डैनी को छोड़ अमजद पर हाथ डाला और गब्बर मिल गया
शोले जैसी ऐतिहासिक फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशक के जन्मदिन पर विशेष...
भारतीय सिनेमा की बेहद सफल फिल्म 'शोले' के निर्माता-निर्देशक रमेश सिप्पी का आज 71वां जन्मदिन है। वह सर्वश्रेष्ठ फिल्म 'शोले' बनाकर फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं, इसके अलावा उन्होंने ही 'बुनियाद' जैसा अत्यंत सफल धारावाहिक 'सीता और गीता' जैसी एक और बड़ी लोकप्रिय फिल्म का भी निर्माण किया था।
फिल्म 'शोले' की कामयाबी ने एक ऐसा रिकॉर्ड बना दिया, जिसे छूने के लिए आज भी हिंदी फिल्मी दुनिया तरसती रहती है। इसी फिल्म के कारण वर्ष 2013 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया।
रमेश सिप्पी एक ऐसा नाम है, जिसका जन्म तो देश के विभाजन से पहले पाकिस्तान के शहर करांची में हुआ लेकिन स्नातक तक पूरी पढ़ाई लिखाई मुंबई में हुई और इसी महानगर में उन्होंने अपने सृजन का ऐसा परचम लहराया, जिसे दुनिया देखती रह गई। रमेश सिप्पी 1995 में 'ज़माना दीवाना', 1991 में 'अकेला', 1989 में 'भ्रष्टाचार', 1985 में 'सागर', 1982 में 'शक्ति', 1980 में 'शान', 1975 में 'शोले', 1972 में 'सीता और गीता', 1971 में 'अंदाज़' जैसी फिल्में बनाकर शोहरत की बुलंदिया छू चुके हैं। उनको दो पुरस्कार मिल चुके है, वर्ष 2012 में अवार्ड्स ऑफ़ द इंटरनेशनल फिल्म एकेडमी और 'शोले' पर फिल्मफेयर पुरस्कार।
फिल्म 'शोले' की कामयाबी ने एक ऐसा रिकॉर्ड बना दिया, जिसे छूने के लिए आज भी हिंदी फिल्मी दुनिया तरसती रहती है। इसी फिल्म के कारण वर्ष 2013 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया। रमेश सिप्पी का जन्म आज (23 जनवरी) ही के दिन वर्ष 1947 में हुआ था। मात्र नौ साल की उम्र में उन्होंने फिल्म 'शहंशाह' में अचला सचदेवा के बेटे की भूमिका निभायी थी। उसके बाद 1968 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'ब्रह्मचारी' प्रोड्यूस की।
रमेश सिप्पी बताते हैं कि एक वक्त में फिल्म 'शोले' बनाने के लिए उनके पास जरूरत भर पैसे नहीं थे। उस समय पैसे के लिए अपने पिता जीपी सिप्पी पर आश्रित थे। मैं भाग्यशाली था कि 'शोले' बनाने के दौरान मेरे पिता साथ रहे। मुझे याद है, जब दिलीप कुमार ने एक फिल्म के लिए एक लाख रुपये लिए थे, उस समय हर किसी ने यही कहा था कि फिल्म इंडस्ट्री बंद होने वाली है। उस समय 'शोले' बनाने के लिए मेरे पास पर्याप्त बजट कैसे जुटे, यही मेरी सबसे बड़ी चिंता थी। मेरे पास कुछ विचार थे, जिसे मैंने अपने पिता से साझा किए। उनकी अंतिम फिल्म 'सीता और गीता' थी, जिसे बनाने में 40 लाख रुपये लगे थे। यह बड़ी हिट रही थी।
सिप्पी ने कहा कि मुझे फिल्म बनाने के लिए एक करोड़ रुपये चाहिए। यद्यपि 'शोले' बनाने में तीन करोड़ रुपये लग गए थे। बहुत से लोगों को पहले से उम्मीद थी कि 'शोले' बॉक्स ऑफिस पर जरूर अच्छा करेगी। इस फिल्म के स्टार कास्ट में मात्र 20 लाख रुपये लगे थे। उस समय बहुत से लोगों को हमारी समझदारी पर शक भी था। आज के समय में यदि आप 150 करोड़ रुपये की फिल्म बनाते हैं तो उसमें से 100 करोड़ रुपये स्टार कास्ट में ही लग जाते हैं। आज का फिल्म निर्माण व्यवसाय एकतरफा हो गया है। 'शोले' के लिए रमेश सिप्पी ने पहले डैनी को गब्बर का किरदार साइन किया था लेकिन उनको लगा कि गब्बर तो कोई और होना चाहिए। उन्होंने अमजद खान पर हाथ डाला और उन्हें गब्बर मिल गया। रमेश सिप्पी बताते हैं कि जय के लिए भी उनकी पहली पसंद शत्रुघ्न सिन्हा थे, जिनसे बात बनी नहीं। उस जमाने में समीक्षक कहा करते थे कि 'शोले' तो रिलीज से पहले ही फ्लॉप लग रही है। जब फिल्म रिलीज हुई तो फिर पूरे देश के मन-मिजाज पर छा गई।
रमेश सिप्पी ने अपनी पढ़ाई-लिखाई मुंबई में ही बंबई विश्वविद्यालय से स्नातक करते हुए पूरी की। उन्होंने दो शादियां की हैं। दूसरी पत्नी अभिनेत्री किरण जुनेजा हैं। उनके दो बच्चे हैं। उनमें एक रोहन कपूर फिल्म निर्माता-निर्देशक हैं और बेटी शीना कपूर की शादी शशि कपूर के बेटे कुणाल कपूर से हुई है। रमेश सिप्पी एक फिल्मकार के रूप में बड़े बजट, बहुल सितारा और भव्य पैमाने की फिल्म पूरे परफेक्शन के साथ निर्देशित करने के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने अपने शुरुआती करियर में पहली ही फिल्म में उस दौर के सुपरस्टार राजेश खन्ना, हेमा मालिनी और शम्मी कपूर को लेकर 1971 में 'अंदाज' फिल्म बनाई थी, जिसका गीत 'जिंदगी एक सफर है सुहाना' का फिल्मांकन तेज भागती मोटर साइकिल पर कुछ इस अंदाज में किया गया था कि युवा वर्ग में उसको नया क्रेज मिला।
बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने सफलता दर्ज की और रमेश फिल्म जगत में स्थापित हो गए। इसके बाद हेमा मालिनी के डबल रोल से उन्होंने 'सीता और गीता' के रूप में परस्पर विपरीत स्वभाव वाली दो बहनों का अनूठा चित्रण किया। यह फिल्म नायिका प्रधान थी और इस तरह की फिल्म बनाना व्यवसाय की दृष्टि से रिस्की था लेकिन रमेश सिप्पी ने यह जोखिम उठाया और फिल्म सुपरहिट हो गई। इसके बाद रमेश सिप्पी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने ‘शोले’ जैसी भव्य फिल्म बनाई। शोले जब रिलीज हुई थी, उन्हीं दिनों जेबी मंघाराम बिस्किट वालों ने 35 लाख की लागत से 'जय संतोषी माँ' को बड़े पर्दे पर उतारा। यद्यपि 'संतोषी माँ' का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 'शोले' से ज्यादा रहा, लेकिन सिप्पी की फिल्म ने रिकॉर्ड के नए मानक रच दिए।
'शोले' के रूप में उन्होंने इतनी बड़ी रेखा खींच दी कि हर बार उनके द्वारा बनाई गई फिल्मों की तुलना ‘शोले’ से होने लगी। कलात्मक दृष्टि से भी और व्यावसायिक दृष्टि से भी। शोले की सफलता रमेश पर भारी पड़ने लगी और वे एक तरह के दबाव में आ गए। मुंबई के मेट्रो सिनेमा में लगातार पांच वर्षों से अधिक चलकर रिकॉर्ड बनाने वाली फिल्म 'शोले' की अपार सफलता के बाद 1980 में उनकी बड़े बजट की एक और फिल्म आई 'शान'। इसके बाद 1982 में सलीम जावेद की जोड़ी द्वारा लिखी गई फिल्म 'शक्ति' का सिप्पी ने निर्देशन किया। पहली बार दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन जैसे मेगा स्टार पिता-पुत्र के रूप में उस फिल्म में एक साथ बड़े पर्दे पर उतरे, लेकिन उसे बॉक्स ऑफिस पर अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाई। इसी तरह 1985 में उनकी अगली फिल्म 'सागर' को भी औसत सफलता मिली। इससे उनका मन उखड़ने लगा और उन्होंने फिल्म निर्माण से अपना हाथ खींच लिया।
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