानी तमाशा है। यदि इस देश में सबसे ज्यादा कांग्रेस ने राज किया है तो आज उठ रहे भूख से मौतों के सवाल के लिए भी वही सबसे पहले जिम्मेदार है।
जब भूख सवाल खड़ा होता है, सियासत के चरित्र पर बातें होना कोई अजूबा नहीं, हर उस इंसान के लिए सबसे जरूरी है, जो अन्न खाता है। और इस बात पर जो चुप्पियां साध लेते हैं, तय मानिए, वह इंसानियत के दोस्त नहीं, दुश्मन माने जाएंगे। जब दुनिया ग्लोबलाइज हो चुकी हो तो भूख का सवाल भी क्यों न पूरी दुनिया के लिए चिंतनीय हो। विश्व खाद्य संगठन का कहना है कि दुनिया भर में हर दिन 20 हज़ार बच्चों के पेट में रोटी का निवाला नहीं जाता और भूख उन्हें निगल जाती है। हर साल 1 अरब 30 करोड़ टन खाद्य पदार्थ की बर्बादी होती है और हर सातवां व्यक्ति भूखा सोता है। अगर इस बर्बादी को रोका जा सके तो कितनों कर पेट भरा जा सकता है, इसका अंदाज़ा इन आंकड़ों से आसानी से लगाया जा सकता है। भारत में हर साल लगभग 251 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन भारत का हर चौथा व्यक्ति भूखा है।
इंडियन इंस्टिच्यूट आफ पब्लिक एडमनिस्ट्रशन के प्रोफेसर सुरेश मिश्रा की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जातीं हैं। हमारे देश में हर साल 50 हजार करोड़ रूपए का खाद्य पदार्थ बर्बाद होता है। उत्पादन, प्रसंस्करण से लेकर खाद्य पदार्थों के सेवन तक कई स्तरों पर मौजूद कमियां इसके लिए ज़िम्मेदार हैं।
हमारे देश में बढ़ती संपन्नता के साथ ही लोग खाने के प्रति असंवेदनशील हो रहे हैं। खर्च करने की क्षमता के साथ ही खाना फेंकने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक विवाहस्थलों के पास रखे एमसीडी के कूड़ाघरों में 40 प्रतिशत से अधिक खाना फेंका पाया जाता है। सामाजिक सम्मेलनों, रेस्तरां में होने वाली बर्बादी का स्तर और भी भयावह है। जितने ज्यादा लोग, जितनी तरह के व्यंजन, उतना अधिक खाना खराब। यानी देश में हर व्यक्ति को पेट भर खाना खाने से ज्यादा उपलब्ध है, भरपूर है, मगर भूख से मौत हो रही है तो आज के वक्त में इससे ज्यादा शर्मसार करने वाली बात और क्या हो सकती है!
खाने की बरबादी को रोकने के लिए कुछ सामाजिक संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता क़ानून बनाए जाने की मांग करते रहे हैं, सवाल वही कि हुआ क्या आजतक? भूख से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से वैश्विक स्तर पर विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है। वह भी जैसे मजाक होकर रह गया है। यूएन की एक रिपोर्ट में वर्ष 2015 तक भूखमरी से निपटने के दावे किए जा चुके हैं। फिर कहा जाता है कि आर्थिक विकास, कृषि क्षेत्र में पर्याप्त निवेश, राजनीतिक स्थायित्व और सामाजिक सुरक्षा से भूखमरी पर काबू पाया जा सकता है। जहां तक भूख का प्रश्न है, अकेले 19.0 करोड़ लोग भारत में भूखे रह जाते हैं। ऐसे हालात से उठने वाला सवाल देश के सर्वोच्च शासक वर्ग से लेकर जिलापूर्ति अधिकारी तक भले जाता हो, वह भी इससे अलग नहीं माने जा सकते, जो देश पर दशकों तक हुकूमत करने के बाद आज आलीशान बंगलों में बैठकर फिर से सत्ता की चाबी पाने में व्यस्त रहते हैं।
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