खादी ग्रामोद्योग आयोग ने ही की गांधी की खादी मैली
खादी ग्रामोद्योग आयोग के अधिकारी भले ही हालात सही बता रहे हों, लेकिन इन खादी भवनों में क्या-क्या गड़बडिय़ां हो रही हैं, उनकी फेहरिस्त काफी लम्बी है। यहां कामगारों की दयनीय हालत के अलावा खादी की आड़ में हैण्डलूम के कपड़े धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं।

खादी को बढ़ावा देने के लिए पीएम मोदी चरखे के साथ (फाइल फोटो)
यूपी के उन्नाव, लखीमपुर खीरी, रायबरेली, फैजाबाद आदि जिलों में खादी ग्रामोद्योग पूरी तरह मृतप्राय हो चुके हैं। सबसे ज्यादा तकलीफदेय बात यह है कि कुछ जिलों में खादी भण्डार की जमीनों पर भू-माफिया का कब्जा भी हो चुका है।
अगर आप इस कड़वी सच्चाई को देखना चाहते हैं तो, आपको आयोग के खादी ग्रामोद्योग भवन का रुख करना होगा। दिल्ली में कनॉट प्लेस की रीगल बिल्डिंग में यह भवन है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिस खादी को देश में स्वरोजगार पैदा करने का माध्यम बनाया था, उसी देश में आजादी के 7० साल बाद खादी ग्रामोद्योग आयोग की हालत बद से बदतर होती जा रही है। हर साल 02 अक्टूबर (गांधी जयन्ती), 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) को ही खादी के कपड़े नजर आते हैं। इन अवसरों पर खादी के विकास की अनेक बातें भी की जाती हैं, लेकिन ये तमाम वायदे अब भी अधूरे हैं। खादी ग्रामोद्योग की दुर्दशा उन सरकारों ने ही की है, जिनसे इस संस्था को काफी उम्मीदें थीं। फिलहाल देश भर में खादी ग्रामोद्योग आयोग हैं। यह संस्था भारत सरकार के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय के अधीन है।
मंत्रालय चाहे लाख दावा करे, लेकिन मौजूदा समय में खादी ग्रामोद्योग की हालत संतोषप्रद नहीं कही जा सकती है। खादी ग्रामोद्योग आयोग के अधिकारी भले ही हालात सही बता रहे हों, लेकिन इन खादी भवनों में क्या-क्या गड़बडिय़ां हो रही हैं, उनकी फेहरिस्त काफी लम्बी है। यहां कामगारों की दयनीय हालत के अलावा खादी की आड़ में हैण्डलूम के कपड़े धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं। इतना ही नहीं उ.प्र. जैसे राज्य जहां खादी ग्रामोद्योग के कई केन्द्र हैं, वहां की स्थिति और ज्यादा खराब है। उन्नाव, लखीमपुर खीरी, रायबरेली, फैजाबाद आदि जिलों में खादी ग्रामोद्योग पूरी तरह मृतप्राय हो चुके हैं। सबसे ज्यादा तकलीफदेय बात यह है कि कुछ जिलों में खादी भण्डार की जमीनों पर भू-माफिया का कब्जा भी हो चुका है।
वहां स्थानीय छुटभैये नेता खादी भण्डार के भवनों में अपने निजी कार्य को अन्जाम देते हैं। जैसा कि सभी को पता है खादी महज एक कपड़ा नहीं, बल्कि यह महात्मा गांधी के विचारों की बुनियाद है। हिंसा मुक्त, शोषण मुक्त, न्यायपूर्ण समता आधारित सामाजिक व्यवस्था का अर्थशास्त्र खादी है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खादी में कई प्रयोग किए, मसलन खादी की मदद के लिए उन्होंने ग्रामोद्योग बनाया। हालांकि, अब वे प्रयोग बन्द हो चुके हैं और खादी की कब्र पर ग्रामोद्योग का मेला सजाने के अलावा कुछ खास नहीं किया जा रहा है। अगर आप इस कड़वी सच्चाई को देखना चाहते हैं तो, आपको आयोग के खादी ग्रामोद्योग भवन का रुख करना होगा। दिल्ली में कनॉट प्लेस की रीगल बिल्डिंग में यह भवन है।
कॉरपोरेट लुक लिए इस खादी भवन में खादी के कपड़े कम और हैण्डलूम के उत्पाद ज्यादा बिक रहे हैं। राजधानी दिल्ली में रहने वाले पुराने लोग, जिन्हें खादी की अच्छी परख है उनका यहां आना लगभग खत्म हो चुका है। खादी आश्रम में काम करने वाले कामगार भी इस हकीकत को समझते हैं। इसके कारण उनमें अपने प्रबन्धन को लेकर व्यापक असन्तोष भी है। भारत में खादी और ग्रामोद्योग के तहत चलने वाले 07 हजार केन्द्रों पर खादी के कपड़े की सालाना बिक्री 1,000 करोड़ रुपये की है। इसके बावजूद आज हमारे देश में सूती और ब्रांडेड पहनने का फैशन चल पड़ा है, लेकिन देश के नौजवानों को खादी की तरफ आकर्षित करने के तमाम सरकारी प्रयास निष्फल साबित हुए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश में खादी का प्रचार-प्रसार पूरी ईमानदारी के साथ किया ही नहीं गया।
हालांकि, खादी और ग्रामोद्योग आयोग के कर्मचारी संघ का मानना है कि खादी और ग्रामोद्योग आयोग के तमाम दावे खोखले हैं। दरअसल, यहां नौकरशाही पूरी तरह हावी है। यहां पौधों की जड़ों की बजाय उसके पत्तों की सिंचाई की जा रही है। उनके मुताबिक खादी और ग्रामोद्योग आयोग भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आ चुका है। वर्कर यूनियन और खादी आयोग के आला अधिकारियों के बीच लम्बे समय से सम्वादहीनता की स्थिति है। इस वजह से चाहे जितनी भी वित्तीय मदद क्यों न मिले, उसका दुरुपयोग होना तय है।
दरअसल, गांधी के देश में खादी की दुर्दशा के लिए वही लोग जिम्मेदार हैं, जो गांधी के वचनों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेते हैं। आखिर वह कौन-सी ऐसी ताकतें हैं, जो खादी ग्रामोद्योग को तबाह करने पर तुली हैं? खादी पर सबसे पहला हमला उस वक्त हुआ, जब खादी की खरीद में दी जाने वाली छूट बन्द की गई। देश भर में आज भी तकरीबन सात हजार खादी भण्डारों से कुल दस हजार परिवारों का भरण-पोषण हो रहा है, वह भी इस यांत्रिक युग में। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश में खादी का प्रचार-प्रसार पूरी ईमानदारी के साथ किया ही नहीं गया। इसके लिए खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज बोर्ड ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, जिसे बनाने का मकसद था खादी को देश भर में बढ़ावा देना, लेकिन नतीजा निकला सिफर।
सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिहाज से भी खादी से बेहतर कोई दूसरा कपड़ा नहीं है। इतना ही नहीं खादी से आज भी कई घरों के चूल्हे जल रहे हैं। इससे गांव के गरीब लोगों को रोजगार मिल रहा है, वहीं दूसरी तरफ मिलों में कपड़े बनाने के लिए जिस यंत्र का इस्तेमाल किया जाता है, उससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा भी उत्पन्न हो रहा है। खादी के लिए इस्तेमाल में लाया जाने वाला कपास भी हमारे ही देश में उत्पन्न होता है। खादी का प्रचार-प्रसार न होने के कारण खादी की बिक्री लगातार कम होती जा रही है। जिन्होंने अहमदाबाद में साबरमती आश्रम देखा होगा वह गांधी के विचारों एवं खादी से कायल हुए बिना नहीं रह सके होंगे।
महात्मा गांधी के कमरे में रखे चरखे को देख कर सचमुच एक रोमांच पैदा होता है। दरअसल, गांधी जी ने इसकी मदद से अंग्रेजों से मुकाबला किया था। तकरीबन डेढ़ सौ वर्ष पहले जब हमारे देश में कपड़े की मिलें नहीं थीं, तब यही खादी हमारे तन ढंकने का जरिया थी। इस वजह से लाखों लोगों को रोजगार मिल जाता था। जब यूरोप में यांत्रिक युग शुरू हुआ, तब हालात बदल गए। अंग्रेजों ने अपने देश में बने कपड़े भारत भेजने शुरू कर दिए। इससे खादी का प्रचलन कम होने लगा।
कामगारों की दलील:
सरकार कॉरपोरेट लुक देकर खादी की बिक्री बढ़ाना चाहती है, लेकिन खादी से लोगों का रिश्ता उसके स्टोर की खूबसूरती से नहीं है, बल्कि खादी से भावनात्मक लगाव के कारण है। खादी स्टोर पर जाने वाले ग्राहकों को इस बात का पूरा यकीन होता है कि जो वस्तु वे खरीद रहे हैं, वह शुद्ध है। खादी ग्रामोद्योग पर वर्षों से कायम इस यकीन को बरकरार रखना मौजूदा समय में एक बड़ी चुनौती है। कामगारों का मानना है कि खादी ग्रामोद्योग आयोग में सरकार की ओर से वर्कर यूनियन की मांगों पर कोई विचार नहीं किया जाता। यहां नौकरशाही इस कदर हावी है कि मंत्रालय भी आयोग के अधिकारियों की बातों पर ज्यादा ध्यान देता है।
आशंका:
अधिकांश खादी आश्रम में लोग ढाई-तीन दशकों से काम कर रहे हैं। ये सभी सरकार के कर्मचारी हैं। यदि सरकार इसे निजी हाथों में सौंप देती है, तो निश्चित तौर से उनके समक्ष रोजगार का संकट पैदा हो जाएगा। सरकार को भले ही यह भरोसा हो कि खादी के कारोबार को निजी हाथों में सौंपने से उसका कायाकल्प हो जाएगा, लेकिन खादी आश्रम में काम करने वाले कर्मचारी इससे सहमत नहीं हैं। दिल्ली के रीगल सिनेमा स्थित खादी आश्रम में काम करने वाले एक कर्मचारी की मानें तो, सूक्ष्म लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय लगातार हो रहे राजस्व घाटे के कारण खादी आश्रम दिल्ली, जयपुर, लखनऊ और पटना केन्द्रों को बन्द करने की मन्शा जाहिर कर चुका है।
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