कश्मीरी हिंदू: विस्थापित, व्यथित और वंचित
27 साल पहले 1990 में हुई त्रासदी में आज ही के दिन 3.5 लाख कश्मीरी पंडितों को डर के मारे रातों-रात कश्मीर छोड़ कर भागना पड़ा था। आप भी पढ़ें अपने ही देश में विस्थापित जीवन जीने को अभिशप्त कश्मीरी पंडितों पर एक विस्तृत रिपोर्ट...
गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर सब बोले, यहां तक कि वे लोग भी बढ़-चढ़ कर बोले, जिनके हाथ 1984 के सिख-विरोधी खूनी दंगों से रंगे हुए हैं। ये राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, ये सेक्युलरवाद का इकतारा बजाने वाले, ये तथाकथित मानवाधिकारवादी संगठन आज कश्मीरी विस्थापितों के कठघरे में खड़े हैं। हैरत है कि विस्थापन के बाद से कश्मीरी विस्थापितों की एक भी मांग नहीं मानी गई। यहां तक कि एक जांच आयोग के गठन की बुनियादी मांग तक नकार दी गई, क्योंकि वे अपनी संख्या बल के आधार पर राजनीति में जय-पराजय का परिणाम देने वाला हस्तक्षेप नहीं कर पाते। दुनिया के सबसे बड़े जम्हूरी मुल्क से 19 जनवरी यह सवाल पूछ रही है कि क्या आज भारत आधुनिक विश्व के सबसे बड़े नरसंहार दिवस पर शर्मिंदा है? क्या कश्मीरी पंडितों को पुन: सम्मान, सुरक्षा और सहजता के साथ घाटी में पुनर्स्थापित करने का सामर्थ्य संप्रभु भारतीय गणराज्य में है...
झेलम का बहता हुआ पानी उस रात की वहशियत का गवाह है जिसने कभी न खत्म होने वाले दाग इंसानियत के दिल पर दिए। गवाह है जमीं की जन्नत की आबोहवा जिसकी फिजाओं में मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से इबादत की आवाज की जगह कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था।
विस्थापन और पुनर्स्थापन के दरम्यान गुजरा वक्त इनसान के तजुर्बे में कई कभी न भूलने वाली दास्तानें, इबारतें, नसीहतें जोड़ देता है , जो आने वाले वक्त में उसके साथ हमसाया बन कर सफर करती रहती हैं। इंसान से सवाल भी करती हैं और कभी-कभी जवाब भी देती हैं। कुछ ऐसी ही दास्तानों, इबारतों, नसीहतों और सवालों के दरिया के उफान से गुजर रही है अपने ही देश में विस्थापित जीवन जीने को अभिशप्त कश्मारी पंडितों की समूची कौम, जो अपनी जमीन पर वापस जाने के लिए बेकरार तो है लेकिन उस समाज की सोच का क्या, जिसके कारण दो दशक पहले बेइज्जत, बे-आबरू होकर उन्हें अपनी जान बचा कर भागने को विवश होना पड़ा था। जिसके कारण जन्नत के खिताब से नवाजी गई जमीन अपने ही फूलों की कत्लगाह बनी।
इसकी हसीन वादियों में आज भी सैकड़ों कश्मीरी हिन्दू बेटियों की बेबस कराहें गूंजती हैं, जो अपने ही खून की बदकारी का शिकार हुई थीं। घर, बाजार, हाट, मैदान से लेकर वादी के गोशे-गोशे तक में न जाने कितनी जुल्मों की दास्तानें दफ्न हैं जो आज तक अनकही हैं। घाटी के खाली, जले मकान यह चीख-चीख के बताते हैं कि रातों-रात दुनिया जल जाने का मतलब कोई हमसे पूछे। झेलम का बहता हुआ पानी उस रात की वहशियत का गवाह है जिसने कभी न खत्म होने वाले दाग इंसानियत के दिल पर दिए। गवाह है जमीं की जन्नत की आबोहवा जिसकी फिजाओं में मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से इबादत की आवाज की जगह कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था।
लखनऊ में विस्थापित जीवन जी रहे कश्मीरी पण्डित संजय बहादुर उस मंजर को याद करते हुए आज भी सिहर जाते हैं। वह कहते हैं कि 'खुदा के घर पर रखे ये लाउडस्पीकर लगातार तीन दिन तक यही आवाज दे रहे थे कि यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा, 'आजादी का मतलब क्या ला इलाहा इल्लाह, 'कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है और 'असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान जिसका मतलब था कि हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ लेकिन कश्मीरी पंडितों के बिना। यह सब अचानक एक लम्हे की दास्तान नहीं थी, वक्त ने परवरिश दी थी बरसों, तब जाकर ऐसे जहरीले जज्बातों के तीरों ने सदियों के भाईचारे की अस्मत लूटने की हिम्मत और हिमाकत की थी।
लखनऊ में विस्थापित जीवन जी रहे कश्मीरी पंडित रविन्द्र कोत्रू के चेहरे पर अविश्वास की सैकड़ों लकीरें पीड़ा की शक्ल में उभरती हुईं बयान करती हैं कि यदि आतंक के उन दिनों में घाटी की मुस्लिम आबादी ने उनका साथ दिया होता जब उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा था, उनके साथ कत्लेआम हो रहा था तो किसी भी आतंकवादी में ये हिम्मत नहीं होती कि वह किसी कश्मीरी पंडित को चोट पहुंचाने की सोच पाता लेकिन तब उन्होंने हमारा साथ देने के बजाय कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए थे या उनके ही लश्कर में शामिल हो गए थे।
लखनऊ में रह रही कश्मीरी पण्डितों की नौजवान पीढ़ी के हस्ताक्षर प्रकाश कौल अपने दर्द और उम्मीद को साझा करते हुये कहते हैं कि रातों-रात वह पूरी कौम सड़क पर आ गई जो कश्मीर की अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था की रीढ़ थी। और ताज्जुब यह था कि पूरे देश से मदद के लिए कोई आवाज नहीं आई थी। जो अखरोटों और बादाम के बागों के मालिक थे वह टेण्ट में दो किलो चावल के तलबगार थे और जो वादी के मुसलमान उन्हीं बागों में नौकर थे वह आज करोड़ों के साहूकार हैं। दर्द और उपेक्षा के घटाटोप अंधकार में अभी तक मदद और अपनेपन की कोई शमा जलती नहीं दिख रही है। कश्मीरी पण्डितों के हिस्से में दर्द और उपेक्षा के तवील अंधेरों की रात कितनी काली और लंबी है यह जानने के लिये हमें वक्त के पन्नों को पलटना होगा। कश्मीरी पंडित रविन्द्र कोत्रू बताते हैं कि मेरा घर लाल चौक के करीब ही था, हम समझ रहे थे कि घाटी का माहौल बदल रहा है। मोहल्ले में असलहों की आमद होती दिखने लगी थी। कुछ अनजान चेहरों की भी चहल-कदमी एकाएक बढऩे लगी थी। लेकिन किसी को यह अंदेशा नहीं था कि हालात ऐसे हो जायेंगे कि बाप को अपनी ही बेटी को जहर देने को मजबूर होना पड़ेगा।
कश्मीरी विस्थापितों के संगठन पनुन कश्मीर की लखनऊ इकाई के सचिव रवि काचरू रुंधे गले से सामने की दीवार पर लगी चिनार के पेड़ों की तस्वीर की ओर इशारा करते हुये कहते हैं कि 'ये चिनार नहीं हमारे दहकते हुए जज्बात हैं। अतीत की पगडंडियों पर गश्त करते हुये वह बताते हैं कि पण्डितों के लिए कश्मीर में छद्म युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के काल में हुई थी। 14 सितंबर, 1989 के तत्कालीन भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य तिलक लाल तप्लू और जस्टिस नील कांत गंजू की जेकेएलएफ ने गोली मार कर हत्या कर दी। यहां से शुरू हुई कश्मीरी पण्डितों के नरसंहार की कहानी और फिर 19 जनवरी, 1990 की एक मनहूस सुबह कश्मीरी पण्डितों की जिन्दगी में कभी न छंटने वाला अंधेरा लेकर आई।
19 जनवरी, 1990 को सुबह कश्मीर के प्रत्येक हिन्दू घर पर एक नोट चिपका हुआ मिला, जिस पर लिखा था- कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे। दीगर है कि पहले अलगाववादी संगठन ने कश्मीरी पण्डितों से भारत सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कहा था, लेकिन जब पण्डितों ने ऐसा करने से इंकार दिया तो हजारों कश्मीरी मुसलमानों ने पण्डितों के घर को जलाना शुरू कर दिया। महिलाओं का बलात्कार कर उनको छोड़ दिया। बच्चों को सड़क पर लाकर उनका कत्ल कर दिया गया, और यह सभी हुआ योजनाबद्ध तरीके से। सबसे पहले हिन्दू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिन्दुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक बलात्कार कर जिंदा जला दिया गया या नग्नावस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। यह मंजर देख कर कश्मीर से तत्काल ही लगभग 3.5 लाख हिन्दू परिवार पलायन कर जम्मू और दिल्ली पहुंच गए। इस नरसंहार में हजारों कश्मीरी पण्डितों को मारा गया। 1,500 मंदिरों नष्ट कर दिए गए। रालिव, गालिव और चालिव का नारा दिया गया। यानी कश्मीरी पण्डित धर्मांतरण करें, मरें या चले जाएं। यही नहीं हिन्दुओं के 300 गांवों के नाम बदल कर इस्लामपुरा, शेखपुरा और मोहम्मदपुरा कर दिया गया। शंकराचार्य, हरिपरबत, अनंतनाग जैसे नाम अब बदल गए हैं, उन्हें सुलेमान तेइंग, कोहिमारन, इस्लामाबाद जैसे मुस्लिम नामों से पुकारा जाने लगा है। हिंदुओं के समतल कृषि भूमि को वक्फ के सुपुर्द किया गया।
अनंतनाग जिले की उमा नगरी जहां ढाई सौ हिंदू परिवार रहते थे उसका नाम शेखपूरा कर दिया गया। क्या यही कश्मीरियत है? कश्मीरी पंडित संजय बहादुर कहते हैं कि अगर आजादी के बाद भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान नहीं जोड़ा गया होता तो जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार नहीं होते और न ही कश्मीरी पंडितों को अपनी धरती नहीं छोडऩी पड़ती। इस स्थिति के लिए सियासत भी बराबर की गुनाहगार है। इस संवैधानिक विशेषाधिकार की वजह से ही कश्मीरी पंडितों का सारा संवैधानिक अधिकार छिन गया है और वे दिल्ली में खानाबदोशों की तरह जीवन गुजार रहे हैं। इस हालात के लिए अब्दुला परिवार और कांग्रेस दोनों जिम्मेदार हैं।
फारुख अब्दुला के पिता शेख अब्दुल्ला के शासन में ऐसी नीतियां बनी जिससे कश्मीरी पंडितों का अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया। शेख अब्दुल्ला ने दमनकारी नीति 'बिग लैंड एबोलिशन एक्ट' पारित कर हिंदुओं को भरपूर नुकसान पहुंचाया। इस कानून के तहत हिंदू मालिकों को बिना हर्जाना दिए ही उनकी कृषि योग्य भूमि छीन कर जोतने वालों को सौंप दी गयी। हिंदुओं ने मुसलमानों को जो कर्ज दे रखा था उसे भी सरकार ने 'ऋण निरस्तीकरण योजना के तहत समाप्त कर दिया। सरकारी सेवाओं में आरक्षण सुनिश्चित कर घाटी के हिंदुओं को सिर्फ 05 फीसद स्थान दिया गया। प्रकट रूप से सरकारी नौकरियों में हिन्दुओं पर पाबंदी थी। इसके चलते हिंदुओं को न सिर्फ बेरोजगार होना पड़ा, बल्कि घाटी छोडऩे के लिए भी मजबूर होना पड़ा।
शेख अब्दुला की गिरफ्तारी के बाद उनके रिश्तेदार गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने 20 माह के शासन में घाटी में कश्मीरी पंडितों पर खूब जुल्म ढाया। जनमत संग्रह मोर्चा गठित कर आत्मनिर्धारण के अधिकार का प्रस्ताव रखा। पाठ्य पुस्तकों में हिंदुओं के खिलाफ नफरत पैदा करने वाले विषय रखे। पंथनिरपेक्षता के विचार को बुनियादी तौर पर तहस-नहस किया। पूजा स्थलों व धर्मशालाओं को नष्ट किया। यहां तक उनको सार्वजनिक शौचालय बना दिया गया। कश्मीरी पंडित सिर्फ इसलिए निशाना बनाए गए कि वे ईमानदार और देशभक्त थे। शाह के समय ही 19 जनवरी 1990 को बड़े पैमाने पर घाटी में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ था। इस नरसंहार को भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार मूकदर्शक बनकर देखती रही। आज भी नरसंहार करने और करवाने वाले खुलेआम घूम रहे हैं।
विडंबना यह है कि यह सब बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील भारत में हो रहा था। सवाल यह कि क्या कश्मीर से विस्थापन की तकलीफ और त्रासदी पर किसी ने कभी मुंह खोला? अकल्पनीय पीड़ाएं दे-देकर हत्याकांड हुए। हजारों घर, दुकानें जला डाली गईं। पूजा स्थलों को निशाना बनाया गया। उमानगरी के मंदिर को तो बम से उड़ा दिया गया। पुलिस के पास दर्जनों एफआइआर दर्ज हैं। जमीन-जायदाद, बाग-बगीचे, शैक्षणिक और सांस्कृतिक केन्द्रों की चल-अचल संपत्ति हथियाई गई। कवि-कलाकार मार डाले गए। क्या तब किसी ने होंठ तक खोले? क्या जम्हूरियत के मंदिर संसद में कोई हंगामा हुआ? संस्कृतिकर्मियों ने कहीं कोई जुलूस निकाला? कोई प्रस्ताव पारित किया?
छह दिसंबर 1992 को 'राष्ट्रीय शर्म घोषित करने वाले कश्मीर के नरसंहार पर चुप रहे। क्या आधुनिक भारत में सेक्युलरिज्म की हत्या सबसे पहले कश्मीर में नहीं हुई? क्या धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत में कश्मीरी पंडितो का जातीय सफाया राष्ट्रीय शर्म नहीं था? एक अनौपचारिक बातचीत में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंद्रकुमार गुजराल ने गलत नहीं कहा था कि देश की एक अरब से ज्यादा आबादी में साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडित राष्ट्र-हित में कोई महत्व नहीं रखते। यह एक गंभीर टिप्पणी भर नहीं है। यह स्वतंत्र भारत के जीवन मूल्यों तथा स्थापनाओं को फिर से परिभाषित करने की जरूरत दर्शाती है।
हालांकि गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर सब बोले, यहां तक कि वे लोग भी बढ़-चढ़ कर बोले, जिनके हाथ 1984 के सिख-विरोधी खूनी दंगों से रंगे हुए हैं। ये राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, ये सेक्युलरवाद का इकतारा बजाने वाले, ये तथाकथित मानवाधिकारवादी संगठन आज कश्मीरी विस्थापितों के कठघरे में खड़े हैं। हैरत है कि विस्थापन के बाद से कश्मीरी विस्थापितों की एक भी मांग नहीं मानी गई। यहां तक कि एक जांच आयोग के गठन की बुनियादी मांग तक नकार दी गई, क्योंकि वे अपनी संख्या बल के आधार पर राजनीति में जय-पराजय का परिणाम देने वाला हस्तक्षेप नहीं कर पाते। दुनिया के सबसे बड़े जम्हूरी मुल्क से 19 जनवरी यह सवाल पूछ रही है कि क्या आज भारत आधुनिक विश्व के सबसे बड़े नरसंहार दिवस पर शर्मिंदा है? क्या कश्मीरी पंडितों को पुन: सम्मान, सुरक्षा और सहजता के साथ घाटी में पुनर्स्थापित करने का सामथ्र्य संप्रभु भारतीय गणराज्य में है! शायद उत्तर हम सबको मालूम है।
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