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बच्चों की दुविधा, कोडिंग करें या बचपना !

देखा-देखी करने की हमारी परंपरा ऐसी है कि शर्माजी के लड़के ने जैसे ही व्हाइट जूनियर पर कोडिंग शुरू की भारतीय माँ-बाप बिना किसी बात के ही दबाव में आ गए।

बच्चों की दुविधा, कोडिंग करें या बचपना !

Tuesday October 27, 2020 , 5 min Read

"हर बच्चा अलग होता है। शर्माजी का बच्चा जो करता है वही ज़रूरी नहीं कि आपका बच्चा करना चाहे या वही करने का उसमें टैलेंट हो। अगर आपके बच्चे की रुचि और उसकी नैसर्गिक प्रतिभा कहीं और है और आप कुछ और की उनसे उम्मीद करते हैं, तो ये बच्चे के स्वस्थ विकास में बाधक हो सकता है।"

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सांकेतिक फोटो, साभार : newcreationschool

भारतीय माता-पिता की समस्याओं का कोई अंत नहीं… वे चाहे कितनी ही मगज़मारी क्यों न कर लें... लेकिन, शर्माजी का लड़का हमेशा उनके मंसूबों पर पानी फेर देता है। क्लास में फ़र्स्ट आने, एक्स्ट्रा-करिकुलर में अच्छा करने, डिबेट और एक्सटेंपोर जीतने से अभी बच्चों को फ़ुरसत मिली नहीं थी कि व्हाइट हैट जूनियर वाले एक नया बवाल लेकर आ गए।


देखा-देखी करने की हमारी परंपरा ऐसी है कि शर्माजी के लड़के ने जैसे ही व्हाइट जूनियर पर कोडिंग शुरू की भारतीय माँ-बाप बिना किसी बात के ही दबाव में आ गए। क्या करें क्या न करें… 


बच्चों को लेकर भारतीय माता-पिता हमेशा ही चिंतित रहते हैं। हमारे यहाँ बच्चों की ज़िंदगी में माता-पिता का दख़ल इतना अधिक होता है कि बच्चे क्या पढ़ें, कौन सा कैरियर चुनें यहाँ तक कि किससे दोस्ती और शादी करें यह भी माता-पिता ही तय कर लेना चाहते हैं। हर माता-पिता को लगता है कि उनके बच्चे में आइंस्टीन का टैलेंट है बस बच्चा एक बार मन बना ले, तो फिर उसे कोई रोक नहीं सकता। हालाँकि कोई माता-पिता अपने गिरेबान में नहीं देखते कि वे ख़ुद अपनी मेहनत और एकाग्रचित्तता से सफलता का कोई झंडा गाड़कर एक मिसाल क्यों नहीं क़ायम करते। हमारे देसी मात-पिता अपने बच्चों से उससे ज़्यादा की अपेक्षा करते हैं जितना कि उन्होंने ख़ुद से कभी किया होगा।


जो सबसे बुनियादी बात है वो यह कि… हर बच्चा अलग होता है। शर्माजी का बच्चा जो करता है वही ज़रूरी नहीं कि आपका बच्चा करना चाहे या वही करने का उसमें टैलेंट हो। अगर आपके बच्चे की रुचि और उसकी नैसर्गिक प्रतिभा कहीं और है और आप कुछ और की उनसे उम्मीद करते हैं, तो ये बच्चे के स्वस्थ विकास में बाधक हो सकता है।

If या Else

बच्चों की ज़िंदगी को एक कंप्यूटर प्रोग्राम की तरह देखने का नज़रिया त्याग दिया जाए, तो if और else के अलावा और भी कई विकल्प दिखाई देने लगेंगे। कहने का यह अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि कोडिंग ख़राब चीज़ है या टेक्नोलॉजी अपने भीतर बुराइयाँ छिपाए हुए है। टेक्नोलॉजी एक उपकरण है जिसका उपयोग मनुष्य को करना होता है वांछित परिणाम पाने के लिए। उसका उपयोग आप कितना और कैसे करते हैं ये आपके ऊपर है। टैबलेट का उपयोग पठन-पाठन के लिए भी किया जा सकता है और इंटरनेट पर तमाम गड़बड़ चीज़ें देखने और डाउनलोड करने के लिए भी किया जा सकता है। आप टेक्नोलॉजी की मदद से टेक्नोलॉजी के उपयोग को स्क्रीन टाइम और पैरेंटल कंट्रोल आदि के जरिए ही नियंत्रित भी कर सकते हैं।


जैसे बच्चे बाक़ी तमाम चीज़ें पढ़ते और सीखते हैं वैसे ही वे कोडिंग भी सीख सकते हैं। ज़रूरी यह है कि बच्चा ऐसा अपनी रुचि और अपनी योग्यता के हिसाब से करे न कि किसी दबाव के। अगर बच्चे को कोडिंग करना अच्छा नहीं लगता और आप लगातार कोडिंग करने का दबाव बनाएँगे, तो हो सकता है कि बच्चा कोडिंग करने के बजाय टैबलेट या लैपटॉप खोलकर उसका कोई और ही उपयोग करे। इसके अलावा स्क्रीन पर ज़्यादा समय बिताने से बच्चों (और बड़ों के भी) के मस्तिष्क और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना भी रहती है। अगर आप अपने बच्चों को स्मार्टफ़ोन, टैबलेट, कंप्यूटर जैसे उपकरण प्रदान करते हैं, तो बेहतर हो कि उनके उपयोग पर आपका नियंत्रण हो न कि टेक्नोलॉजी आपके ऊपर राज करे।

ऑल कोडिंग एंड नो प्ले

अगर बच्चों के मन से देखें तो कोडिंग एक बेहद ही उबाऊ काम है। नैसर्गिक रूप से तो बच्चों को दौड़-भाग करने, नटखटपना करने और अपने हमउम्र बच्चों के साथ हँसी-ठिठोली करने में मज़ा आता है। अगर इसके विपरीत आपका बच्चा स्क्रीन पर ज़्यादा समय बिताता है, तो आपको यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि बच्चा ऐसा क्यों करता है। ऐसा व्यवहार किसी अन्य समस्या की तरफ़ इशारा भी हो सकता है। 


टेक्नोलॉजी आज हमारे चारों तरफ़ है, उससे बचा नहीं जा सकता। टेक्नोलॉजी हमारे दिमाग़ का विकास भी करता है। हालाँकि टेक्नोलॉजी कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसे बचपन से ही घिस-घिसकर सीखने की ज़रूरत हो। बच्चे अपने विकास के सामान्य क्रम में उसे समय के साथ सीखते रहते हैं। कोडिंग दस साल की उम्र में भी सीखी जा सकती है और पचास की उम्र में भी। लेकिन बचपन के मज़े सिर्फ़ बचपन में ही लिए जा सकते हैं। दोस्तियाँ बनाना, लोगों के साथ मिल-जुलकर रहना, कहानी, कविताओं, चित्रकारी के ज़रिए बच्चों को कल्पना की उड़ान देना, इस तरह की चीज़ें आप बचपन में ही बच्चों के साथ कर सकते हैं।


पेड़ पे चढ़ने का मज़ा कंप्यूटर गेम खेलकर नहीं लिया जा सकता वैसे ही वास्तव के जीव-जन्तु, नदी, झरने, पहाड़ देखने और डिस्कवरी चैनल देखने में बहुत अंतर होता है। बेहतर होगा कि माता-पिता बच्चों को बच्चा ही रहने दें उन्हें किसी रेस का घोड़ा न बनाएँ। क्योंकि देखा यह गया है कि जो बच्चे अपना बचपन स्क्रीन के सामने बिताते हैं उन्हें बड़े होकर सामाजिक रिश्ते बनाने में बहुत कठिलाइयों का सामना करना पड़ता है।


(यह लेखक के अपने स्वतंत्र विचार हैं)