सरकार को पता था, यूनियन कार्बाइड एक दिन हजारों की मौत का जिम्मेदार होगा
मानवीय त्रासदियां सिर्फ नियति, दुर्भाग्य और कोई दैवीय षड्यंत्र भर नहीं होतीं. कई बार मनुष्य की अपनी रची होती हैं. भोपाल गैस त्रासदी भी ऐसी ही थी.
17 सितंबर, 1982 को भोपाल से निकलने वाले एक स्थानीय अखबार में एक लेख छपा. शीर्षक था- “कृपया हमारे शहर को बख्शें.” लेख लिखा था 32 साल के युवा पत्रकार राजकुमार केसवानी ने.
उस लेख में अनेकों प्रमाणों और उदारहणों के साथ केसवानी ने लिखा था कि यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री एक दिन बड़ी आपराधिक आपदा की वजह बन सकती है. और यह कोई असंभव कल्पना नहीं है. सारे तथ्य इस ओर इशारा कर रहे हैं कि यह आशंका किसी भी दिन सच हो सकती है. केसवानी ने अपने लेख में लिखा, “आप हमारी पूरी आबादी को खतरे में डाल रहे हैं और इसकी शुरुआत आपकी फैक्ट्री की दीवार के साए में बसी उडि़या, चोला व जयप्रकाश बस्तियों से हो रही है.” उन्होंने प्रदेश के नेताओं और शहर के बाशिंदों को संबोधित करते हुए चेतावनी दी, “एक दिन अगर आपदा आई तो ये मत कहिएगा कि आप लोगों को मालूम नहीं था.”
अगले हफ्ते उन्होंने एक और लेख लिखा- “भोपाल: हम एक ज्वालामुखी पर बैठे हैं.” 10 सितंबर, 1982 को रपट साप्ताहिक के मुख्य पन्ने पर छपे इस लेख में उन्होंने लिखा, “वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल एक मृत शहर होगा. तब सिर्फ बिखरे हुए पत्थर और मलबा ही इस त्रासद अंत के गवाह होंगे.”
उसके बाद फिर अगले सप्ताह छपे लेख का शीर्षक था, “अगर तुमने समझने से इनकार किया तो तुम धूल में मिल जाओगे.” इस लेख में चार दिन पहले फैक्ट्री में हुई उस गैस लीक का विस्तृत वर्णन था, जिसके चलते फैक्ट्री खाली करवानी पड़ी थी.
लेकिन भोपाल के बाशिंदों की सुरक्षा के लिए खतरा बना हुआ यूनियन कार्बाइड का यह सवाल राजकुमार केसवानी के दिमाग में उठा कैसे.
इसकी वजह फैक्ट्री में हुई उनके एक दोस्त की मौत थी, जिसके बाद इस जहरीली फैक्ट्री का काला चिट्ठा खोलकर शहर वालों के सामने रखना उनके जीवन का मकसद बन गया.
यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में काम करने वाले केसवानी के एक अजीज दोस्त मोहम्मद अशरफ की एक हादसे में मौत हो गई. एक रात जहरीली गैस फॉसजीन के पाइप में हुआ एक लीक ठीक करते वक्त उसकी कुछ बूंदें अशरफ पर पड़ीं. बस वो चंद बूंदें काफी थीं एक हंसते-खेलते नौजवान की जान लेने के लिए.
अपने दोस्त की मौत के लिए गमगीन केसवानी को दिन-रात काला धुंआ उगलने वाली ये फैक्ट्री पहले भी किसी मौत के फरमान जैसी ही लगती थी. अशरफ के घर कई बार कार्बाइड फैक्ट्री में काम करने वाले दोस्तों की महफिल जमती तो सब इसी बात को रोते कि वो दिन-रात कितनी जहरीली गैस और केमिकल्स के बीच काम करते हैं. फैक्ट्री की हालत खस्ता है. आए दिन कोई न कोई पाइप लीक करने लगता है. जाने कब ये जहर उनके फेफड़ों में उतर जाए. वो अकसर एक दिन उस फैक्ट्री और उस शहर को छोड़ कहीं बहुत दूर जाकर बसने के सपने देखते.
अशरफ की मौत के बाद केसवानी ने उसके दोस्तों से मिलकर जानना चाहा कि फैक्ट्री की खस्ता हालत, मालिक की गैरजिम्मेदार लापरवाही की बातों में आखिर कितनी सच्चाई है. अशरफ की मौत खुद अशरफ की लापरवाही से हुआ हादसा है या इसके पीछे फैक्ट्री के मालिकानों का हाथ है.
लोग जितना बोलते, उससे ज्यादा नहीं भी बोलते थे. लेकिन जितना भी बोलते, उससे जो तस्वीर सामने आती, वो भयावह थी. केसवानी के लिए ये एक जुनून बन गया था. उन्होंने दिन-रात एक कर ढेरों सुबूत जुटाए कि किस तरह पूरा की पूरा भोपाल शहर दरअसल यूनियन कार्बाइड नाम के एक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठा हुआ है, जो किसी भी दिन, किसी भी पल फट सकता है. और जिस दिन ये हुआ, इंसान तो क्या पशु, पक्षी, चिडि़यों, कीड़े-मकोड़ों तक का नामोनिशान नहीं बचेगा.
और आखिरकार 2-3 दिसंबर की दरमियानी रात को वो पल आ ही गया. फैक्ट्री से जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस रिसकर बाहर आने लगी. फैक्ट्री से निकलकर लोग इंसानी बस्तियों की दिशा में चिल्लाते हुए भागे-“भागो-भागो.” आधी रात का समय था. लोग सो रहे थे. शोर से अचानक चारों ओर भदगड़ सी मच गई. लोग नींद से उठकर भागने लगे. लोग छोटे-छोटे बच्चों को गोद में उठाए भागे. जिसे जहां जगह मिली, वहां भागा.
लेकिन जितनी तेजी से वो भागे, गैस उससे कहीं ज्यादा तेजी से रिसकर हवा में फैलने लगी. भागते हुए लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह गिरने लगे. मुंह से झाग निकलता और पलक झपकते लोग दम तोड़ देते. दो दिन बाद जब लाशों को उठाया जा रहा था तो उठाने वाले कम पड़ गए. लाशों को ढोने वाली गाडि़यां कम पड़ गईं. कई दिनों तक लाशें उठाई जाती रहीं. उनकी शिनाख्त होती रही.
जब लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे, ठीक उसी वक्त कोई और भी भाग रहा था और भागने में उसकी मदद कर रहे थे भोपाल के राजभवन में बैठे हुए लोग.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक तकरीबन 16,000 लोग उस रात देखते-देखते काल के गाल में समा गए. यह मानव इतिहास का सबसे बड़ा इंडस्ट्रियल हादसा था.
दो साल पहले तक राजकुमार केसवानी लगातार अखबार में इस बारे में लिखते रहे थे. इतना ही नहीं उन्होंने अपनी आवाज विधानसभा तक भी पहुंचाने की कोशिश की. लेकिन उनका बोलना और लिखना नक्कारखाने की तूती ही साबित हुआ.
केसवानी के बार-बार सवाल करने पर तत्कालीन रोजगार मंत्री ने एक दिन विधानसभा में कहा, “कार्बाइड फैक्ट्री की मौजूदगी से कोई खतरा नहीं है क्योंकि वहां पैदा होने वाली फॉसजीन गैस जहरीली नहीं है.”
यह बयान सार्वजनिक रूप से विधानसभा में दिया गया था, जो अगले दिन के अखबारों की हेडलाइन बना. शहरवासियों ने यूनियन कार्बाइड को लेकर लिखे जा रहे केसवानी के लेखों को कार्बाइड, फैक्ट्री और शहर के आर्थिक विकास के खिलाफ किसी षड्यंत्र की तरह देखा. होना तो ये चाहिए था कि लाखों की संख्या में लोग विधानसभा और फैक्ट्री को घेर लेते, जबरन फैक्ट्री बंद करवा दी जाती. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
एक दिन वो पत्रकार बोल-बोलकर इतना थक गया कि वह शहर ही छोड़कर चला गया. उसने अपनी किताबें, संगीत के कैसेट दो झोलों में भरे और भोपाल से विदा ली. लेकिन जाने से पहले उस रोजगार मंत्री के विधानसभा में दिए बयान के खिलाफ उसने दो लंबे खत लिखे. एक तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के नाम, जो यूनियन कार्बाइड के मालिक को निजी तौर पर भी जानते थे और दूसरा सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के मुख्य न्यायाधीश के नाम. इस खत में उसने विस्तार से अपनी रिसर्च और प्रमाणों के साथ यह साबित किया था कि यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री एक दिन शहर में बड़ी आपराधिक त्रासदी का कारण बनेगी.
दोनों में से किसी ने उसके खत का जवाब देने की जहमत नहीं उठाई.
और एक दिन वो सारी बातें सच हो गईं, जो उस खत में लिखी थीं.
मानवीय त्रासदियां सिर्फ नियति, दुर्भाग्य और कोई दैवीय षड्यंत्र भर नहीं होतीं. कई बार मनुष्य की अपनी रची होती हैं.
भोपाल गैस त्रासदी भी ऐसी ही थी.