इन दृष्टिहीनों की कहानी सुनकर आप कभी नहीं मानेंगे जिंदगी में हार
इंसान में मजबूत इच्छाशक्ति हो तो वह दृष्टिबाधित होने के बावजूद जीवन में बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर सकता है। ऐसी ही मिसाल हैं दरभंगा (बिहार) के जन्मांध पीसीएस अधिकारी आशीष ठाकुर और खड़गपुर) के जन्मांध दामोदर मंडल।
ऐसा प्रायः देखा-सुना जाता है कि नेत्रहीन होने पर ज्यादातर लोग भीख मांगकर या किसी के दरवाजे पर बैठकर अपना जीवन यापन करते हैं लेकिन हवेली खड़गपुर नगर क्षेत्र के कृष्णा बाजार निवासी इक्यावन वर्षीय दामोदर मंडल हों या बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के चालीस वर्षीय आशीष सिंह ठाकुर, वे दृष्टिबाधित होने के बावजूद हर कार्य सरल तरीके से कर लेते हैं। आशीष सिंह ठाकुर और दामोदर मंडल जन्म से ही नेत्रहीन हैं।
आशीष सिंह ठाकुर ने अपनी कभी हार ना मानने की क्षमता और परिवार के लोगों के सहयोग की बदौलत न सिर्फ अपने लिए जिंदगी के मायने बदल दिए बल्कि समाज के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन गए। आशीष ठाकुर बचपन से ही नेत्रहीन हैं। उनकी पढ़ाई अन्य सामान्य बच्चों की तरह साधारण से स्कूल-कॉलेज में हुई है। उन्होंने ब्रेल लिपि का भी सहारा नहीं लिया और पाठ्यक्रम का ऑडियो रिकार्डिंग एवं स्वयं भी वर्ग में शिक्षकों से सुनकर अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी।
किसी इंसान के जीवन के घनघोर अंधेरे में भी यदि इच्छाशक्ति मजबूती से साथ दे दे तो मुश्किल से मुश्किल बाधा को पार कर सफलता के सोपान पर पहुंच जाना भी आसान हो जाता है। कुछ ऐसी ही कहानी दृष्टिबाधिता को झुठलाने वाले देश की सर्वाधिक कठिन प्रतियोगी परीक्षा संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) उत्तीर्ण होकर भारतीय डाक सेवा (आइपीएस) के अधिकारी बने बिहार के दरभंगा में डाक प्रशिक्षण केन्द्र के निदेशक आशीष सिंह ठाकुर की है।
दृष्टिबाधित होने के बावजूद डाक प्रशिक्षण केन्द्र के निदेशक श्री ठाकुर चार राज्यों के इकलौते प्रशिक्षण केन्द्र का दायित्व सफलतापूर्वक संभाल रहे हैं। ठाकुर ने वर्ष 1997 में बारहवीं की परीक्षा जीव विज्ञान विषय से एवं वर्ष 2000 में स्नातक कला की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके बाद गुरू घासी दास केन्द्रीय विश्वविद्यालय (छत्तीसगढ़) से वर्ष 2002 में उन्होंने इतिहास विषय से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण कर गोल्ड मेडल प्राप्त किया।
आशीष ठाकुर अध्ययन के दिनों में हमेशा अपने विश्वविद्यालय के टॉपर रहे। उसके बाद उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से जेआरएफ और एसआरएफ में सफलता प्राप्त की। इतना पढ़ने के बाद भी वे नहीं रुके। इसके बाद उन्होंने ‘गांधीवाद और वामपंथ’ के अंतःक्रियात्मक संबंध’ विषय पर पीएचडी की। उन्होंने नौकरी के लिए छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में भी सफलता प्राप्त की तथा वर्ष 2007 में उन्होंने छत्तीसगढ़ में सहायक आयुक्त वाणिज्यकर के रूप में दो वर्ष सेवा की।
मुंगेर (बिहार) में नेत्रहीन दमोदर मंडल आइसक्रीम बेचकर अपना जीवनयापन करते हैं। धंधे के दौरान ग्राहकों द्वारा दिए जाने वाले हर रुपये पैसे का उन्हें सही सही ज्ञान रहता है। दामोदर सिर्फ छूकर ही बता देते हैं कि ग्राहक ने कितने रुपये का नोट या सिक्का उनको दिया है। इतना ही नहीं आइसक्रीम का दाम काट कर ग्राहक का उनके सही रुपये भी लौटा देते हैं। दामोदर बताते हैं कि घर की माली हालत खराब के होने कारण उनके मां-पिता उनकी आंख का इलाज नहीं करवा सके। गर्मी के दिनों में वह अपने आईसबॉक्स को अपने कंधे पर लेकर लाठी के सहारे आईसक्रीम बेचने निकल पड़ते हैं।
फैक्ट्री से आइसक्रीम लेकर डमरू बजा बजा कर गांव-गांव में बेचते हैं। शुरुआती दिनों में उनको थोड़ी परेशानी हुई, लेकिन अब आदत सी बन गई है। दृष्टि होने के कारण दामोदर की शादी नहीं हुई है। पहले जो भी रुपये कमा कर लाते थे, मां को दे देते थे लेकिन मां की मृत्यु के बाद वह अपने भाई के साथ रहते हैं। इसलिए उन्हें कमाई का साा पैसा दे देते हैं।
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