कोरोना एक लड़ाई : कविता के माध्यम से ये डॉक्टर सीखा रहा है कोविड-19 से बचाव
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"हाथों का धोना"
क़ैद हुई आशंकाए,
यदि हाथ धोने से बह जाती हैं तो क्या बुरा है,
समय आ गया है, शायद
आशंकाओं के रंग गहरे होते हैं,
हाथों में लग जाएं तो बड़ी मुश्किल से छूटते हैं,
बचपन में ही जान गया था,
देवराजी काकी यही तो कहती थीं
"तन और मन दुनो ही साफ़ रहक चाहि"
उनका तन और मन सिर्फ़ हाथों में ही था,
और पूरा दिन हाथ धोती रहतीं थीं,
जो कभी साफ़ नहीं होते,
ऐसा घर के बाकी लोग कहते,
बच्चा भी उनको पागल समझने लगा था
पर, पहले हाथ धोकर आओ, और, तब खाओ,
बच्चे को सुनना बुरा लगता,
ख़ासकर तब जब बाहर के लोग भी साथ होते,
बेमन से उसने हाथ धोना शुरू कर दिया था,
पर मतलब हाथ धोने का सर्जन बनने के बाद समझ आया,
जहाँ उसे अनगिनत बार टोका जाता,
पर मन ही मन वह काकी को याद करता,
वही तो कहती थीं , ‘तन मन दोनो साफ़ होना चाहिए,
इस कलयुग में’
यही सोचते सोचते वह देर तक हाथ धोता रहता
तब तक जब तक उसे टोका न जाता,
‘सर्जन बनने के लिए मन भी साफ़ होना चाहिए’,
और वह साफ़ मन से काटता और सिलता,
कटे सिले लोग उसे देवता समझते,
और साबुत लोग उसे पागल,
वैसे ही जैसे,
सर्जन बनने से पहले वह काकी को पागल समझता था.
कुछ पल ऐसे भी आते हैं जब हाथ नहीं धोए जाते,
बचपन से आज तक अनगिनत चरण स्पर्श पर किसी ने नहीं टोका,
किसी ने नहीं टोका तुम्हारे हाथों पर पूजा का टीका लग गया है,
इसे धो लेना.
समय बदल गया है तो, कोई अपने हाथों से हमारा हौसला भी नहीं बढ़ाएगा क्या?
पर बस चलता तो शायद आज भी उन हाथों को नहीं धुलता,
जिन हाथों से,
पिता के पार्थिव देह को छूकर माथे से लगाया,
मुखाग्नि दी, उन्हीं हाथों से आचमन किया,
वही धूल, वही स्पर्श, वही ऊर्जा मुझमें शामिल हो गई थी,
और आज भी है...