यूरोप के सबसे पुराने जंगल को बचाने के लिए जर्मनी के जंगल में पेड़ों पर रह रहे हैं लोग
पश्चिमी जर्मनी में स्थित हैमबख जंगल पूरे यूरोप का सबसे पुराना जंगल माना जाता है। इसकी आयु लगभग 12,000 साल है। यहीं पर सबसे बड़ी कोयला की खदान भी है। यह जंगल करीब 33 स्क्वॉयर मील में फैला हुआ है।
जंगल को बचाने वाले कार्यकर्ताओं ने यहां घेराबंदी कर रखी है और वे पुलिस या खदान कंपनी के अधिकारियों को यहां नहीं आने देना चाहते।
आंदोलन की शुरुआत 2012 में हुई थी, तब छह महीने के लिए लोगों ने यहां डेरा डाला था उसके बाद आवाज न सुने जाने पर लोगों ने 2014 में फिर से यहां आना शुरू किया और तब से यहां कोई न कोई रहता ही है।
इस सप्ताह जर्मनी के बॉन शहर में एक तरफ जलवायु परिवर्तन को कम करने के वैश्विक समझौते को लागू करने पर चर्चा हो रही थी तो वहीं दूसरी ओर जर्मनी के हैमबख जंगल को बचाने के लिए पर्यावरण प्रेमी प्रदर्शन कर रहे थे। ये प्रदर्शन काफी बड़े स्तर पर हो रहा है। भारत में आजादी के समय ऐसा ही प्रदर्शन पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में चिपको नाम से हुआ था। जर्मनी का यह जंगल यूरोप का सबसे पुराना जंगल है और तमाम मल्टीनेशनल कंपनियां इसे उजाड़कर अपनी फैक्ट्री स्थापित करना चाहती हैं। लेकिन वहां के पर्यावरण प्रेमी कार्यकर्ता और छात्रों ने इस जंगल को बचाने का संकल्प लिया है और वे जंगल में ही पेड़ों पर अपना आशियाना बनाए हुए हैं।
पश्चिमी जर्मनी में स्थित हैमबख जंगल पूरे यूरोप का सबसे पुराना जंगल माना जाता है। इसकी आयु लगभग 12,000 साल है। यहीं पर सबसे बड़ी कोयला की खदान भी है। यह जंगल करीब 33 स्क्वॉयर मील में फैला हुआ है। यहां पर भूरे कोयले और लिग्नाइट की कई खदानें हैं। कोयले के जलने से भारी मात्रा में कार्बनडाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। पिछले पांस से भी ज्यादा सालों से कई सारे ऐक्टिविस्ट इसे बचाने के लिए संघर्षरत हैं। कार्यकर्ताओं की मांग है कि यहां खनन का काम बंद किया जाए। क्योंकि जर्मनी में पुराने जंगलों की संख्या घटरकर सिर्फ 10 प्रतिशत रह गई है।
जंगल को बचाने वाले कार्यकर्ताओं ने यहां घेराबंदी कर रखी है और वे पुलिस या खदान कंपनी के अधिकारियों को यहां नहीं आने देना चाहते। एक प्रदर्शनकारी ऐना ने बताया कि यहां रहना काफी मुश्किल है क्योंकि न तो यहां पानी है और न ही बिजली। लोग यहां सालों से डेरा डाले हुए हैं। चाहे गर्मी हो सर्दी हो या फिर बारिश वे इस जगह को तब तक नहीं छोड़कर जाना चाहते जब तक कि सरकार इसे बचाने का वादा न करे। हालांकि गर्मियों का मौसम तो काफी अच्छा होता है लेकिन सर्दी में प्रदर्शनकारियों को काफी दिक्कत होती है।
इसकी शुरुआत 2012 में हुई थी, तब छह महीने के लिए लोगों ने यहां डेरा डाला था उसके बाद आवाज न सुने जाने पर लोगों ने 2014 में फिर से यहां आना शुरू किया और तब से यहां कोई न कोई रहता ही है। जर्मनी की सबसे बड़ी बिजली आपूर्ति कंपनी RWE हैमबख में जंगलों को काटकर खनन कार्य करने का प्रोजेक्टलगा रही है। यहां अगर खनन कार्य प्रारंभ होगा तो कंपनी की योजना हर साल 4 करोड़ टन हर साल कोयले का उत्पादन करने की है। हालांकि 1978 से ही यहां भूरे कोयले और लिग्नाइट का उत्पादन हो रहा है। पर्यावरण कार्यकर्ता इसी को रोकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने भी चेतावनी दी है। इस बार चेतावनी सख्त है कि प्रकृति का ऐसा दोहन जारी रहा तो दस साल के अंदर जलवायु परिवर्तन को रोकना और पलटना संभव नहीं रहेगा। धरती इतनी गर्म हो जायेगी कि भू-भाग जलमग्न हो जायेंगे, बहुत सारे इलाके रहने लायक नहीं रहेंगे और मौसम उत्पाती हो जायेगा लेकिन बहुत सारे लोगों को अभी भी इस चेतावनी पर भरोसा नहीं। तभी तो अमेरिका ने पेरिस जलवायु संधि से बाहर निकलने का फैसला किया है और बॉन में उसने एक बहुत ही छोटे स्तर के प्रतिनिधिमंडल के साथ भाग लिया।
सम्मेलन में वार्ताकार हर देश के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन मापने के तरीकों पर सहमत होने का प्रयास किया। साथ ही यह सुनिश्चित किया गया कि सभी समान नियम का पालन करें। शोधकर्ताओं का कहना है कि हाल के महीनों में कैरिबियन में तूफान, यूरोप में लू चलने और दक्षिण एशिया में बाढ़ की घटनाएं जलवायु परिवर्तन के चलते बार-बार हो रही हैं। इन विनाशकारी परिणामों को रोकने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था को जीवाश्म ईंधन से दूर करने के लिए देशों को सम्मिलित प्रयास करना होगा।
संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि यदि पर्याप्त प्रयास नहीं हुए तो 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पेरिस के लक्ष्यों से 30 फीसदी ज्यादा होगा। शताब्दी के अंत तक धरती का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ जायेगा। पेरिस में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इसे 2 डिग्री पर रोकना तय किया था लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार कौन हैं? एक रिपोर्ट के अनुसार एक तिहाई उत्सर्जन तो दुनिया की 250 कंपनियां करती हैं। इन्हें रोकना बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा है। सम्मेलनों में तय फैसलों की काट वे निकाल ही लेते हैं।
यह भी पढ़ें: देश की पहली महिला डॉक्टर रखमाबाई को गूगल ने किया याद, जानें उनके संघर्ष की दास्तान